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________________ ३०४ . जैनहितैषी। [ भाग १५ लेता है) वह 'त्यक्तोद्दिष्ट' नामका श्रावक मालूम होता है कि इस स्वरूप-कथनसे कहलाता है। नवकोटि विशुद्ध भोजनका लेना स्वामि_ 'उपासकाचार' में भी आपने प्रायः कार्तिकेयके कथनानुकूल है। परन्तु भिक्षाके ऐसा ही स्वरूप वर्णन किया है* | साथ लिए याचना करना और 'धर्म लाभ' शब्द ही, एक स्थानपर उसे 'उत्कृष्ट श्रावका कहना, ये बातें स्वामिकार्तिकेयके 'याचनालिखकर उसके कुछ विशेष कर्तव्योंका रहित विशेषण और श्रीकंदकुंदाचार्य के भी उल्लेख किया है, जो सामायिकादि 'मौनपूर्वक विशेषण के साथ कोई मेल षडावश्यक क्रियाओं के अतिरिक्त निम्न नहीं रखती-प्रतिकूल मालूम होती हैं। प्रकार हैं-- और भिक्षापात्रमें, अनेक घरोंसे भिक्षा वैराग्यस्य परांभूमि संयमस्य निकेतनं । एकत्र करके उसे एक स्थान पर बैठकर उत्कृष्टंःकारयत्येव मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः८.७३ खानेका जो विधान यहाँ किया गया है, केवलं वा सवस्त्रं वा कौपीनं स्वीकरोत्यसौ। वह चामुण्डरायके 'करपात्रभोजी' एकस्थाननापानयिो निन्दागहोएरायणः-७४ कथनसे उनका ऐसा आशय जान पड़ता । विशेषणके विरुद्ध पड़ता है। चामुंडरायके सधर्मलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमा । है कि वे इस प्रतिमाधारीको भिक्षाके सपात्रो याचते भिक्षा जरामरणसूदनीम्-७५ लिए घर घर फिराना नहीं चाहते, बल्कि ___ इन कर्तव्यों में पहला कर्तव्य है, मुख एक ही घर पर मुनिकी तरह कर-पात्रमें और सिरके बालोंका मुण्डन कराना आहार करा देने के पक्षमें हैं। हाँ, इतना (क्षौर कराना, लौच करना नहीं ), जरूर है कि मुनि खड़े होकर आहार दूसरा खाली कौपीन (लंगोट) या वस्त्र- लेते हैं और इस प्रतिमाधारीके लिए सहित कौपीनका धारण करना, तीसरा चामुंडरायने बैठकर भोजन करने का एक स्थान पर ( बैठकर ) अन्न जल विधान किया है। प्रस्तु, कुछ भी हो, ग्रहण करना ( भोजन करना), चौथा परन्तु यह बात श्रीकुंदकुंदाचार्य के 'भिक्खं अपनी निन्दा गह से युक्त रहना और भमेह पत्तो' (पात्र हाथमें लेकर भिक्षाके पाँचवाँ कर्तव्य है पात्र हाथमें लेकर लिए भ्रमण करता है) इस विशेषणके प्रत्येक घरसे 'धर्म-लाम' शब्दके साथ विरुद्ध नहीं पड़ती। इन सब बातोंके भिक्षा माँगना। सिवा यहाँ मुख और मस्तकके केशोंका . अमितगतिके इस संपूर्ण कथन से मुण्डन करानेकी बात ख़ास तौरसे कही ११ वी प्रतिमाधालेके लिए 'त्यक्तोद्दिष्ट' गई है और केवल कौपीन रखने या वस्त्र. 'उहिष्टवर्जी' और 'उत्कृष्ट श्रावक इन नामो सहित कौपीन रखनेका कथन विकल्पकी उपलब्धि होती है। और साथ ही यह रूपसे किया गया है। उसकी वजहसे प्रतिमाके दो भेद नहीं किये गये, यह बात • यथा-यो बंधुराबंधुरतुल्यचित्तो गृह्णाति भोज्यं नवकोटि खास तौरसे ध्यान में रक्खे जानेके योग्य शुद्धं । उद्दिष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो विभीलुकः । है। बाकी उद्दिष्ट उपधि-शयन-वस्त्रादिकके संसृतिजातुधान्याः ॥७-७७ ।। त्याग आदि कितने ही विशेषणोंका यहाँ + श्वेताम्बरोंके यहाँ ११वी प्रतिमावालेके वास्ते इस उल्लेख नहीं किया गया, यह स्पष्ट ही है। शब्दके साथ भिक्षा माँगनेका निषेध है, ऐसा योगशास्त्रकी -श्रीनन्दनन्धाचार्य के शिष्य श्रीगु. गुजराती टीकासे मालूम होता है। रुदासाचार्यका बनाया हुश्रा 'चित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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