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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ विद्वान् श्रीवसुनन्दी प्राचार्य, अपने उपास- ' वत्थेकधरो पढमो काध्यायन में, ११ वी प्रतिमाके धारकको ___ कोवीणपरिगहो विदिओ॥३०॥ . 'उस्कृष्ट श्रावक' बतलाते हुए उसके दो धम्मिल्लाणंचयणं भेद करते हैं, प्रथम और द्वितीय । ___ करेइ कत्तरिछुरेण वा पढमो । मापके मतानुसार प्रथमोत्कृष्ट श्रावक ठाणाइसु पडिलेहइ एक वस्त्र रखता है और द्वितीय कौपीनमात्र, पहला कैंची या उस्तरेसे बालोको उ( मिदु ?)वयरणेण पयडप्पा ।।३०२॥ कटाता है और दूसरा नियमपूर्वक लौच भुंजइ पाणपत्तम्मि करता है अर्थात् उन्हें हाथसे उखेड़ता ___ भायणे वा सुई समुवइहो । है; स्थानादिकके प्रतिलेखनका कार्य उववासंपुणणियमा पहला (वस्त्रादिक) मृदु उपकरणसे चउव्विहं कुणइ पव्वेसु ॥३०॥ लेता है, परन्तु दूसरा उसके लिए नियमसे पक्खालिऊण पत्तं पविसइ (मुनिवत्)पिच्छी रखता है। प्रथमोत्कृष्टके चरियाय पंगणेठिच्चा। लिये इस बातका कोई नियम नहीं है कि भणिऊणधम्मलाई वह पात्रमें ही भोजन करे या हाथमें, वह जायइ भिक्खं सयं चेव ॥३०४।। अपने इच्छानुसार चाहे जिसमें भोजन सिग्छ लाहालाहे अदीणकर सकता है । परन्तु द्वितीयोत्कृष्टके लिए कर-पात्रमें अर्थात् हाथमें ही भोजन __ वयणो णिउयत्तिऊणतओ। करनेका नियम है । इसके सिवाय बैठकर अण्णाम्मि गिहे वच्चा भोजन करना, भिक्षा के लिए धावकके दरिसइ मौणण कायव्वं ॥३०५॥ घर जाना और वहाँ आँगनमें स्थित होकर 'धर्म लाभ' शब्द के साथ स्वयं भिक्षा एवं भेओ होई णवर माँगना, भिक्षाके मिलने या न मिलने विसेसो कुणिज्ज णियमेण । पर अदीनवदन होकर शीघ्र वहाँ से निक- लोचं धरिज पिच्छं. लना और फिर दूसरे घरमें जाकर मौन- _ जिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३१॥ पूर्वक अपने प्राशयको प्रगट करना, दिण पडिमवीरचर्या इत्यादि नियम दोनों के लिए समान हैं। ___तियाल जोगेसुणत्थि अहियारो। साथ ही दिन में प्रतिमा-योग धरना, वीरबर्या करना, त्रिकालयोग (मातापनादिक) सिद्धान्तरहस्साणवि का अनुष्ठान करना, इत्यादि बातोंका . अज्झयणं देसविरदाणं ॥३१२॥ मापने दोनोंको ही अनधिकारी बतलाया .. यहाँ पर इतनी बात और बतला है। इन सब प्राशयको गाथाएँ इस देनेके योग्य है कि वसुनन्दि आचार्यने प्रकार हैं इस प्रतिमाके दो भेद करने पर भी उन एयारसम्मिठाणे भेदों के लिए तुल्लक, ऐलक जैसे जुदा - उकिट्ठो सावओ हवे दुविहो। जुदा कोई दो खास नामोका निर्देश •देखो 'वसुनन्दीश्रावकाचार' नामसे जैन सिदान्त नहीं किया, बल्कि उनका यह भेद करना प्रचारक मण्डली देवबन्दकी तरफसे सं० १९६६ की एक कक्षाके कोर्सको दो सालोंमें विभा. छपी प्रति । जित करनेकोकोहोरो, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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