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________________ --- २४५ जैनहितैषी। [भाग १५ करके एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने तत्त्वके प्रवर्तकोंने इसका आचरण अपने जैनोंकी अहिंसाके विषयमें ऐसे ही भ्रम- जीवन में पूर्ण रूपसे किया था। वे इसका पूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि. नरीमान पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षांतक एक अच्छे ओरिएन्टल स्कालर है, और जीवित रहे और जगत्को अपना परम उनको जैन-साहित्य तथा जैन-विद्वानोंका तत्त्व समझाते रहे। उनके उपदेशानुसार कुछ परिचय भी मालूम देता है । जैन- अन्य असंख्य मनुष्योंने आजतक इस धर्मसे परिचित और पुरातन इतिहाससे तत्त्वका यथार्थ पालन किया है। परन्तु अभिज्ञ विद्वानोंके मुँहसे जब ऐसे अवि- किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं चारित उद्गार सुनाई देते हैं, तब साधा- पड़ा। इसलिए यह बात तो सर्वानुभवरण मनुष्यों के मनमें उक्त प्रकारकी भ्रांति- सिद्ध जैसी है कि जैन अहिंसा अव्यवहार्य का ठस जाना साहजिक है । इसलिए भी नहीं है और इसका पालन करनेके हम यहाँपर संक्षेपमें श्राज जैनधर्मकी लिए आत्मघातकी भी आवश्यकता नहीं अहिंसाके बारेमें जो उक्त प्रकार की है। यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि भ्रांतियाँ जनसमाज में फैली हुई हैं, उनका महात्मा गान्धीजीने देशके उद्धारके निमित्त मिथ्यापन दिखाते हैं। जब असहयोगकी योजना उद्घोषित की, जैनी अहिंसाके विषय में पहला तब अनेक विद्वान् और नेता कहलानेआक्षेप यह किया जाता है कि-जैनधर्म- वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको प्रवर्तकोंने अहिंसाकी मर्यादा इतनी अव्यवहार्य और राष्ट्रनाशक बतानेको बड़ी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि लम्बी लम्बी बातें की थीं और जनताको जिससे लगभग वह अव्यवहार्यकी कोटिमें उससे सावधान रहने की हिदायत की जा पहुँची है। यदि कोई इस अहिंसाका थी । परन्तु अनुभव और पाचरणसे पूर्ण रुपसे पालन करना चाहे तो उसे यह अब निस्सन्देह सिद्ध हो गया कि न अपनी समग्र जीवन-क्रियायें बन्द करनी असहयोगकी योजना अव्यवहार्य ही है होगी और निश्चेष्ट होकर देहत्याग करना और न राष्ट्रनाशक ही। हाँ, जो अपने होगा। जीवन-व्यवहारको चालू रखना स्वार्थका भोग देनेके लिए तैयार नहीं और इस अहिंसाका पालन भी करना, ये और अपने सुखोंको त्याग करनेको तत्पर दोनों बाते परस्पर विरुद्ध हैं। अतः इस नहीं, उनके लिए ये दोनों बातें अवश्य अहिंसाके पालनका मतलब आत्मघात अव्यवहार्य हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। करना है; इत्यादि। आत्मा या राष्ट्रका उद्धार बिना स्वार्थयद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि त्याग और सुख-परिहारके कभी नहीं जैन अहिंसाकी मर्यादा बहुत ही विस्तृत होता । राष्ट्रको स्वतन्त्र और सुखी है और इसलिए उसका पालन करना बनाने के लिए जैले सर्वस्व-अर्पणकी आव. सबके लिए बहुत ही कठिन है, तथापि श्यकता है वैसे ही आत्माको प्राधि-व्याधियह सर्वथा अव्यवहार्य या आत्मघातक उपाधिसे स्वतन्त्र और दुःख-द्वंद्वले है, इस कथनमें किञ्चित् भी तथ्य नहीं निर्मुक्त बनानेके लिए भी सर्व मायिक है। न यह अव्यवहार्य ही है और न सुखों के बलिदान कर देनेकी आवश्यकता आत्मघातक ही। यह बात तो सब कोई है। इसलिए जो "मुमुक्षु" (बन्धनोंसे मुक्त स्वीकारते और मानते हैं कि, इस हिंसा- होनेकी इच्छा रखनेवाला) है-राष्ट्र और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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