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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
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पन्द्रहवाँ भाग। अंक -१०
जैनहितैषी।
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बैशाख, ज्येष्ठ २५४७ मई, जून १९२
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी' ॥
- भगवजिनसेनका विशेष
नामके मुनिवंशमें उत्पन्न हुए थे। आपके
गुरु श्री वीरसेन प्राचार्य 'आर्यनन्दी के परिचय ।
शिष्य और 'चन्द्रसेन' प्राचार्य के प्रशिष्य आदि पुराणके पूर्व भाग और 'जय- थे। और इसलिये, उपलब्ध साहित्यमें, धवला' टीकाके उत्तर भागके रचयिता आपकी गुरु परम्परा इन्हीं चन्द्रसेना. भगवजिनसेनका जो कुछ परिचय अभी चार्य से प्रारम्भ होती है, एलाचार्यसे. तक श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीकी नहीं । पलाचार्यसे वीरसेनने सिर्फ 'विद्वद्रत्न माला' से साधारण जनताको सिद्धान्त शास्त्र पढ़ा था, इसलिये वे प्राप्त हुआ है, उससे कुछ अधिक और उस विषयमें उनके एक विद्यागुरु अवश्य विशेष परिचय आज हम अपने पाठकों को थे परन्तु दीक्षागुरु नहीं थे, यह सुनिश्चित देते हैं । इस परिचयके आधार स्वयं है। और इसी लिये एलाचार्यसे भगवभगवजिनसेनके वाक्य हैं जिनको उन्होंने जिनसेनकी गुरु-परम्पराका प्रारम्भ होना जयधवला टीकाके अन्तमें प्रशस्ति * मानना ठीक नहीं है। यथारूपसे दिया है।
यस्तपोदीप्त किरणैर्भव्यांभोजानि बोधयन् । . इस प्रशस्तिसे मालूम होता है कि, व्यद्योतिष्ट मुनी.. पंचस्तूपान्वयाम्बरे॥२० उक्त श्री जिनसेनाचार्य 'पंचस्तूपान्वयन प्रशिष्यश्चंद्रसेनस्य यः शिष्योप्यायनंदिना।
य* ह पूरा प्रशस्ति श्राराके जैनसिद्धान्त भवन में कुलं गुणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत्।।२१ मौजूद है। यह सेन मंघका ही नामान्तर अथवा उसकी एक
तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् : शाखा विशेष है।
जिनसेन समिबुधीः ।
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