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अङ्क ६-१० ] जैनधर्मका अहिंसा तत्व।
२६३ चाहिए वहाँ खर्च नहीं करता, उसके परे-आत्मिक रूप बन गया है। औरोंकी धनका नाश हो जाता है--उसके पास अहिंसाकी मर्यादा मनुष्य, और उससे कुछ भी नहीं रहता।
ज्यादह हुआ तो पशु-पक्षीके जगत् तक ४३८--दोषों में सबसे बड़ा दोष जाकर समाप्त हो जाती है। परन्तु जैनी लोभ, अर्थात् जहाँ चाहिए वहाँ खर्च न अहिंसाकी कोई मर्यादा ही नहीं है। करना है।
उसकी मर्यादामें सारी सचराचर जीव. ४३४--कभी अपनेकी बहत बड़ा जाति समा जाती है और तो भी वह वैसी खयाल मत करो और कभी ऐसी चीजों ही अमित रहती है। वह विश्वकी तरह की इच्छान करो जिनसे कोई लाभ न हो। अमर्याद-अमन्त है और आकाशकी तरह ... ४५०--जिन बातोंको तुम इच्छा सर्व-पदार्थ-व्यापिनी है। . करते हो, यदि उन्हें दूसरों पर प्रकट न परन्तु जैनधर्मके इस महत् तत्त्वके होने दो तो तम्हारे शत्रोका तम्हारे यथार्थ रहस्यको समझने के लिए बहुत विरुद्धका सारा उद्योग निष्फल हो ही थोड़े मनुष्योंने प्रयत्न किया है। जैनजायगा ।
धर्मकी इस अहिंसाके बारे में लोगों में बड़ी अज्ञानता और बेसमझी फैली हुई है। कोई
इसे अव्यवहार्य बतलाता है। कोई इसे जेनर्धमका अहिंसा-तत्व ।
अनाचरणीय बतलाता है। कोई इसे
आत्मघातिनी कहता है और कोई राष्ट्र(ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) नाशिनी। कोई कहता है कि जैनधर्मकी
जैनधर्मके सभी प्राचार' और अहिंसाने देशको पराधीन बना दिया और 'विचार' एक मात्र 'अहिंसा' के तत्त्वपर कोई कहता है कि इसने प्रजाको निर्वीर्य रचे गये हैं। यों तो भारतके ब्राह्मण, बना दिया है। इस प्रकार जैनी अहिंसाके बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धौने अहिंसा- बारेमें अनेक मनुष्योंके अनेक कुविचार को 'परम धर्म' माना है और सभी ऋषि, सुनाई देते हैं। कुछ वर्ष पहले देशभक्त मुनि, साधु, संत इत्यादि उपदेष्टाओंने पंजाबकेशरी लालाजी तकने भी एक ऐसा हिंसाका महत्त्व और उपादेयत्व बत- ही भ्रमात्मक विचार प्रकाशित कराया लाया है, तथापि इस तत्त्वको जितना था, जिसमें महात्मा गांधीजी द्वारा प्रचा. विस्तृत, जितना सूक्ष्म, जितना गहन और रित अहिंसाके तत्त्वका विरोध किया गया जितना आचरणोय जैनधर्मने बनाया है, था, और फिर जिसका समाधायक उत्तर उतना अन्य किसीने नहीं। जैनधर्मके स्वयं महात्माजीने दिया था । लालाजी प्रवर्तकोंने अहिंसा-तत्त्वको चरम सीमातक जैसे गहरे विद्वान् और प्रसिद्ध देशनायक पहुँचा दिया है। उन्होंने केवल अहिंसाका होकर तथा जैन साधुओका पूरा परिचय कथन मात्र ही नहीं किया बल्कि उसका रखकर भी जब इस अहिंसाके विषयमें आचरण भी वैसा ही कर दिखाया है। वैसे भ्रान्तविचार रख सकते हैं, तो फिर और और धर्मोका अहिंसा-तत्त्व केवल अन्य साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या कायिक बनकर रह गया है, परन्तु जैनधर्म- कही जाय। हालहीमें, कुछ दिन पहले, का अहिंसा तत्व उससे बहुत कुछ आगे जी. के. नरीमान नामक एक पारसी बढ़कर वाचिक और मानसिकसे भी विद्वान्ने महात्मा गांधीजीको सम्बोधन
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