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________________ २५० का काम मिले तो वे उससे कभी इन्कार नहीं कर देंगे। वे भी तो अपनी श्रजीविकाके लिए मैल साफ करनेका पेशा करते हैं । फिर भी हम उक्त कार्यको परोपकारी समझते हैं और डाकूरोका आदर करते हैं । डाकृरोका पेशा तो केवल रोगियोंका ही उपकारक है, परन्तु भंगीका पेशा सारे जगतका उपकार कर्त्ता है; और इसलिए वह डाक्टरोंके पेशे से भी अधिक आवश्यक और पवित्र है। यदि डार अपना पेशा छोड़ दें, तो केवल रोगियोंका ही नाश हो। परन्तु यदि भंगियोंका काम बन्द हो जाय तो जगतका नाश हो जाय । ऐसी दशा में एक श्रावश्यक पेशेके करनेवालोंको अपवित्र मानकर उन्हें सताना बड़ा भारी पाप है और ऐसा मानना सर्वथा उचित है। जैनहितैषी । "हमें चाहिए कि हम डाकरके पेशे - को जैसा पवित्र मानते हैं, उसी तरह भंगीके पेशे को भी मानें। हमें उन्हें अच्छा रहनेकी प्रेरणा करनी चाहिए, उन्हें दुर भगाने की अपेक्षा अपने समीप रखना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए ।" नवजीवन भाग २, अंक १३ में महास्माजीने 'अस्पृश्य-नीति' नामक लेखमें कुछ वाक्य इस प्रकार लिखे हैं: "मेरा दृढ़ विश्वास है कि अस्पृ श्यता अधर्म है । हिन्दू धर्मकी यह श्रति शयता या अतिरेक है । श्रतिशयको पोषण करना दुराग्रह है और उसे तपश्चर्या करके दूर करना सत्याग्रह है। सत्यका आग्रह ही धर्म है और रूढ़ी द्वारा माने हुए प्रत्येक दोषको पकड़ रखने का आग्रह अधर्म है । "असहकार शुद्धिशास्त्र है और अपनी विशुद्धि किये बिना उसका होना अशक्य Jain Education International [ भाग १५ है । जबतक हम अपने ही एक अंगको अस्पृश्य मानते हैं, तबतक स्वयं हिन्दू और मुसलमान जो श्राज अस्पृश्य बन रहे हैं, अस्पृश्य ही रहेंगे ।" ET 'वैष्णव और अन्त्यज' शीर्षक लेख में ( नवजीवन भाग २ अंक १५) में लिखा है:-- " वल्लभ सम्प्रदाय के एक आचार्यने मुझसे कहा कि शास्त्र निर्णय में बुद्धिको कोई स्थान नहीं है । मैं इससे घबरा गया। क्योंकि मैं तो उसे शास्त्र नहीं मानता, जो हृदयमें खटके और जिसे बुद्धि न समझ सके । और मेरे खयालमें जिसे धर्मका श्राचरण करना है, उसे यह सिद्धान्त श्रवश्य स्वीकार करना पड़ेगा । ऐसा किये बिना हम श्रवश्य धर्मभ्रष्ट हो जायँगे । गीताका मैंने यह भी अर्थ सुना है कि यदि अपने भाईबन्धुओंमें कोई दुष्ट हो, तो उसे भी इसे पशुबल से हटा देना चाहिए - हटाना यह धर्म है । रामने रावणको मारा, अतरव हम जिसे रावण समझते हो, उसका संहार करना क्या हमारा धर्म होगा ? मनुस्मृति में मांसाहार करने की विधि है, तो क्या इससे वैष्णव मांसाहार कर सकते हैं ? अनेक शास्त्री और संन्यासी तो रोगका निवारण करनेके लिए गोमांस भक्षण करने को भी बुरा नहीं समते हैं ! "अस्पृश्यताको पाप समझना यह पश्चिमी विचार है, ऐसा कहना पापको पुण्य मानने के बराबर है । श्रक्खा भगतने पश्चिमी शिक्षा नहीं पाई थी, परन्तु उसने भी छूतछात को बुरा बतलाया है । अपने दोष दूर करने के प्रयत्नको दूसरे धर्मोका अंग बतलाकर, उन दोषको छिपाना धर्मान्धता है और इससे धर्मकी श्रवनति होती है । "इस दलीलका तो मैं कुछ मतलब For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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