SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितैषी। [भाग १५ 'गृहस्थ' मध्यके तीन 'ब्रह्मचारी' और ऐसी हालत में यह एक प्रकारकी सामान्य अन्तके दो 'भिक्षुक' कहलाते हैं और संशा हो जाती है और उससे ११ वीं इसके बाद 'यति' संज्ञा होती है। यह प्रतिमावाले का ही खास तौरसे कुछ दूसरी बात है कि श्रावकको 'देशयति' बोध नहीं हो सकता। परन्तु खास तौर भी कहते हैं। परन्तु यह संज्ञा सभी दर्जीके से बोध हो सके या न हो सके, इतना श्रावकों के लिये व्यवहृत होती है।* जरूर मानना पड़ेगा कि शास्त्र में ११ वी खालिस 'यति' संशाका प्रयोग प्राम तौर प्रतिमावाले के लिए 'भिक्षुक' संज्ञा भी से महावती साधुओंके लिए ही पाया बहुत पहलेसे चली आती है, क्योंकि जाता है। फिर भी यहाँ देशव्रतीके लिए यशस्तिलक ग्रंथ शक सं० १ (वि. 'यती' संज्ञाका व्यवहार किया गया है, सं० १०१६) में बनकर समाप्त हुआ है यह एक साल बात है; और इसमें कोई गुप्त और उसमें उक्त संशाका निर्देश है। रहस्य ज़रूर है। संभव है कि श्वेताम्बर यहाँपर हमारे कितने ही पाठक यह यतियों के पदस्थको लक्ष्य करके ही यहाँ जानने के लिए ज़रूर उत्कण्ठित होंगे कि इस संशाका प्रयोग किया गया हो। श्रीसोमदेव सूरिने ११ वी प्रतिमाका क्या .१३-श्रीसोमदेव सूरिके ऊपर उद्- स्वरूप वर्णन किया है। परन्तु हमें खेदके धृत किये हुए वाक्यसे पाठकों को यह साथ लिखना पड़ता है कि यशस्तिलक भी मालूम होगा कि इस ११ वी प्रतिमा- नामके आपके प्रधान ग्रंथमें, जिसमें धारीको 'भिक्षुक' भी कहते हैं। यद्यपि उपासकाध्ययनका बहुत कुछ लम्बा जैनधर्ममें 'भिक्षुक' नामका एक जुदा ही चौड़ा वर्णन है, हमें इस प्रतिमाका कोई माश्रम माना गया है। जो कि अन्तिम खास स्वरूप उपलब्ध नहीं हो सका। पाश्रम है और जिसे संन्यस्त आश्रम भी हाँ, एक स्थान पर * ११ प्रतिमाओंके कहते हैं। और इसलिए 'भिक्षुक' एक नाम ज़रूर मिले हैं। परन्तु वे नाम मुनिकी या महाव्रती साधु की संज्ञा हैः कितने ही अंशों में इतने विलक्षण हैं और परन्तु सोमदेवसूरिने ११ वी प्रतिमा- उनका क्रम भी इतना विभिन्न है कि वे धारीको भी इस नामसे अविहित किया दोनों (नाम और क्रम) ऊपर उल्लेख और साथ ही १०वी प्रतिमावाले किये हुए प्राचार्यों तथा विद्वानों के तिए भी इसी संज्ञाका प्रयोग किया है।। कथनों में से किसी एकके भी कथनसे मेल नहीं खाते । यथायथा-"तच्च देशयतीनां द्विविधं मूलोत्तरगुणात्र मूलन व्रतान्यर्चा यण " यशस्तिलकः । यथा-ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः पर्वकर्माकृषिक्रिया: ।। इत्याश्रोस्तु जैनानामुत्तरोत्तर शुद्धितः ॥ इत्यादि पुराणे दिवा नवविध ब्रह्म श्रीजिनसेनः । संचित्तस्य विवर्जनम् ॥ है. श्राशाधर और पं0 मेधावीने भी इस विषयमें सोमदेव तरिका अनुसरण किया है और १० वी तथा ११ परिग्रहपरित्यागो वो दोनों ही प्रतिमावालोंको भिक्षुक' लिखा है; यथा मुक्तिमात्रानुमान्यता। अनुमतिवि तोद्दिष्ट विरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टीच-सागार धर्मामृत * ऊपर उदधृत किये हुए ‘षडत्रगृहिणो' इत्यादि उ भिक्षुको परौ-धर्म संग्रह श्रावकाचारः। श्लोकसे पहले। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy