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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
|५५
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
E
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०११
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अनुसन्धान ५५
आद्य सम्पादकः डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क:
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
प्रकाशक: कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
प्रतिः २५०
मूल्य: Rs. 100-00
मुद्रकः
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
संशोधन एक जवाबदारीपूर्ण प्रक्रिया छे. ए देखादेखीथी ज आवडी जाय के कोईक चोपडी के लेखो वांची लेवामात्रथी आवडी जाय तेवी प्रवृत्ति नथी.
केटलाक लोको एवं मानीने चालता जोवा मळे छे के अमे जे छपावीए ते ज संशोधन गणाय. संशोधननी मान्य पद्धतिथी अनभिज्ञ, अने संशोधन माटेनी सूझबूझनो नितान्त अभाव धरावता लोको ज्यारे आ रीते वर्तता जोवा मळे त्यारे, मोटा भागे रमूज ज ऊपजती होय छे. आवा लोको एम ज माने छे के पहेलांना ग्रन्थकर्ताओए रचेली रचनामांथी भूल शोधी काढवी अने प्रतिलेखक (लहिया वगेरे)ना लेखनदोषो शोधी काढवा एज संशोधन गणाय. आवा लोको, आवी दृष्टि साथे ज, पोतानुं शोधकार्य करता होय छे, अने पोताने संशोधक गणावता रहे छे. वस्तुत: आस्थिति, अणसमज अने बेजवाबदारीनी निशानी गणाय.
अत्यारे केटलाक मुनिजनोमां बे प्रकारनी भ्रान्ति प्रवर्तती जोवा मळे छे : एक संशोधन अने सम्पादन ए तो साव सामान्य काम छे; ए तो अमने आवडे ज. बे, अमारा द्वारा थतुं कार्य संशोधन ज गणाय.
आ बन्ने मान्यताओ नरी भ्रमणा छे, अने आवी मान्यताओ, प्रकृतिदत्त जडता तथा दुराग्रहभर्या मानस सिवाय न सम्भवे, एटलुं तो सहेजे समजी शकाय तेम छे.
आ प्रकारनी भ्रमणाओमां जीवता मित्रो द्वारा थयेल संशोधनात्मक (!) कामोने जोवानो प्रसंग हमणां वारेवारे आवतो थयो छे. भूतकाळमां आ पानां पर संशोधकनां लक्षणो विशे जे थोडीक वातो थई छे, तेना परिप्रेक्ष्यमां आ संशोधनोने तथा संशोधकोने मूलवीए, तो हेरान थई जवुं पडे तेवी परिस्थिति छे.
कदाच पुनरुक्ति थती हशे तो ते करीने पण नोंधवं घटे के संशोधन ए कोई प्राचीन-अर्वाचीन सर्जक/लेखकनी भूल शोधवा-सुधारवाना मिशन साथे करवानी प्रवृत्ति नथी. संशोधन तो, पूर्वग्रह - आग्रह - जडता - संकुचित मनोवलणो इत्यादिथी पर बनेला चित्तथी, पोताना ज्ञान अने समजणमां वृद्धि थाय, अने साथे साथे,
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आडपेदाशरूपे, पूर्वसूरिओना कार्यमां के लेखनमां कोईकवार कशीक क्षति रही गई जणाय तो तेनुं शुद्धीकरण पण थई शके ए माटे थतुं, उमदा अने आवश्यक ज्ञानकार्य छे. आ रीते काम करनारो संशोधक, कोईनी पण क्षति, पोतानी तीक्ष्ण दृष्टि वडे शोधी काढे तो पण, तेना मनमां पोतानी क्षमता विषे अहंकार अने जेनी क्षति जडी होय तेना माटे तिरस्कार, कदी न सेवे. बल्के तेना हृदयमां कांईक नवं शोध्यानो-जड्यानो आनन्द होय अने पूर्वसूरिओ के अन्य विद्वज्जनो प्रत्ये समादरनो ज भाव होय. दरेक विद्वान पोतानी क्षमता (क्षयोपशम) मुजब काम करता होय छे; तेथी तेनी भूल काढीने तेनो उपहास करवो अने पोतानुं गौरव समजवू, ए तो प्राकृतजनोचित वर्तणूक गणाय.
एक कार्य परत्वे एक मुनिए नवें संशोधन रजू कयें. ते विचारयोग्य जरूर हतुं, परन्तु पूर्वापरनो विचार करतां तेमज डॉ. ढांकीसाहेब वगेरे मान्य जनो साथे विमर्श कर्या पछी ते ग्राह्य न जणायुं. तेमने तेमनी वात ग्राह्य न होवा जणावतां तेमणे जे अनादरपूर्ण अने अभिमान तेमज उद्धताईनुं प्रदर्शन करतो प्रत्याघात पाठव्यो, ते जोतां, ऊपर नोंधेली विचारणानुं वाजबीपणुं आपोआप समजाशे.
- शी.
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श्रद्धांजलि
“कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कारशिक्षणनिधि" संस्थाना स्थापना, वि.सं. २०४५ना श्रीहेमचन्द्राचार्यनी नवमी जन्मशताब्दीना वर्षे, प.पू. आचार्यश्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजनी प्रेरणाथी करवामां आवी हती. आ ट्रस्टना माध्यमथी थती अनेकविध श्रेष्ठ प्रवृत्तिओ, चन्द्रकप्रदान, परिसंवाद, ग्रन्थ-प्रकाशन इत्यादि, तेना प्रेरणास्त्रोत पण तेओश्रीज रह्या छे. तो 'अनुसन्धान' पत्रिकानुं प्रकाशन पण तेओश्रीनी प्रेरणा तथा आशीर्वादनुं ज फल छे.
आवा ज्ञानी तेमज ज्ञानोपासक आचार्य श्रीनुं स्वर्गगमन ताजेतरमां ज चैत्र वदि अमास मंगलवारने ता. ४ मे २०११ना दिने थयो छे. तेमना स्वर्गगमनथी जैन संघने तेमज आपणा सहुने न पूरी शकाय तेवी खोट पडी छे. आपणने हवे पछी आवा दृष्टिसम्पन्न आचार्य श्रीनुं मार्गदर्शन नहि मळे ए वात ऊंडा दुःख साथे स्वीकारवी रही.
अमारुं ट्रस्ट तेओ श्रीना चारित्रपरायण पवित्र आत्माने कृतज्ञभावे वन्दन करीने, तेओना पुनित आत्मा माटे शान्तिनी प्रार्थना करे छे.
लि.
ट्रस्टवती
पंकज सुधाकर शेठ अने अन्य
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अनुक्रमणिका अज्ञातकर्तृकं श्रीनन्दीश्वरस्तोत्रम् ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः १ श्री लावण्यविजयकृत श्रीअजितशान्ति स्तोत्रम् ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः ४ वाचक सकलचन्द्रगणिनिर्मितं श्रीपार्श्वनाथ-स्तवनम् ॥
___ सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः १० साधुश्रीपृथ्वीधरकारितजिनभुवनस्तवनम् ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः १५ श्रीकल्याणसागरसूरिविरचितं श्रीपार्श्वनाथसहस्रनामस्तोत्रम् ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः २३ उपाध्याय संवेगसुन्दरगणि-विरचिता शीलोदाहृतिकल्पवल्ली ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः ३६ कल्पसूत्र-टबार्थ-गत भोजनविच्छित्ति सं. मुनिपुण्यश्रमणविजय ५३ सिद्धार्थकृत भोजनविधि
सं.साध्वी समयप्रज्ञाश्री सुखडी (वर्द्धमान रसोई)
सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री ६८ केटलीक लघुरचनाओ
सं. विजयशीलचन्द्रसूरिः ७१ ट्रॅक नोंध : (१) उपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी गुरु-शिष्यपरम्परा
मुनि धुरन्धरविजय ७६ (२) काव्यानुशासननो स्वाध्याय करतां...
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय । सन्मतितर्क : गाथा १.४१ना तात्पर्य विशे विचारणा
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ८३ भारतीय हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो : तिहासिक परिप्रेक्ष्यमां विवेचनात्मक अभ्यास
मणिभाई प्रजापति ११७ नवां प्रकाशनो
१४४ विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र १४५
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मई २०११
अज्ञातकर्तृकं श्रीनन्दीश्वरस्तोत्रम् ॥
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शी.
जैन भूगोलशास्त्र अनुसार आ पृथ्वी असंख्य द्वीप अने समुद्रोथी व्याप्त छे. तेमां आठमो द्वीप ते नन्दीश्वरद्वीप. एक द्वीप, तेने फरतो एक समुद्र, ते पछी एक द्वीप, वळी एक समुद्र, आ क्रमे आ आठमो द्वीप थाय छे. ते द्वीपमा ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख अने ३२ रतिकर नामना पर्वतो छे. १६ वावो छे.
ए बावने पर्वतो ऊपर एकेक जिनचैत्य होय छे, अने तेमां सपरिकर एवी शाश्वती जिन-प्रतिमाओ विराजती होय छे.
आ सर्व बाबतोनुं ढूंकुं पण शास्त्रोक्त वर्णन आ स्तोत्रमा थयुं छे.
नन्दीश्वर द्वीपनां आ बावन जिनालयोनी प्रतिकृतिरूपे, जैनो द्वारा, अनेक गामो के तीर्थोमां, बावन जिनालय-मन्दिरो रचायां छे, अने आजे पण रचातां होय छे. पालीताणा-शत्रुजय, तारङ्गा तथा अमदावाद जेवां स्थळोमां तथा राजस्थानमां पण उक्त रचनाने तादृश करावती नानी रचनाओ आजे पण जोवा मळे छे. तो तेना पाषाणपटो तेमज चित्रपटो पण घणे ठेकाणे उपलब्ध छे.
___ आ लघु स्तोत्रना कर्ता अज्ञात छे. तेनुं एक जूनू, आशरे १५मा सैकानं एक पार्नु विद्वान् मित्र मुनिराज श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थयुं छे अने तेना परथी तेनी नकल थई अत्रे प्रगट थाय छे.
श्रीनन्दीश्वरस्तोत्रम् ॥ वंदिय नंदियलोयं जिणविसरं विमलकेवलालोयं । नंदीसरचेइयसंथवणेणं थोसामि तं चेव ॥१॥ जोयणकोडिसय-तिसट्ठि, चुलसीइ-लक्ख वलयविक्खंभो । अट्ठमदीवो नंदीसरुत्ति सयविलस(सि)रसुरोहो ॥२॥ तब्बहुमज्झे चउरो दिसासु अंजणगिरी गवलवन्ना । जोयणसहस्स-चुलसीइमूसिया सहस्समुवगाढा ॥३॥
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अनुसन्धान-५५
भूमितलदससहस्सा चउणवइसया य सहस्समुवरितले । पिहुला अडवीसं सत्तिगं दसंसो य खयवुड्डी ॥४॥ पुव्वदिसि देवरमणो निच्चुज्जोओ दाहिणद (दि) साए । अवरदिसाय सयंप्पभ रमणिज्जो उत्तरे पासे ॥५॥ अंजणनगाउ चउदिसि जोअणलक्खम्मि लक्खविक्खंभा । पुक्खरिणीओ य सहस्सं पहानिम्मलच्छसच्छजला ॥६॥ नंदिसेणा अमोहा य गुत्तभा य सुदंसणा । नंदुत्तरा य नंदा [य] सुनंदा नंदिवर्द्धणा ॥७॥ भद्दा विसालभुमया बारसी पुंडरिगिणीया । विजया य वेजयंती जयंती अ अपराजिया ॥८॥ पुव्वाइक[य]नामा पुक्खरिणीणं तओ य पंचसए । गंतूण लक्खलीहा-वणसंदा (डा) ए पंचसयपिहुला ॥९॥ पुव्वेण असोगवणं दाहिणओ ताण सत्तवन्नवणं । चंपगवणमवरेणुत्तरेण सव्वाणुभूइवणं ॥१०॥ पल्लसमा जोयण दस सहस्समोगाढा ( ? ) । चउसट्टिसहस्समुच्चा फलिहमया पुक्खर (रि) णिमज्झे ॥११॥ सोलस दहिमुहगिरिणो अंजण - दहिमुहनगोवरितलेसु । जोयणसयदीह तहद्धवित्थडा दुगसयरिमुच्चा ॥ १२॥ बहुविविहरूवरूवग-विचित्तवित्थिन्नभत्तिसयकलिया । पत्तेयं जिणभुवणा तोरणजुय मंगलाइजुया ॥ १३॥ देवासुरनागसुवन्ननामगा नामसमसुरारक्खा । दारा सोलद्धद्धुच्चपिहुपवेसा य चउरो सिं ॥१४॥ पय (इ) दारं कलसाई मुहमंडव - पिच्छमंडवक्खाडा । मणिपीढषू(थू)भपडिमा - चितरुज्झय पुक्खरिणिओ य ॥१५॥ अट्टुच्च सोलसावि य पिहुला मणिपीठिया जिणहरंतो । तदुयारिंग देवच्छंदा रयणमया सेहियपमाणा ॥१६॥ तत्थुसभवद्धमाणा चंदाणण वारिसेणनामानं । सासयजिणपडिमाणं पलियंकनिसन्नमट्ठयं ॥१७॥
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मई २०११
पइपडिमपुरो दो दो नागपडिम जक्खभूयकुंडधरा । दुहओ दो चमरधरा पिटे च्छत्तधरपडिमेगा ॥१८॥ तह घंटा चंदणघडा भिंगारयरिसियाइसु । पइट्ठाइ पुप्फाइणेग चंगेरि पडल छत्तासणाई तहा ॥१९॥ इय सुत्तवुत्तमाएसओ य दुपुक्खरणि अंतरे दो दो । रइगरगा बत्तीसमेसु पुव्वं च जिणभवणा ॥२०॥ वंदंत नमंत अभिथुणंत पूयंत इंतजंतेहिं ।। खयरसुरेहिं अरहिया पुन्नतिहिमहमहिंकरेहिं ॥२१॥ तह जोयणसहस्सुच्चा विक्खंभायामसमदसहस्सा । झल्लरिनिभा रइकरा रयणमया विदिसि दीवंतो ॥२२॥ तेसिं चउन्ह दिसासुं जोयणलक्खम्मि जंबुदीवसमा । अट्ठट्टरायहाणी सक्केसाणग्गमहिसीणं ॥२३॥ विमलमणिसालवलया ताणं मज्झे पुणो वि(?)जिणाययणा । जिणपडिमापुव्वमिवेह अणोवमा परम[रम]णिज्जा ॥२४॥ इय वीसं बावन्नं जिणे(ण)हरे गिरिसिरेसु संथुणिमो । इंदाणिरायहाणिसु बत्तीसं सोलस य वंदे ॥२५॥
_नन्दीश्वरस्तोत्रम् ॥ भद्रं भवतु श्रीसङ्घाय ॥
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अनुसन्धान-५५
श्री लावण्यविजयकृत श्रीअजितशान्ति स्तोत्रम् ॥
- शी.
अजितशान्ति स्तोत्र ए जैन संघर्नु अत्यन्त लोकप्रिय अने सर्वमान्य स्तोत्रकाव्य छे. जैनोना २४ पैकी बीजा अजितनाथ तथा १६मा शान्तिथा-ए बे तीर्थङ्करोनी, प्राकृत भाषामां अने विविध गेय छन्दोमां, ४० गाथाओ आ स्तोत्रमा छे.
आ स्तोत्रनी अनुकृतिरूपे विविध कविवरोए तेवा ज छन्दोमां तेवा ज स्तोत्रकाव्योनी रचना करी छे. तेमांनुं एक अहीं प्रगट थाय छे. मूळ काव्यना कवित्व अने सर्गशक्तिनी बराबरी कदाच न थती होय, तो पण तेना तेज छन्दोमां जे काव्यसर्जन थयुं छे, ते आपणा जेवा माटे तो कल्पनातीत ज छे.
स्तोत्रनो विषय ते ज बे तीर्थङ्करोनुं गुण-वर्णन छे. कर्ताए स्पष्ट रीते पोतानुं नाम न उल्लेख्युं होवा छतां, ४०मी गाथामां चारेय चरणमां जोवा मळतो 'लावण्ण' शब्द कर्ताना नामर्नु ज सूचन करे छे तेम मान्युं छे. तेमना गुरु श्रीमेरुविजयजी छे तेवू प्रथम अने ३९मी-बे गाथाओ थकी स्पष्ट छे. कर्तानो समय १८मो शतक होवानो सम्भव छे. विशेष विगत मळी शकी नथी.
आ स्तोत्रनी २ पानांनी प्रतनी नकल मुनिश्री धुरन्धरविजयजी तरफथी प्राप्त छे, तेना आधारे आ सम्पादन थयेल छे. एकाद जग्याए लखाण खण्डित छे, बाकी शुद्धप्राय लखावट छे, जे जोतां कर्तानो स्वहस्त होवानी शक्यता छे.
श्रीअजितशान्तिस्तोत्रम् ॥ मेरुविजयविबुहाणं विबुहाणं जणिअवंछिअसुहाणं । पयजुअलं नमिऊणं थुणामि सिरिअजिअ-संतीणं ॥१॥ गाहा ॥ विणया णमिरणरिंदे गुणगणरयणाण रोहणगिरिंदे । जय जयजणणसुरिंदे णमामि ते णं जिणवरिंदे ॥२॥ गाहा ॥
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मई २०११
सिलोगपुण्णलोयाणं ताणं समवलोअणं ।
ताणं निम्मललोआणं कयनिम्मललोअणं ॥३॥ सिलोगो ॥
अरयमयप्पयारणे मह विबुहप्पडिबोहकारणे ।
कणयकयकयप्पयारणे पणिवइमो सइ जिणिदवार ||४|| मागहिआ ॥
मयणुम्मयणुग्गमणुम्महणे मयणासहणं
अजिअस्स य संतिजिणस्स अवस्स गुणग्गहणं ।
पकुणंति जणाण गणा विहिणा णिरया सहणं
सहलं इह होइ हु ताण सपा (या ? ) णसमुव्वहणं ॥५॥ आलिंगणयं ॥
अजिअं जिअमोहजालयं कलिमस्स जलणुव्व जालयं ।
पुण संतिजिणं गुणालयं सइ समरेमि जिआण पालयं ॥ ५ ॥ मागहिआ ॥
रमणिमणिमणणविरमणजणयमणुअसणं
निअभणिअवयणविहणिअअमिअमणहचरणं ।
समणमणिगयणविमुणिअणहमणिअणुसरणं
णमयमयपमयमजिअमहिलजणा जणमणहरणं ॥७॥ संगययं ॥
कारयकारयमारयवारयसारवई
सावयतावयआवयलावयभावरई ।
दिज्जउ निव्वुइरज्जमवज्जविवज्जणई संतिवई विअ सेवयदेवयदेववई ॥८॥ सोवाणयं ॥
सम्मत्तवित्तिरत्तकित्तिअवरुत्तिजुत्तिसहिउत्तरुत्तमसुत्तयं
५
अमिअकित्तिकंतं विहलिअलीलावईवरविलासहासणिवासभासिअं । पुण्णपण्णयं विण्णभिण्णदिण्णं देवदणुअमणुअणिअरमणरंजणं अजिअतित्थणाहमह य संतितित्थणाहं विणयपणओ थुणामि सवणसवणिज्जरमणिज्जणामगहणुब्भ (?) यजणियसयलसिवं ॥९॥ वेढो ॥ अजिअस्स य संतिजिणस्स य सप्पणयं नपुंसणयं । तुरिअं दुरिअं हरउ छज्जीवणिकाय अहिवइणो ॥१०॥ रासालुद्धो ॥
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अनुसन्धान-५५
सावत्थिअपत्थिवाण सत्थ --- त्थयमणिजिअसत्तु, पवित्तगुत्तसयवत्तपंतिप्पबोहणुत्तमसयवत्तमित्तदित्तयमणंतसत्तमजिअं । हत्थिणाउरणयरवइविस्ससेणणरवइपुत्तं संतितित्थयरं । पुण पणिवयामि पणयणयणिम्मिअ
अमिअविणयपरिअरिओ मुणिअणगणमणिसमाणमणणं संमाणिअमसमाणणिउणेहिं णिम्मयणिव्वुइ णिव्वुइसाहणयं ॥११॥ वेढो ॥ अजिअं विजयातणयं अभिभूअरमातणयं । संतिं पुणो वि जिणं मणम्मि समरेमो ॥१२॥ रासानंदिअं ॥ अजिअ-संतीहिं जिणेहिं भणिअवयणगहणमणा अत्थि जो मणुअगणो सो ण कयावि हु हवइ विमणा । जो पुण अनिउणो तव्वयणअणुसरणं ण पकुणेइ पमणा सो पावइ अइबहुअं बहुसो दुक्खं णिरयगमणा ॥१३॥ चित्तलेहा ॥ भत्तिजुत्तअत्तसत्तकित्तपत्तवित्तसत्तवित्तसरण उत्तिमुत्तिमुत्तिजुत्तिपंत्तिसुत्तभंत्तिरत्तसरण । अत्तपत्तगुत्तसत्तसत्तिदित्तदित्तिजुत्त अजिअ सव्वसव्वभव्वनव्वनव्वभव्वपव्व संति सव्वणाह पुण पइस सिवं मे ॥१४॥ सयलसुहाणं विहायगाणं तमतिमिरक्खयपायणायगाणं । अजिअ-संति तित्थनायगाणं अइपणयाण य देवणायगाणं ॥१५॥
कुसुमलया ॥ विहणउ जिणाण वयणं मह दुरिआणि अमिअवयणं ।। मह गव्वकयव्वयणं कुण य गणविरइआवयणं ॥१६॥ भुअगपरिरिंगिअं ।। तेअमईहिं भाविअरई जय अजिअवई वेअमईहिं भाविअरई जय अजिअवई । भेअमईहिं भाविअरई जय अजिअवई गेअमईहिं भाविअरई जय अजिअवई ॥१७॥ खिज्जिअयं ॥ तित्थवइणिसावई जय जयइवई संती विव सहगई हणिअरइवई ।
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मई २०११
संजइणिम्मिअरई विरइअविरई संति रसां रसावई अइवरपयई ॥१८॥ ललिअयं ॥ सुमुहप्पह सलिलरुहपहाविहसणसाहणप्पहिअं पणयाणयमणुअमणुअवइणिम्माविअअणप्पहिअं । चउतीसणिरतिसा(सया)इसयअइसयविसररमासहिअं अजिअं पुण संतिजिणं पणिवइमो सुर[र]मणीमहि ॥१९॥ किसलयमाला ॥ णयणजुअविजिअखंजणं मोहजोहकयभंजणं । माणवाण मणरंजणं विहिअसिद्धिअहिसंजणं ॥२०॥ सुमुहं ॥ अहयं अहयं अहयं अहयं सुहयं उहयं पि जिणाण णया ॥२१॥ विज्जुविलसिअं ॥ जुअलं ॥ सावया साविआय सुद्धभावभाविआ, अजिअ-संतिजिणचलणजुअलपूअणमणुदिणं पकुव्वंता पणया ण वडंति अवारभवकूवमज्झे ॥२२॥
वेढो ॥ जलरुहगेहा सोहणपेहा निहिलअगेहा मयकयवेहा । बहुविहमेहा हणिअसिणेहा बहुदुहलेहा विहिअसिणेहा । मयदवमेहा मोहणपेहा गुणिअणरेहा जणिअजणेहा । णयणरलेहा महिअअदेहा णिरुवमदेहा हयसंदेहा ॥२३॥ रयणमाला ॥ अजिअसंति परमिट्ठिणायगा हुंतु ते मह सुहस्स दायगा । वयणणिज्जिअरयणिणायगा दाणसीलतवभाववायगा ॥२४॥ खित्तयं ॥
जुअलं ॥ मंगलावलिलयाबलाहगा सव्वुदग्गउवसग्गसाहगा । संजमाण ण मणा विराहगा सग्गमुत्तिवरमग्गवाहगा ॥२५॥ खित्तयं ॥ माणवाण मयभेअविहाणा रोगसोगहिंसगअभिहाणा । मोहजोहमुहरोहपिहाणा सोहमाण वरनाणपहाणा ॥२६॥ दीवयं ॥ अमिअअमिअसमवाया विहणिअणिरयअवाया । जाण अमाणव-माणव-दाणवपणमिअपाया ।
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अनुसन्धान-५५
मुणिअणगणगयणंगणि गयणमणीसमकाया संतु अजिअसंति जिणवरराया विरइअसाया ॥२७॥ चित्तक्खरा ॥
त्रिभिः कुलकम् ॥ पाव पाव भाव आव आव वाव आव गाव नाव नाम जावए सव्वदेव सारसेव णेगहेव णेगदेव देवदेव पुहविदेव पावबहुललेवखवए। तिलोगलोगरोगसोगविप्पओगभोगजोगसोवओग जोग संगदायए अजिअसंतिणायए ॥२८॥ नाराओ ॥ निमिमो निरवाए, महिमासमवाए । मम यारयवाए अमिओवमवाए ॥२९॥ नंदिअयं ॥ युग्मम् ॥ समवीसवाया - - - - - आवणा सिअ परमेसरया णीसरिअअसाया ॥ सुविहिअवीसा वीसु असिसा, सारयससिसमभासिअआसा । अजिअमुणीसर-संतिमुणीसा, दितु सुहं मह पूरिअआसा ॥३०॥ भासुरयं ।। रोसदोसपोसमोसघोसकोसजोसजोसमोसतोसपोसया, असमसदेसदेसआसिअ सुविसेसलेसभासिअ सुवसेस सुसमदेसईसतोसया। अभंगमंगुलंगसागरंगजंगजम्मरंगआगरंगनंगवग्गुवंगसंगसारवंगचंगभंगभंगलिंगमंगअंतरंगरंगरंगरंजिआ, लसंतु वंतु वेत जंतु मंतु प(पं)तिसंति पसिअ अजिअ-संतितित्थवा अनंतसत्तिकित्तिजुत्तिराजिआ ॥३१॥ नाराओ ॥ तुम्ह नामेहिं मह अब्भहिअसंपया, तुम्ह नामेहिं मह आमनिवहा हया । तुम्ह नामेहिं चिंता महमभिहया, तुम्ह नामेहिं मह अंतहिअ आवया ॥३२॥
ललिअयं ॥ जुअलं ॥ अजिअसुसंती असिवुवसंती संचिअसंती अवहयसंती । सेवे संतीकयभयपंती गइहयदंती स(सु)रवरकंती ॥३३॥ वाणवासिआ ॥ जेहिं मोहनिवहा समाहया जे अ सिद्धिपहसत्थवाहया । संतु ते अजिअसंतिनाहया अम्ह कम्ममहणप्पसाहया ॥३४॥ अपरांतिका ॥ नाणाणं आवरणं आवरणं दंसणाणमिह बीअं । वेअणिअं अह तइअं तुरिअं तह होइ मोहणिअं ॥३५॥ गाहा ॥
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मई २०११
आउं पुण पंचमयं नामं कम्मम्मि कम्ममह छटुं । तह गुत्तं सत्तमयं विग्घं तह होइ अट्ठमयं ||३६|| गाहा || पण - नव-दु- अट्ठवीसा चउरो तह तिगहिअं सयं दो अ । पंच य इअ भेएहिं कमसो अडवन्नसयमेसि ||३७|| गाहा || एआणं कम्माणं पहावओ अजिअ - संतिजिणनाहा !! भमिओ भवम्मि संपइ तुम्हं सरणं पवन्नो हं ||३८|| गाहा || चतुर्भिः कलापकम् ॥
मेहाविहिमपहाणं विबुहाणं मेरुविजयअभिहाणं । संथुअमिअ सीसेणं जुअलं सिरिअजिअ - संतीणं ॥३९॥ एअं अयलावण्णं मंगलमालं सयाउलावण्णं । कुणउण्णयलावण्णं विहिअमहाणंदलावण्णं ॥४०॥
इतिश्रीअजितशान्तिस्तोत्र समाप्तम् ॥
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अनुसन्धान-५५
वाचक सकलचन्दगणिनिर्मितं श्रीपार्श्वनाथ-स्तवनम् ॥ (अजितशान्तिच्छन्दोरीत्या)
- शी.
उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रगणि ए १६मा-१७मा शतकना एक विलक्षण विद्वान्, कवि-सर्जक अने त्यागतपोमूर्ति साधु छे. तेमनी प्राकृत, संस्कृत अने गुजराती भाषानी अनेक रचनाओ उपलब्ध छे, प्रसिद्ध पण. 'अनुसन्धान'ना अंकोमां पण तेमनी विविध रचनाओ प्रकाशित थई छे. तेमनी एक नवतर अने विशिष्ट एवी काव्यरचना अत्रे प्रगट थाय छे.
जैनोमां व्यापकपणे गवाता अजित-शान्तिस्तोत्रनी रीतिए, परन्तु ३० ज गाथा (श्लोक) प्रमाण अने विचित्र छन्दोमां रचाएल आ स्तोत्रनो विषय श्रीपार्श्वनाथप्रभुनी स्तवना छे. नीवडेल कविने ज सुलभ पदावली, रचनाप्रौढि, प्रसाद-मधुर अने समास-प्रचुर छतां सरल शैली, आ बधुं प्रथम नजरेज सहृदयोने आकर्षे छे. सामान्यतः ‘अजितशान्ति'नी अनुकृति प्राकृतमां ज थती रही छे. अहीं कर्ताए संस्कृतमां रचवा- पसंद कर्यु छे. छन्दो सामान्यतः अजितशान्तिना ज लागे, परन्तु तेमां पण कवि-प्रतिभाना चमकारा जडे ज छे. दा.त. पांचमो श्लोक, तेमां बे छन्दोनो संयुक्त प्रयोग छे; उपजातिनो नवलो प्रकार ! तो १५मा तथा २१मा पद्योमां 'घटितगद्यविशेषक' एवा नामथी विलक्षण छन्द-प्रयोग कविए को छे. बे-एक ठेकाणे तूटेल पाठांशने बाद करतां रचना सम्पूर्ण छे. ३०मा पद्यमां कविए पोतानुं नाम तेमज पोताना गुरु 'विजयदानसूरि'नुं नाम पण दर्शाव्युं छे.
प्रान्ते पुष्पिका छे, तदनुसार सं. १८२४मां दानसौभाग्य नामना मुनिवरे आ स्तोत्रनी प्रत लखी छे. वर्षों पूर्वे आनी नकल करावी राखी हती, पण तेनुं मूळ पार्नु हवे उपलब्ध नथी, तेथी ते कया भण्डारनी प्रति होय ते नोंधवानुं शक्य नथी.
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मई २०११
सिद्धं हृदयनिरुद्धं बुद्धध्यानैर्लताभिरिव वृक्षम् । अतिशयमहिमाकक्षं वन्दे वामेयसुरवृक्षम् ॥१॥ आर्या ॥ जिनमिह नतसमयक्षं भवप्रतिपक्षं च सर्वगुणलक्षम् । केवलरमाकटाक्षं कुरु पक्षे दक्ष ! भवसमरे ||२|| आर्या ॥ सम्मतिसंयतिसन्ततिसन्नतिदुर्गतिहं, शोचनमोचन ! केवललोचन ! दर्शनदम् । त्वां हृदि शुद्धरसेन्द्रमिव प्रविधाय जिनं नागमलं प्रदहन्ति बुधा निजकर्ममलम् ॥३॥ सोपानकम् ॥
कल्याणाम्बुधरो महोदयकरो रोगार्त्तिगर्त्ताहरो, मोहोच्छेदकरो जरामरहरो विश्वाप्तकीर्त्तीश्वरः ।
भग्नानङ्गशरो हताहिपगरो विध्वस्तजन्मादरो,
ब्रह्माण्डैकदिवाकरो भवतु मे मित्रं प्रभो ! ते गुणः ||४|| काव्यम् ॥
सकलमुनिजनप्रमोदकं कमठदग्धहरिप्रतिबोधकम् ।
निखिलभवतमोविरोचनं नम जिनं जगतीत्रलोचनम् ॥५॥
मागधिका-द्रुतविलम्बितछन्दसी ॥
करुणाकरणादरणार्णवलोलतरङ्गतरं तरुणीरमणीशरणीकृतमन्मथमर्महरम् । अधरीकृतदेवनदीसुतरीशुचिगि (गी? ) विभवं
सदये हृदये ह्युदये तरणेर्नम पारगतम् ||६|| आलिङ्गनकम् ॥ विश्वेन्दीवरभाश्व (स्व) ते जिनपते ! त्रैलोक्यवाचस्पते !
शुद्धो (द्धा) चारवते प्रबुद्धमरुते सर्वत्र शोभावते ।
दुष्कर्माद्रिशते युगान्तमरुते निर्लेपतां कुर्वते,
ब्रह्मज्ञानवते नमो भगवते वामेय ! तुभ्यं यते ! ||७|| काव्यम् ॥ निचितदुरिततिमिरनिकररविविलसितं,
सकलसुकृतकुमुदविपिनविधुसमुदितम् । अरिहरिकरिसमरसमदरगहनदहनगतिं,
११
जिन ! तव गुण
॥८॥
भन्दकन्द ! कन्दनन्द ! पुण्यकुन्दवृन्दचन्द्र ! मन्दबलह !, दुष्कृतान्त ! निष्कृतान्त ! सत्कृतान्त ! विप्रशान्तजनन ! ।
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अनुसन्धान-५५
वान्तसर्वधातुजातविश्वजन्तुघातपात ! जिनप !, शान्त ! दान्त ! सिद्धिकान्त ! पूतनीलदेहकान्त ! भूनितान्तसुकृतशान्तिदस्त्वम्
॥९॥ नाराचकः ॥ जिनमखिलगुणाकरावतारं दलितसमस्तमदेन्द्रियार्थवारम् ।। प्रशमरसतरङ्गनेत्रतारं भजत भवाब्धिमग्नलोकतारम् ॥१०॥ कुसुमलता ॥ वज्री स्वर्गिषु मानवेषु च यथा चक्री च तेजस्विनां, मार्तण्डः कनकाचलो गिरिषु वा वृक्षेषु कल्पद्रुमः । गङ्गा सर्वनदीषु वा हिमरुचिस्तारासु मुख्यस्तथा, सद्ध्यानेषु तव स्वरूपसुलयो नेतो ! मया ध्यायते ॥११॥ काव्यम् ॥ सदरीबदरीचमरीभ्रमरीशबरीखचरीसुसुरीवनरीतिपुरीमधुरीकृतगीतगुणम् । अमरीकबरीचमरीकृतचीरसमीरगतं स(श)फरीलहरीनगरीमिव शीलय जीव ! जिनम् ॥१२॥ आलिङ्गनम् ॥ सुरनरसुखसम्पदामगारं विपुलमतिपतिरमोरुकण्ठहारम् ।। कमठहठकुष्टताकुठारं स्मर पुरुषोत्तममङ्गनाविकारम् ॥१३।। कुसुमलता ॥ हेमकुचकुम्भिनी विविधसुरमानिनी कुसुमवरदामिनी वदति गीतं, भुवनपतिकामिनी मरुजवरवादिनी नागसीमन्तिनी वहति तालम् । कलितकटिमेखला श्रवणवरकुण्डला नक्रमुक्ताफला सृजति नृत्यं, चन्द्रमण्डलमुखी हंसगतिगामिनी कापि लीलावती धरती तन्ती ॥१४॥ रचितकटिकिङ्किणी खचिततनुकञ्चुका तिलकमुखशोभिनी वाति तूरं, हारकेयूरके स्तनितपदनूप(पु)रा ललितसुललन्तिका काऽपि वीणाम् । अहिपपद्मावती ताण्डवं तन्वतीतीन ! ते किं मनो हरति नैव, रोचते तन्न किं मोदसे तेन नो वेति तर्कोऽस्ति नीराग आमे ॥१५॥
घटितगद्ययुग्मम् ॥ निविद्यागुरुविद्वते गुणवते निर्ग्रन्थताराजते. ध्येयानां महते सुखं विदधते सौभाग्यतः स्फूर्जते । शुक्लध्यानवते शमं च वहते योगस्य निद्रावते, निद्रायां स्फुरतीव योगिमनसो मे ते नमोऽर्हन् सते ॥१६॥ काव्यम् ॥
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मई २०११
वासवमौलिवृन्दविनते कृतसमविरते, वीतसमस्तदोषकुगत जिन विशदयते । धौतशरीर कुन्दसुरभे कलभगते, चेतसि मे हि मर्म रमते तव सुगुणतते ॥१७।।
क्षिज्जितम् ॥ सिद्ध बुद्ध रागरोषपापपोषमानदोषजनन भावयुद्धसुप्रसिद्धदुनिवारवीरमारविजय । सर्वऋद्धिसिद्धिवृद्धि शुद्धलब्धिदानवचसं निरुद्धमोहमल्ल वीतराग देहि मे हि ते स्वरूपकलनमीश ! हे ॥१८॥
नाराचकः ॥ बहुलमधुमासके वरचतुर्थीदिने प्राणतस्वर्गत(तो) योऽश्वसेनाधिपस्त्रीसुवामाङ्गजः शिवपुरीतिलकसमभुजगचिह्नः । पोषमासे जिनो बहुलदशमीदिने जननकल्याणको मरकताभो वरंविशाखाभतुलराशिनवकरतनुस्त्रिंशदब्दो गृहे भुक्तराज्यः ॥१९॥ पोषमासे व्रती बहुलतैकादशी त्रिशतनरवरयुतोऽष्टमतपस्वी कोपकटधनगृहे परमान्नपारणश्छद्मनाशीतिदिने विहारी । सुपिकमधुमासके सितचतुर्थीदिने धातकीद्रुमतले षष्ठतमपसा सर्ववेदी जिनो विश्वमङ्गलकरो वेदबीजं ददौ दशगणिभ्यः ॥२०॥ पार्श्वपद्मावतीसेविताशासनः सहस्रषोडशमुनिव्रातबोधी । सोऽष्टत्रिंशत्सहस्रायिकानायकः सप्तदशकाब्दपर्यायधारी । श्रावणाष्टमीदिने वर्षशतजीवितोपोषितो मासि सम्मेतशैले वरत्रयस्त्रिंशदनगारसमसिद्धिगो भुवनहरिचन्दनो वो मुदेऽस्तु ॥२१॥
घटितगद्यविशेषकम् ॥ नमत नमत जिनपण्डितं क्लेशनाशभवि मण्डितम । जन्मसागरतरण्डितं त्रिगुणरत्नसुकरण्डितम् ॥२२॥ सुमुखम् ॥ अरतिरतिविमुक्त बोधार्क निर्माय निर्लोभ निष्काम निर्मान निष्क्रोध निःशोक
निनिद्रता, सकलविगतपाप निःसङ्ग निष्कर्म निर्दम्भ नीराग निर्वेद नीरोग निर्ग्रन्थता
ते सदा । त्रिभुवनगतवस्तुजातावबोधाग्रलक्ष्मीलसद् ---स्त्वं च निर्दोष निर्मोह निष्प्रेमता,
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अनुसन्धान-५५
शमजलगतं मनो निर्गमायावकाशं न लातीति सञ्चित्य सञ्चित्यमेते गुणाब्धिप्रभो !
॥२३॥ दण्डकः ॥ सर्वसुरेन्द्रा विश्वनरेन्द्राः स्नापनचन्द्राश्चोज्झिततन्द्रा मङ्गलबुधगुरुशुक्रशनैश्चरराहुककेतुकखेटकवृन्दाः । सोमयमासुरवैश्रवणामरवारणलोकपकिन्नरभूताः पार्श्वजिनाधिपकीर्तनसंस्तवशान्तिकरा जगतां तु भवन्तु ॥२४॥ रत्नमाला ॥ अमतितिमिरवर्जितं, ज्ञानमास्तनसुमर्दितम् । भारतीवदनचुम्बितं, स्मर जिनं जगदर्चितम् ॥२५॥ सुमुखम् ॥ निर्दोषध्वनिगर्जते विलसते मुक्त्या तमो भास्वते सम्मोहं हरतेऽर्हते विकसते ते प्रातिहार्यश्रिया । सच्चित्ते भ्रमते पयोजसरते ध्यानाम्बुदोद्विद्युते श्रीवामेय ! नमो नमो मम विभो ! ज्ञानाम्बुधौ मज्जते ॥२६॥ हरिहरिचलचित्तगुप्तिगुप्तं, हरिहरिदङ्गमयूषराजमानम् । कमठहरिहरि हरिप्रियाद, हरिहरिणातपवारणत्रयाप्तम् ॥२७॥ हरिहरिपरिचर्ययोपयुक्तं, नरवरिहरिसुदीप्रलोकलेखम् । हरिहरिभयभीतिं च पाश्र्वं, हरिहरिचन्दनसोदरं नमामि ॥२८॥ काव्ययुग्मम् ।। नीतिनदीनसुमीनमहीनकिरीट-पीनविलीनसुगन्धविविधकुसुमार्चितपादपङ्कजम् । दीनदयालुमुनीनमहीनमनोहरचरितमणिं लीन मुने ! जिनमुपचर सुर इव
सुरतरुमङ्ग ॥२९॥ चित्राक्षरा ॥ इति मुदितसकलचन्द्र-स्तुतमिति पार्वं च जिनचन्द्र । गुरुविजयदानभद्रं शान्तिकरं सर्वदा लोके ॥३०॥
इति श्रीअजितशान्तिस्तवनच्छन्दोरीत्या श्रीपार्श्वनाथस्तवनं सम्पूर्णम् । विहितं श्रीसकलचन्द्रवाचकचरणैरिति मङ्गलम् । संवत् १८२४ना वर्षे
आषाढ शुदि १४ शुक्रे मुनिदानसौभाग्य लपीकृतम् ॥
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मई २०११
साधुश्रीपृथ्वीधरकारितजिनभुवनस्तवनम् ॥
- शी.
मध्ययुगमां भारतवर्षना, विशेषतः पश्चिम अने मध्य भारतमां थयेला, शूरवीर, दानवीर, सत्त्वशाली अने मुत्सद्दी जैन मन्त्रीओ थकी जैन संघ अने धर्म खूब ऊजळो छे. आ मन्त्रीओए जैनधर्म / संघनी सेवा तो करी ज, परन्तु तेथी अधिक तेमणे राष्ट्र, राज्य अने समग्र समाजनी दाखलारूप सेवा बजावी हती. तेओ धर्मे जैन होवाने कारणे तेमणे करेली आदर्श राष्ट्रसेवाने तथा राष्ट्रकक्षानां तेमनां कार्योने नजरंदाज न करी शकाय. आ मन्त्रीओमां गूर्जर राष्ट्रना मन्त्रीओ विमलशाह अने वस्तुपाल-तेजपाल जेम मुख्य छे, तेम मूळे गुजराती पण मण्डपदुर्ग-माण्डूना महामन्त्री साधु पृथ्वीधर एटले के पेथडशाहनुं नाम पण अग्रिम पंक्तिनुं गणी शकाय तेम छे.
आ मन्त्रीओ पोताना धर्ममां अडग अने परायण हता. धर्मना क्षेत्रे तेमणे जे कार्यो कर्यां ते कार्यो तेमज तेमनी उदारता अजोड ज रही छे. आम छतां तेमनी बे विशेषता नोंधपात्र छ : १. तेमणे पोतानां धर्मकार्योमां राज्यनी तिजोरीनो कदापि लेश पण उपयोग नथी कर्यो; जे पण खर्च धर्म माटे कर्यु ते बधुं, पोतानी हकनी, नीति अने न्यायथी तेमज कायदा पूरुं पालन करीने कमायेली सम्पत्तिमांथी ज कर्यु. २. राज्यना वहीवटमां, युद्ध आदि कृत्योमां तेमज समग्र प्रजाने लागु पडती तमाम बाबतोमां, तेमणे पोताना धर्मने के धार्मिक मान्यताओ के लागणीने कदापि आडे आववा नथी दीधी.
पेथडशाह तेमनी राज्यभक्ति, राज्य तथा राजा प्रत्येनी वफादारी तथा मुत्सद्दीवट माटे पंकायेला मन्त्री हता. न्याययुक्त राज्यवहीवट अने शत्रुओने बुद्धिबलथी वश के नाबूद करवानी कुनेहने कारणे तेओ राजा-प्रजाने प्रिय हता. तो ब्रह्मचर्यना विशद पालनथी ओपता सदाचार तेमज अजोड जिनभक्ति, संघर्नु नेतृत्व, दान तेमज उदारता इत्यादिने कारणे तेओ प्रखर धार्मिक जन तरीके पण पंकाया हता.
पेथडशाहना काळमां अनेक स्थानोमां जैनो तथा ब्राह्मणो वच्चे वैमनस्य
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अनुसन्धान-५५
प्रवर्ततुं होय तेवू अनुमान थाय छे. आ कारणे घणां क्षेत्रोमां जैनोनो वसवाट होवा छतां जैन मन्दिरनुं निर्माण शक्य नहोतुं बनतुं. पेथडशाहे पोतानी उदारताथी व्यापक समाजने अनुकूळ कर्यो, अने हकारात्मक मुत्सद्दीवटथी राज्योना राजाओ तथा अमात्योने जीती लीधा. आना कारणे प्रतिकूल क्षेत्रोमां पण तेमने जैन देरासरना निर्माणनी अनुमति मळी अने तेमणे विविध स्थळोमां मन्दिरो बंधावी त्यां त्यांना जैनोने आश्वस्त पण कर्या, अने बे धर्मोना पारस्परिक विसंवाद-कोमवादने ठारी पण दीधो.
आवा आ पेथड मन्त्रीए केटलां देरासरो अने ते क्या क्यां बंधायेलां, तेनी ऐतिहासिक नोंध आपतुं आ स्तोत्र अत्रे प्रगट थई रह्यं छे, जे वांचवाथी पेथडशाहनी अद्भुत क्षमतानो परिचय लाध्या विना नहि रहे. स्तोत्रना कर्ता अज्ञात छे. मित्र मुनिवर श्रीधुरन्धरविजयजीए विहार दरम्यान क्यांकथी प्राप्त पानांनी नकल मोकलेली, ते परथी आ सम्पादन करेल छे. ते पार्नु १५मा सैकानु होय तेवू अनुमान छे. पेथडशाहनो समय १४मो शतक छे. 'सुकृत सागर' नामे तेमनुं जीवन-चरित्र (संस्कृत) प्रसिद्ध छे.
- स्तवनना कर्ताए, योग्य रीते ज पेथडशाहने, सम्प्रति राजा, कुमारपाळ राजा अने वस्तुपालमन्त्रीना वारसदार के अनुगामी तरीके वर्णव्या छे. (श्लोक ४) प्रथम पांच श्लोकोमां कर्ताए पेथडशाहनां धर्मकृत्योर्नु वर्णन करतां जे महत्त्वनी वातो नोंधी छे ते आ प्रमाणे छे :
१. पेथडनुं खरं नाम साधु पृथ्वीधर छे, (साधु → शाह, पृथ्वीधर → पेथड). २. तेना राजवीनुं नाम जयसिंह राजा छे. ३. तेणे अनेक पौषधशालाओ (जैन उपाश्रयो) निर्मावी हती. ४. पार्श्वनाथनी ते पूजा-उपासना करतो. ५. त्रिकाल जिनपूजा अने बे टंक श्रावकोचित आवश्यक क्रिया ते करतो. ६. पर्वदिवसे पौषध करतो. ७. साधुनी भक्ति करतो, अने साधर्मिक बन्धुनी खूब वैयावच्च-सेवा करतो.
७. सौथी अगत्यनो तेमज ऐतिहासिक गणाय तेवो उल्लेख अहीं ए मळे छ के - 'विद्युन्माली' नामे देवे बनावेल, 'देवाधिदेव' एवा नामे प्रख्यात, भगवान् महावीर (ज्ञाततनूरुह)नी प्रतिमानी ते पूजा करतो हतो.
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मई २०११
सिन्धु-सौवीरदेशना राजा उदयन द्वारा पूजित 'जीवन्तस्वामी' तरीके निर्मित ते प्रतिमा 'वीतभयपत्तन' ना ध्वंस-समये जमीनमां दटाई हती. विक्रमना १२मा सैकामां, श्रीहेमचन्द्राचार्यना कहेवाथी, राजा कुमारपाले, ते प्रदेशमां उत्खनन करावीने ते प्रतिमा सम्प्राप्त करेली, अने ते तेने पाटण लई आव्यानो उल्लेख, ‘त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' ना दशमा पर्वमां उपलब्ध छे. परन्तु त्यार पछी ते प्रतिमानुं शुं थयुं तेनो संकेत मळतो नथी. प्रस्तुत स्तोत्रना बीजा पद्यमां
विषे स्पष्ट निर्देश सांपडे छे, ते ऊपरथी अनुमान थई शके के ते प्रतिमा कोई पण प्रकारे बची गई के बचावी लेवामां आवी हशे अने कालान्तरे ते मध्य प्रान्त-मालव देशमां पहोंची हशे, जे माण्डूना मन्त्री पेथडशाहना अखत्यारमां देखा दे छे. आ उल्लेख साचे ज इतिहासनो एक महत्त्वनो अंकोडो बनी रहे तेम छे.
८. छठ्ठा पद्यमां नोंधायेल संवत् १३२० वर्ष सुधीमां अथवा तो १३२० थी प्रारंभीने पेथडशाहे कया कया क्षेत्रमां कया कया जिनालयो कराव्यां, तेनी यादी अथवा तालिका आ प्रमाणे छे. स्तोत्रना ६ थी १५ एटलां पद्योमां थयेल वर्णनने अनुसारे आ तालिका गोठवी छे :
१. 'मण्डपगिरि (मण्डपदुर्ग)
आदिनाथ चैत्य श्रीनेमिनाथ-चैत्य
२. निम्बस्थूर - पर्वत
तेनी तलेटीमां पार्श्वनाथ चैत्य
पार्श्वनाथ-चैत्य
३. उज्जयिनी
४. विक्रमपुर
५.
मुकुटिका पुरी (महुडी ? ) ६. विन्धनपुर
१७
७. आशापुर
८. घोषकीपुर
९. अर्यापुर
नेमि-चैत्य
पार्श्वनाथ तथा आदिनाथ (बे चैत्य)
मल्लिनाथ-चैत्य
पार्श्व-चैत्य
आदिनाथ-चैत्य
शान्तिनाथ - चैत्य
१. स्तोत्रकार मण्डपगिरिने शत्रुंजयसमान अने निम्बस्थूरपर्वतने उज्जयन्त - समान वर्णवे छे. अर्थात् ते बे पर्वत ऊपर क्रमशः शत्रुंजयावतार अने उज्जयन्तावतार चैत्यो मन्त्रीए बनाव्यां.
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अनुसन्धान-५५
नेमिजिन-चैत्यो (बे)
१०. धारानगर । ११. वर्धनपुर ) १२,१३. चन्द्रकपुरी तथा जीरापुर १४, १५. जलपद्रपुर, डाहडपुर १६. हंसलपुर १७. मान्धातृमूल १८. धनमातृकापुर १९. मङ्गलपुर २०. चिक्खलपुर २१. जयसिंहपुर २२. सिंहानक २३. सलक्षणपुर २४. इन्द्रीपुर २५. ताल्हणपुर २६. हस्तिनापुर २७. करहेटक (करेडा) २८. नलपुर दुर्ग (के नलपुर अने दुर्ग ?) २९. विहारक, । ३०. लम्बकर्णीपुर । ३१. संखोड (संखेडा ?) ३२. चित्रकूटपर्वत (चित्तोडगढ) ३३. पर्णविहारपुर ३४. डण्डानक ३५. वंकी (वांकी?, वांकली?) ३६. नीलकपुर ३७. नागपुर (नागोर) ३८. मध्यकपुर ३९. दर्भावतिकापुर (डभोई) ४०. नागद्रह (नागदा)
बे आदि-चैत्यो बे पार्श्व-चैत्यो अरनाथ-चैत्य अजितनाथ-चैत्य आदि-चैत्य अभिनन्दन-चैत्य पार्श्व-चैत्य महावीर-चैत्य नेमि-चैत्य पार्श्व-चैत्य पार्श्व-चैत्य शान्ति-चैत्य अरनाथ-चैत्य पार्श्व-चैत्य नेमि-चैत्य वीर-चैत्यो(बे)
कुन्थुनाथ-चैत्य ऋषभ-चैत्य आदि-चैत्य पार्श्व-चैत्य आदि-चैत्य अजित-चैत्य आदि-चैत्य पार्श्व-चैत्य चन्द्रप्रभ-चैत्य नमि-चैत्य
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मई २०११
मल्लि-चैत्य पार्श्व-चैत्यो (बे)
मुनिसुव्रत-चैत्य, साथे वीरप्रभु. नेमि-चैत्यो (बे)
चन्द्रप्रभ-चैत्य पार्श्व-चैत्यो (चार)
नेमि-चैत्य
सर्वत्र वीर-चैत्य (६)
४१. धवलक्कनगर (धोळका) ४२. जीर्णदुर्ग (जूनागढ) ४३. सोमेश्वरपत्तन (सोमनाथ-प्रभास) ४४. शङ्खपुर ४५. सौवर्त्तक । ४६. वामनस्थली (वणथली-वंथली) ४७. नासिक्यपुर(नासिक) ४८,४९. सोपारकपुर, रुणनगर,) ५०,५१. घोरंगल, प्रतिष्ठान ) ५२. सेतुबन्ध ५३,५४,५५,५६,५७,५८. वठपद्र (वडोदरा)
नागलपुर, टक्कारवा (टंकारा?), जालन्धर (जलंधर?), देवपालपुर,
देवगिरि ५९. चारूप ६०. द्रोणत । ६१. रत्नपुर । ६२. अर्बुकपुर ६३. कोरण्टक (कोरटा) ६४. ढोरसमुद्र-प्रदेशे सरस्वती पत्तन ६५. शत्रुञ्जय(पर्वत) ६६. तारापुर ६७. वर्धमानपुर (वढवाण?) ६८,६९. वटपद्र, गोगपुर ७०. पिच्छन ७१. मुङ्कारपुर ७२. मान्धातृ ७३. विक्कन ७४. चोकलपुर
शान्ति-चैत्य नेमि-चैत्यो (२)
अजित-चैत्य मल्लि-चैत्य पार्श्व-चैत्य शान्ति-चैत्य आदि-चैत्य मुनिसुव्रत-चैत्य आदि-चैत्यो (बे) चन्द्रप्रभ-चैत्य जिनगृह
नेमि-चैत्य आदि-चैत्य
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२०
अनुसन्धान-५५
__ आ यादीमां घणां स्थानोनी साम्प्रत ओळख पामवी हजी बाकी रहे छे. परन्तु क्षेत्र-नामो जोतां पेथडशाहे केटकेटला प्रदेशो के राज्योमा पोतानो धर्मव्याप विकसाव्यो हशे ते जाणी शकाय छे.
तेमना बनावेलां जिनमन्दिरोनी ज फक्त आ यादी छे. ते सिवाय तेमणे पौषधशालाओ, सदाव्रतो, जैन सिवायनां देव-मन्दिरो, जलाशयो, धर्मशालाओ इत्यादिनां जे निर्माण करावेलां, तेनी यादी पण कांई नानी नथी. तेमनुं विस्तृत चरित्र वांचवाथी ज तेनो ख्याल आवी शके.
साधुश्रीपृथ्वीधरकारित जिनभुवनस्तवनम् ॥ श्रीपृथ्वीधरसाधुना सुविधिना दीनादिषूदानिना भक्तश्रीजयसिंहभूमिपतिना स्वौचित्यसत्यापिना । अर्हद्भक्तिपुषा गुरुक्रमजुषा मिथ्यामनीषामुषा सच्छीलादिपवित्रितात्मजनुषा प्रायः प्रणश्य हुषा ॥१॥ नैकाः पोषधशालिकाः सुविपुला निर्मापयित्रा सता मन्त्र-स्तोत्रविदीर्णलिङ्गविवृतश्रीपार्श्वपूजायुजा । विद्युन्मालिसुपर्वनिमितलसद्देवाधिदेवाह्वयख्यातज्ञाततनूरुहप्रतिकृतिस्फूर्जत्सपर्यासृजा ॥२॥ त्रिःकाले जिनराजपूजनविधि नित्यं द्विरावश्यकं साधौ धार्मिकमात्रकेऽपि महतीं भक्तिं विरक्तिं भवे । तन्वानेन सुपर्वपौषधवता साधर्मिकाणां सदा वैयावृत्त्यविधायिना विदधता वात्सल्यमुच्चैर्मुदा ॥३॥ श्रीमत्सम्प्रतिपार्थिवस्य चरितं श्रीमत्कुमारक्षमापालस्याऽथ च वस्तुपालसचिवाधीशस्य पुण्याम्बुधेः । स्मार(रं)स्मारमुदारसम्मदसुधासिन्धूमिषून्मज्जता श्रेयःकाननसेचनस्फुरदुरुप्रावृट्भवाम्भोमुचा ॥४॥ सम्यग्न्यायसमर्जितोर्जितधनैः सुस्थानसंस्थापितैर्ये ये यत्र गिरौ तथा पुरवरे ग्रामेऽथवा यत्र ये ।
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मई २०११
प्रासादा नयनप्रसादजनका निर्मापिताः शर्मदास्तेषु श्रीजिननायकानभिधया सार्द्ध स्तुवे श्रद्धया ॥५॥
पञ्चभिः कुलकम् ॥ श्रीमद्विक्रमतस्त्रयोदशशतेष्वब्देष्वतीतेष्वहो ! । विंशत्यभ्यधिकेषु मण्डपगिरौ शत्रुञ्जयभ्रातरि । श्रीमानादिजिनः शिवाङ्गजजिनः श्रीउज्जयन्तायिते निम्बस्थूरनगेऽथ तत्तलभुवि श्रीपार्श्वनाथः श्रिये ॥६॥ जीयादुज्जयिनीपुरे फणिशिराः श्रीविक्रमाख्ये पुरे श्रीमान्नेमिजिनो जिनौ मुकुटिकापुर्यां च पाश्र्वादिमौ । मल्लिः शल्यहरोऽस्तु विन्धनपुरे पार्श्वस्तथाऽऽशापुरे नाभेयो बत घोषकीपुरवरे शान्तिर्जिनोऽर्यापुरे ॥७॥ श्रीधारानगरेऽथ वर्द्धनपुरे श्रीनेमिनाथः पृथक् श्रीनाभेयजिनोऽथ चन्द्रकपुरीस्थाने सजीरापुरे श्रीपाश्र्वो जलपद्र-डाहडपुरस्थानद्वये सम्पदं देयाद् वोऽरजिनश्च हंसलपुरे मान्धातृमूलेऽजितः ॥८॥ आदीशो धनमातृकाभिधपुरे श्रीमङ्गलाद्ये पुरे तुर्यस्तीर्थकरोऽथ चिक्खलपुरे श्रीपार्श्वनाथः श्रिये । श्रीवीरो जयसिंहसंज्ञितपुरे नेमिस्तु सिंहानके श्रीवामेयजिनः सलक्षणपुरे पार्श्वस्तथेन्द्रीपुरे ॥९॥ शान्त्यै शान्तिजिनोऽस्तु ताल्हणपुरेऽरो हस्तिनाद्ये पुरे श्रीपार्श्वः करहेटके नलपुरे दुर्गे च नेमीश्वरः। श्रीवीरोऽथ विहारके स च पुनः श्रीलम्बकर्णीपुरे संखोडे किल कुन्थुनाथ ऋषभः श्रीचित्रकूटाचले ॥१०॥ आद्यः पर्णविहारनामनि पुरे पार्श्वश्च डण्डानके वंक्यामादिजिनोऽथ नीलकपुरे जीयाद् द्वितीयोः जिनः । आद्यो नागपुरेऽथ मध्यकपुरे श्रीअश्वसेनात्मजः । श्रीदर्भावतिकापुरेऽष्टमजिनो नागद्रहे श्रीनमिः ॥११॥
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अनुसन्धान-५५
श्रीमल्लिर्धवलक्कनामनगरे श्रीजीर्णदुर्गान्तरे श्रीसोमेश्वरपत्तने च फणभृल्लक्ष्मा जिनो नन्दतात् ॥ विंशः शङ्खपरे जिनः सचरमः सौवर्त्तके वामनस्थल्यां नेमिजिनः शशिप्रभजिनो नासिक्यनाम्न्यां पुरि ॥१२॥ श्रीसोपारपुरेऽथ रूणनगरे घोरंगलेऽथ प्रतिष्ठाने पार्श्वजिनः शिवात्मजजिनः श्रीसेतुबन्धे श्रिये । श्रीवीरो वठपद्र-नागलपुरे ष्टक्कारकायां तथा श्रीजालन्धर-देवपालपुरयोः श्रीदेवपूर्वे गिरौ ॥१३॥ चारूपे मृगलाञ्छनो जिनपतिर्नेमिः श्रये द्रोणते नेमी रत्नपुरेऽजितोऽर्बुकपुरे मल्लिश्च कोरण्टके पावॉ ढोरसमुद्रनीवृति सरस्वत्याह्वये पत्तने कोटाकोटिजिनेन्द्रमण्डपयुते शान्तिश्च शत्रुञ्जये ॥१४॥ श्रीतारापुर-वर्द्धमानपुरयोः श्रीनाभिभू-सुव्रतौ नाभेयो जिन(?) वटपद्र-गोगपुरयोः श्रीनाभि(?)श्चन्द्रप्रभः पिच्छने । मुकारेऽद्भुततोरणं जिनगृहं मान्धातरि त्रिक्षदां (?) नेमिविक्कननाम्नि चोलकपुरे श्रीनाभिभूर्भूतये ॥१५॥ इत्थं पृथ्वीधरेण प्रतिगिरि-नगर-ग्राम-सीमं जिनानामुच्चैश्चैत्येषु विष्वग् हिमगिरिशिखरैः स्पर्द्धमानेषु यानि । बिम्बानि स्थापितानि क्षितियुवतिशिरःशेखराण्येष वन्दे तान्यप्यन्यानि यानि त्रिदश-नरवरैः कारिताकारितानि ॥१६।।
श्रीपृथ्वीधरकारितजिनभुवनस्तवनम् ॥
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मई २०११
२३
श्रीकल्याणसागरसूरिविरचितं श्रीपार्श्वनाथसहस्रनामस्तोत्रम्॥
- शी.
१७मा शतकमां थयेला, अंचलगच्छीय आचार्य श्रीधर्ममूर्तिसूरिना पट्टधर, आ. श्रीकल्याणसागरसूरिजीनी आ रचना छे. १५० श्लोक-प्रमाण आ संस्कृत रचना पार्श्वनाथनां सहस्रनामो दर्शावती रचना छे. आपणे त्यां पोताना इष्टदेवदेवीने विषय बनावीने तेनां सहस्रनामोनां स्तोत्र बनाववानी प्रथा सैकाओजूनी छे. 'विष्णुसहस्रनाम' 'देवीसहस्रनाम', 'सूर्यसहस्रनाम' इत्यादि रचनाओ भक्ति अने श्रद्धाना भावो साथे रचाई छे तेमज तेनां पारायण पण थाय छे. जैन धर्ममां पण 'अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय' (हेमचन्द्राचार्य), 'जिनसहस्रनाम' (उपा. विनयविजय), "सिद्धसहस्रनाम' (उपा. यशोविजय), 'पद्मावतीसहस्रनाम' वगेरे रचनाओ छे ज. अन्य लोकोनी जेम जैनोमां आ नाम-स्तोत्रोर्नु, आजे तो, गानपारायण नथी थतुं; भूतकालमां पण तेवू थतुं होवाना कोई निर्देश मळता नथी. छतां प्रभुभक्ति-प्रेरित आ रचनाओ अवश्य रचाई छे.
आ शृङ्खलामां परोवी शकाय तेवी एक रचना ते प्रस्तुत 'पार्श्वनाथसहस्त्रनाम' जैन (२३मा) तीर्थङ्कर पार्श्वनाथने केन्द्रमा राखीने थयेली आ रचना मध्यम कक्षानी संस्कृत रचना छे. तेमां १००८ नामो आलेखेलां छे. प्रथम १५ श्लोकोनी प्रस्तावना छे, अने छेल्ले १४ श्लोकोमा उपसंहार. तेने बाद करतां, १० प्रकरणोमां सहस्रनामावलिनो समावेश थयो छे. दरेक प्रकरणना प्रथम शब्द-नाम परथी ते ते शतक-प्रकरण- नाम पाडवामां आव्युं छे. दा.त. 'ऐश्वर्यशतम्', 'ज्ञानशतम्' इत्यादि. अन्तिम शतकनुं नाम, उचित रीते ज, पोताना नाम परथी कर्ताए आप्युं छे : कल्याणशतम्.
प्रस्तावनाना तथा उपसंहारनां घणां पद्योमां श्रीहेमाचार्यकृत 'वीतरागस्तव'नां पद्योनी छाया प्रकट जोवा मळे छे, जे परथी कर्तानी कवित्वशक्तिनो अंदाज मळी रहे तेम छे.
स्तोत्रना अन्ते आपेल पुष्पिकाथी स्पष्ट छे के आ प्रति ते कर्ताए
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२४
अनुसन्धान-५५
पोताना हाथे लखेल आदर्श - प्रति छे. कर्ताए निर्देश्य छे ते प्रमाणे आ रचना तथा लेखन मार्त्तण्डपुरमां करेल छे. मार्तण्डपुर एटले सूर्यपुर - सूरत होय के पछी तेनाथी नजीकनुं ‘रांदेर' होय, तेवुं संभवे छे. कर्तानो सत्ताकाळ १६७०१७१८ वि.सं. छे.
आ स्तोत्रनी पांच पानांनी प्रतिनी जेरोक्स नकल मुनिश्री धुरन्धरविजयजी तरफथी मळी छे, अने तेना आधारे आ सम्पादन थयुं छे. प्रति, अनुमानतः, १७मा शतकनी लखायेली छे.
श्रीसरस्वत्यै नमः ॥
श्रीकल्याणसागरसूरिकृत पार्श्वनाथसहस्त्रनामस्तोत्रम् ॥
पार्श्वनाथो जिनः श्रीमान् स्याद्वादी पार्श्वनायकः । शिवतातिर्जनत्राता दद्यान्मे सौख्यमन्वहम् ॥१॥ नमस्यन्ति नराः सर्वे शीर्षेण भक्तिभासुराः । पापस्तोममपाकर्तुं तं पार्श्वं नौमि सर्वदम् ॥२॥ यथार्थवादिना येनोन्मूलिताः क्लेशपादपाः । तेनानुभूयते ऋद्धि-र्धीमता सूक्ष्मदर्शिना ॥३॥ शम्भवे पार्श्वनाथाय श्रीमते परमात्मने । नमः श्रीवर्द्धमानाय विश्वव्याधिहराय वै ॥४॥ दर्वीकरः शुभध्याना-द्धरणेन्द्रमवाप (न्द्रत्वमाप ?) सः । यस्मात् परमतत्त्वज्ञात् सुपार्वाल्लोकलोचनात् ॥५॥ प्रतिपूर्णं ध्रुवं ज्ञानं निरावरणमुत्तमम् । विद्यते यस्य पार्श्वस्य निखिलार्थावभासकम् ॥६॥ यस्मिन्नतीन्द्रिये सौख्य - मनन्तं वर्तते खलु । स श्रद्धेयः स चाराध्यो ध्येयः सैव निरन्तरम् ॥७॥
[सप्तविभक्तीनां श्लोकाः ।]
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मई २०११
तव स्तोत्रेण कुर्वे स्वां जिह्वां दोषशताकुलाम् । पूतामिदं भवारण्ये जन्तूनां जन्मनः फलम् ॥८॥ वरदाय नमस्तुभ्यं नमः क्षीणाष्टकर्मणे । सारदाय नमस्तुभ्यं नमोऽभीष्टार्थदायिने ॥९॥ शङ्कराय नमस्तुभ्यं नमो यथार्थदर्शिने । विपद्धत्रे नमस्तुभ्यं नमो विश्वार्त्तिहारिणे ॥१०॥ धर्ममूर्ते नमस्तुभ्यं जगदानन्ददायिने ।। जगद्भत्रे नमस्तेऽपि नमः सकलदर्शिने ॥११॥ सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं नमो बन्धुरतेजसे ।। श्रीकराय नमस्तुभ्य-मनन्तज्ञानिने नमः ॥१२॥ नाथ ! त्वच्चरणाम्भोजसेवारसिकतत्पराः । विलसन्ति श्रियं भव्याः सदोदया महीतले ॥१३॥ इन्द्रा अपि गुणान् वक्तुं पारं यस्य ययुर्नहि । असंख्येयाननल्पांश्च, क्षमस्तहि कथं नरः ? ॥१४॥ तथापि ज्ञानमुग्धोऽहं भक्तिप्रेरितमानसः । नाम्नामष्टसहस्रेण त्वां स्तुवे सौख्यदायकम् ॥१५॥
इति श्रीपार्श्वनाथनामावल्यां स्तुतिप्रस्तावना ॥ अर्हन् क्षमाधरः स्वामी क्षान्तिमान् शान्तिरक्षकः । अरिञ्जयः क्षमाधारः शुभंयुरचलस्थितिः ॥१॥ लाभकर्ता भयत्राता च्छद्मापेतो जिनोत्तमः । लक्ष्मणो निश्चलोऽजन्मा देवेन्द्रो देवसेवितः ॥२॥ धर्मनाथो मनोज्ञाङ्गो धर्मिष्टो धर्मदेशकः । धर्मराजः परातज्ञो धर्मज्ञो धर्मतीर्थकृत् ॥३॥ सद्धैर्याल्पितहंसाद्रि-स्तत्रभवान् नरोत्तमः । धार्मिको धर्मधौरेयो धृतिमान् धर्मनायकः ॥४॥ धर्मपालः क्षमासद्मा(द्म) धर्मसारथिरीश्वरः ।। धर्माध्यक्षो नराधीशो धर्मात्मा धर्मदायकः ॥५॥
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२६
अनुसन्धान-५५
धर्मवान् धर्मसेनानी-रचिन्त्यो धीरधीरजः । धर्मघोषः प्रकाशात्मा धर्मी धर्मप्ररूपकः ॥६।। बहुश्रुतो बहुबुद्धि-धर्मार्थी धर्मविज्जिनः । देवः सनातनोऽसङ्गो-ऽनल्पकान्तिर्मनोहरः ॥७॥ श्रीमान पापहरो नाथोऽनीश्वरोऽबन्धनोऽरजाः । अचिन्त्यात्माऽनघो वीरोऽपुनर्भवो भवोज्झितः ॥८॥ स्वयम्भूः शङ्करो भूष्णु-रनुत्तरो जिनोत्तमः ।। वृषभः सौख्यदोऽस्वप्नोऽनन्तज्ञानी नरार्चितः ॥९॥ आत्मज्ञो विश्वविद् भव्यो-ऽनन्तदर्शी जिनाधिपः । विश्वव्यापी जगत्पालो विक्रमी वीर्यवान् परः ॥१०॥ विश्वबन्धुरमेयात्मा विश्वेश्वरो जगत्पतिः । विश्वेनो विश्वपो विद्वान् विश्वनाथो विभुः प्रभुः ॥११॥
अर्हत् शतम् ॥ वीतरागः प्रशान्तारि-रजरो विश्वनायकः । विश्वाद्भुतो निःसपत्नो विकाशी विश्वविश्रुतः ॥१॥ विरक्तो विबुधैः सेव्यो वैरङ्गिको विरागवान् ।। प्रतीक्ष्यो विमलो धीरो विश्वेशो वीतमत्सरः ॥२॥ विकस्वरो जनश्रेष्ठो-ऽरिष्टतातिः शिवङ्करः । विश्वदृश्वा सदाभावी विश्वगो विशदाशयः ॥३॥ विशिष्टो विश्वविख्यातो विचक्षणो विशारदः । विपक्षवजितोऽकामो विश्वेड् विश्वैकवत्सलः ॥४॥ विजयी जनताबन्धु-विद्यादाता सदोदयः ।। शान्तिदः शास्त्रविच्छम्भुः शान्तो दान्तो जितेन्द्रियः ॥५॥ वर्द्धमानो गतातङ्को विनायकोज्झितोऽक्षरः । अलक्ष्योऽभीष्टदोऽकोपो-ऽनन्तजित् वदतां वरः ॥६॥ विमुक्तो विशदोऽमूर्तो विज्ञो विशाल अक्षयः । अमूर्तात्माऽव्ययो धीमान् तत्त्वज्ञो गतकल्मषः ॥७॥ शान्तात्मा शाश्वतो नित्यस्त्रिकालज्ञस्त्रिकालवित् । त्रैलोक्यपूजितोऽव्यक्तो व्यक्तवाक्यो विदां वरः ॥८॥
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मई २०११
२७
सर्वज्ञः सत्यवाक् सिद्धः सोममूर्तिः प्रकाशकृत् । सिद्धात्मा सर्वदेवेशो-ऽजय्योऽमेयर्द्धिरस्मरः ॥९॥ क्षमायुक्तः क्षमाचञ्चुः क्षमी साक्षी पुरातनः । परमात्मा परत्राता पुराणः परमद्युतिः ॥१०॥ पवित्रः परमानन्दः पूतवाक् परमेश्वरः । पूतोऽजेयः परंज्योति-रनीहो वरदोऽरहाः ॥११॥
वीतरागशतम् ॥२००॥ तीर्थङ्करस्ततश्लोक-स्तीर्थेशस्तीर्थमण्डनः । तत्त्वमूर्तिसङ्ख्येय-स्तीर्थकृत् तीर्थनायकः ॥१॥ वीतदम्भः प्रसन्नात्मा तारकस्तीर्थलोचनः । तीर्थेन्द्रस्त्यागवान् त्यागी तत्त्ववित् त्यक्तसंसृतिः ॥२॥ तमोहर्ता जितद्वेष-स्तीर्थाधीशो जगत्प्रियः ।। तीर्थपस्तीर्णसंसार-स्तापहृत् तारलोचनः ॥३॥ तत्त्वात्मा ज्ञानवित् श्रेष्ठो जगन्नाथो जगद्विभुः । जगज्जेत्रो जगत्कर्ता जगज्ज्येष्ठो जगद्गुरुः ॥४॥ जगद्धयेयो जगद्वन्द्यो ज्योतिमा(ष्मा?)न् जगतः पतिः ॥५॥ जितमोहो जितानङ्गो जितनिद्रो जितक्षयः । जितवैरो जितक्लेशो जगद्ग्रैवेयकः शिवः ॥६॥ जनपालो जितक्रोधो जनस्वामी जनेशिता । जगत्त्रयमनोहारी जगदानन्ददायकः ॥७॥ जितमानो जिताऽऽकल्पो जनेशो जगदग्रगः । जगबन्धुर्जगत्स्वामी जनेड् जगत्पितामहः ॥८॥ जिष्णुर्जयी जगद्रक्षो विश्वदर्शी जितामयः । जितलोभो जितस्नेहो जगच्चन्द्रो जगद्रविः ॥९॥ नृमनोजवसः शक्तो जिनेन्द्रो जनतारकः । अलङ्करिष्णुरद्वेष्यो जगत्रयविशेषकः ॥१०॥ जनरक्षाकरः कर्ता जगच्चूडामणिर्वरः । ज्यायान् जितयथाजातो जाड्यापहो जगत्प्रभुः ॥११॥
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२८
अनुसन्धान-५५
जन्तुसौख्यकरो जन्म-जरामरणवर्जितः । जन्तुसेव्यो जगद्व्याप्तो ज्वलत्तेजा अकल्कनः ॥१२॥ जितसर्वो जनाधार-स्तीर्थराट् तीर्थदेशकः । नरपूज्यो नरमान्यो जडानलघनाघनः ॥१३॥
तीर्थशतम् ॥३००॥ देवदेवः स्थिरः स्थास्नुः स्थेष्टः स्थेयो दयापरः । स्थावरो दानवान् दाता दयायुक्तो दयानिधिः ॥१॥ दमितारिर्दयाधामा दयालुर्दानतत्परः । स्थविष्टो जनताधारः स्थवीयान् देवतल्लजः ॥२॥ स्थेयान् सूक्ष्मविचारज्ञो दुःस्थहर्ता दयाचणः । दयागर्भो दयापूतो देवायॊ देवसत्तमः ॥३॥ दीप्तो दानप्रदो दिव्यो दुन्दुभिध्वनिरुत्तमः । दिव्यभाषापतिश्चारु-दमी देवमतल्लिकः ॥४॥ दान्तात्मा देवसेव्योऽपि दिव्यमूर्तिर्दयाध्वजः । दक्षो दयाकरः कम्रो दानाल्पितसुरद्रुमः ॥५॥ दुःखहरो दयाचञ्चु-दलितोत्कटकल्मुषः । दृढधर्मा दृढाचारो दृढव्रतो दमेश्वरः ॥६॥ दृढशीलो दृढपुण्यो दृ(द्र)ढीयान् दमितेन्द्रियः । दृढक्रियो दृढधैर्यो दाक्षिण्यो दृढसंयमः ॥७॥ देवप्रष्टो दयाश्रेष्ठो व्यतीताशेषबन्धनः । शरण्यो दानशौण्डीरो दारिद्यच्छेदक: सुधीः ॥८॥ दयाध्यक्षो दुराधर्षो धर्मदायकतत्परः । धन्यः पुण्यमयः कान्तो धर्माधिकरणी सहः ॥९॥ निःकलङ्को निराधारो निर्मलो निर्मलाशयः । निरामयो निरातङ्गो निर्जरो निर्जरार्चितः ॥१०॥ निराशंसो निराकांक्षो निर्विघ्नो भीतिवर्जितः । निरामो निर्ममः सौम्यो निरञ्जनो निरुत्तरः ॥११।। निर्ग्रन्थो निःक्रियः सत्यो निस्सङ्गो निर्भयोऽचलः । निर्विकल्पो निरस्तांहो निराबाधो निराश्रवः ॥१२॥
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मई २०११
देवशतम् ॥४००॥ आत्मभूः शम्भवो विष्णुः, केशवः स्थविरोऽच्युतः । परमेष्ठी विधिर्धाता श्रीपति गल(ला)ञ्छनः ॥१॥ शतधृतिः शतानन्दः श्रीवत्सोऽधोक्षजो हरिः । विश्वम्भरो हरिस्वामी सर्पशो विष्टर श्रवाः ॥२॥ सुरज्येष्ठश्चतुर्वक्त्रो गोविन्दः पुरुषोत्तमः । अष्टकर्णश्चतुरास्य-श्चतुर्भुजः स्वभूः कविः ॥३॥ सात्त्विकः कमनो वेधा-स्त्रिविक्रमो कुमोदकः । लक्ष्मीवान् श्रीधरः स्रष्टा लब्धवर्णः प्रजापतिः ॥४॥ ध्रुवः सूरिरविज्ञेयः कारुण्योऽमितशासनः । दोषज्ञः कुशलोऽभिज्ञः सुकृती मित्रवत्सलः ॥५॥ प्रवीणो निपुणो बुद्धो विदग्धः प्रतिभान्वितः । जनानन्दकरः श्रान्तः प्राज्ञो वैज्ञानिकः पटुः ॥६॥ धर्मचक्री कृती व्यक्तो हृदयालुर्वदावदः ।। वाचोयुक्तिपटुर्वक्ता वागीशः पूतशासनः ॥७॥ वेदिता परमः पूज्यः परब्रह्मप्रदेशकः । प्रशमात्मा परादित्यः प्रशान्तः प्रशमाकरः ॥८॥ धनीश्वरो यथाकामी स्फारधीनिरवग्रहः । स्वतन्त्रः स्फारशृङ्गारः पद्मशः स्फारभूषणः ॥९॥ स्फारनेत्रः सदातृप्तः स्फारमूर्तिः प्रियंवदः । आत्मदर्शी सदावन्द्यो बलिष्टो बोधिदायकः ॥१०॥ बुद्धामा भाग्यसंयुक्तो भयोज्झितो भवान्तकः । भूतनाथो भयातीतो बोधिदो भवपारगः ॥११॥
आत्मशतम् ॥५००॥ महादेवो महासाधु-महान् मुनीन्द्रसेवितः । महाकीर्तिर्महाशक्ति-महावीर्यो महायतिः ॥१॥ महाव्रतो महाराजो महामित्रो महामतिः । महेश्वरो महाभिक्षु-मुनीन्द्रो भाग्यभाक् शमी ॥२॥
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३०
अनुसन्धान-५५
महाधृतिर्महाकान्ति-महातपा महाप्रभुः । महागुणो महाश्लीलो महाजिनो महापतिः ॥३॥ महामहा महाश्लोको महाबुद्धिर्महोदयः ।। महानन्दो महाधीरो महानाथो महाबलः ॥४॥ महावीरो महाधर्मा महानेता महायशाः । महासूनुर्महास्वामी महेशः परमोदयः ॥५॥ महाक्षमो महाभाग्यो महोदर्को महाशयः । महाप्राज्ञो महाचेता महाप्रभो महेशिता ॥६।। महासत्त्वो महाशूरो महाशास्त्रो महर्द्धिकः । महाबोधिर्महाधीशो महामिश्रो महाक्रियः ॥७॥ महाबन्धुर्महायोगी महात्मा महसांपतिः । महालब्धिर्महापुण्यो महावाक्यो महाद्युतिः ॥८॥ महालक्ष्मीर्महाचारो महाज्योतिर्महाश्रुतः । महामना महामूर्ति-महेभ्यः सुन्दरो वशी ॥९॥ महाशीलो महाविद्यो महाप्तो हि महाविभुः । महाज्ञानो महाध्यानो महोद्यमो महोत्तमः ॥१०॥ महासौख्यो महाध्येयो महागतिर्महानरः । महातोषो महाधैर्यो महेन्द्रो महिमालयः ॥११॥ महासुहृन्महासख्यो महातनुर्महाधिभूः । योगात्मा योगवित् योगी शास्ता यमी यमान्तकृत् ॥१२॥
महाशतम् ॥६००॥ हर्षदः पुण्यदस्तुष्टः सन्तोषी सुमतिः पतिः । सहिष्णुः पुष्ट(ष्टि)दः पुष्टः सर्वंसहः सदाभवः ॥१॥ सर्वकारणिकः शिष्टो लग्नकः सारदोऽमलः । हतकर्मा हतव्याधि-र्हतात्तिर्हतदुर्गतिः ॥२॥ पुण्यवान् मित्रयुर्मेध्यः प्रतिभूधर्ममन्दिरः । यशस्वी सुभगः शुभ्रस्त्रिगुप्तो हतदुर्भगः ॥३॥ हृषीकेशोऽप्रतात्माऽनन्तदृष्टिरतीन्द्रियः । शिवतातिरचिन्त्यर्द्धि-रलेपो मोक्षदायकः ॥४॥
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मई २०११
हतदुःखो हतानङ्गो हतक्लेशकदम्बकः । संयमी सुखरोऽद्विष्टः परार्यो हतपातकः ॥५॥ शेमुखीशः सुप्रसन्नः क्षेमकरो दयालयः । स्तवना) विरागार्ह-स्तपस्वी हर्षसंयुतः ॥६॥ अचलात्माऽखिलज्योतिः-शान्तिमानरिमर्दनः । अरिघ्नोऽपुनरावृत्ति-ररिहर्ताऽरिभञ्जकः ॥७॥ अरोषणोऽप्रमेयात्मा-ऽध्यात्मगम्यो यतीश्वरः । अनाधारो यमोपेतः प्रभास्वरः स्वयंप्रभः ॥८॥ अचितो रतिमानाप्तो रमाकरो रमाप्रदः । अनीर्ष्यालुरशोकोऽग्योऽवद्यभिन्नविनश्वरः ॥९॥ अनिघ्नोऽकिञ्चनः स्तुत्यः सज्जनोपासितक्रमः । अव्याबाधः प्रभूतात्मा पारगतः स्तुतीश्वरः ॥१०॥ योगिनाथः सदामोदः सदाध्येयोऽभिवादकः । सदामिश्रः सदाहर्षः सदासौख्यः सदाशिवः ॥११॥
हर्षशतम् ॥७००॥ ज्ञानगर्भो गणश्रेष्ठो ज्ञानयुक्तो गुणाकरः । ज्ञानचञ्चुर्गतक्लेशो गुणवान् गुणसागरः ॥१॥ ज्ञानदो ज्ञानविख्यातो ज्ञानात्मा गूढगोचरः । ज्ञानसिद्धिकरो ज्ञानी ज्ञानज्ञो ज्ञाननायकः ॥२॥ ज्ञानाऽमित्रहरो गोप्ता गूढात्मा ज्ञानभूषितः । ज्ञानतत्त्वो गुणग्रामो गतशत्रुगंतातुरः ॥३॥ ज्ञानोत्तमो गताशङ्को गम्भीरो गुणमन्दिरः । ज्ञातज्ञेयो गदापेतो ज्ञानत्रितयसाधकः ॥४॥ ज्ञानाब्धिः गीर्पतिः स्वस्थो ज्ञानभाक् ज्ञानसर्वगः । ज्ञातगोत्रो गतशोच्यः सद्गुणरत्नरोहणः ॥५॥ ज्ञानोत्कृष्टो गतद्वेषो गरिष्ठगी: गिरां पतिः । गणाग्रणीर्गुणज्येष्ठो गरीयान् गुणमनोहरः ॥६॥ गुणज्ञो ज्ञातवृत्तान्तो गुरुर्ज्ञानप्रकाशकः ।
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३२
अनुसन्धान-५५
विश्वचञ्चर्गताकल्पो गरिष्ठो गुणपेटकः ॥७॥ गम्भीरधीर्गुणाधारो गुणखानिर्गुणालयः । ज्ञाताभिधो गताकांक्षो ज्ञानपतिर्गतस्पृहः ॥८॥ गुणी ज्ञातरहःकर्मा क्षेमी ज्ञानविचक्षणः ।। गणेशो ज्ञातसिद्धान्तो गतकष्टो गभीरवाक् ॥९॥ गतगत्यागतिर्गुण्यो गीर्वाणवाक् पुरोगमः । गीर्वाणेन्द्रो गतग्लास्नु-र्गतमोहो दरोज्झितः ॥१०॥ गीर्वाणपूजितो वन्द्योऽन(नि?)न्द्यो गीर्वाणसेवितः । स्वेदज्ञो गतसंसारो गीर्वाणराट् पुरःसरः ॥११॥ घातिकर्मविनिर्मुक्तो खेदहर्ता घनध्वनिः । घनयोगो घनज्ञानो घनदो घनरागहृत् ॥१२॥ उत्तमात्मा गताबाधो घनबोधसमन्वितः । घनधर्मा घनश्रेयो गीर्वाणेन्द्रशिरोमणिः ॥१३॥
ज्ञानशतम् ॥८००॥ ऐश्वर्यमण्डितः कृष्णो मुमुक्षुर्लोकनायकः । लोकेशः पुण्डरीकाक्षो लोकेड् लोकपुरन्दरः ॥१॥ लोकार्को लोकराट् सार्वो लोकेशो लोकवल्लभः । लोकज्ञो लोकमन्दारो लोकेन्द्रो लोककुञ्जरः ॥२॥ लोकार्यो लोकशौण्डीरो लोकविल्लोकसंस्तुतः । लोकेनो लोकधौरेयो लोकाग्यो लोकरक्षकः ॥३॥ लोकानन्दप्रदः स्थाणुः श्रमणो लोकपालकः । ऐश्वर्यशोभितो बभ्रुः श्रीकण्ठो लोकपूजितः ॥४॥ अमृतात्मोत्तमाध्यान ईशानो लोकसेवितः । ऐश्वर्यकारको लोक-विख्यातो लोकधारकः ॥५॥ मृत्युञ्जयो नरध्येयो लोकबन्धु रेशिता । लोकचन्द्रो नराधारो लोकचक्षुरनीश्वरः ॥६॥ लोकप्रेष्टो नरव्याप्तो लोकसिंहो नराधिभूः । लोकनागो नरख्यातो लोभभिल्लोकवत्सलः ॥७॥
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मई २०११
३३
वामदेवो नरज्यायान् लोकभर्ता नराग्रगः । लोकविभुर्नरदृश्वा लोकपो लोकभास्करः ॥८॥ लोकदर्शी नरज्येष्ठो लोकवन्द्यो नराधिपः । लोकशास्ता नरव्याधि-हर्ता लोकविभावकः ॥९॥ सुमेधा लोकबर्हिष्टः सत्याशीर्लोकवन्दितः । ऋद्धिकर्ता नरस्वामी ऋद्धिमान् लोकदेशकः ॥१०॥ प्रमाणं प्रणवः काम्य इ(ई)शितोत्तमसंवरः । इभ्य उत्तमसंवेग इन उत्तमपूरुषः ॥११॥ स्तुत्या(त्य)ह उत्तमासेव्योऽदभ्रतेजा अहीश्वरः । उत्तमाख्यः सुगुप्तात्मा मन्ता तज्ञः परिवृढः ॥१२॥ लोलुपघ्नो निरस्तैनाः सुव्रतो व्रतपालकः । अश्वसेनकुलाधारो नीलवर्णविराजितः ॥१३॥
ऐश्वर्यशतम् ॥९००॥ कल्याणभाग् मुनिश्रेष्ठ-श्चतुर्धा मर्त्यसेवितः । काम्यदः कर्मशत्रुघ्नः कल्याणात्मा कलाधरः ॥१॥ कर्मठः केवली कर्म-काष्टाग्निः करुणापरः । चक्षुष्यश्चतुरः कर्ममुक्तः कल्याणमन्दिरः ॥२॥ क्रियादक्ष क्रियानिष्ठः क्रियावान् कामितप्रदः । कृपाचणः कृपाचञ्चुः कीर्तिदः कपटोज्झितः ॥३॥ चन्द्रप्रभः छलोच्छेदी चन्द्रोपासितपत्कजः । क्रियापरः कृपागारः कृपालुः केशदुर्गतः ॥४॥ कारणं भद्रकूपारः, कलावित् कुमतान्तकृत् । मद्रपूर्णः कृतान्तज्ञः कृतकृत्यः कृपापरः ॥५॥ कृतज्ञः कमलादाता कृतान्तार्थप्ररूपकः । भद्रमूर्तिः कृपासिन्धुः कामघट: कृतक्रियः ॥६॥ कामहा शोचनातीतः कृतार्थः कमलाकरः । चारुमूर्तिश्चिदानन्द-श्चिन्तामणिश्चिरन्तनः ॥७॥
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३४
अनुसन्धान-५५
चिदानन्दमयश्चिन्ता-वर्जितो लोभर्जितः । कर्महा बन्धमोक्षज्ञः कृपावान् कान्तिकारकः ॥८॥ कजनेत्रो नरत्राता कृतपुण्यः कृतान्तवित् । लोकाग्रणीवि(वि)रोधघ्नः कीर्तिमान् खगसेवितः ॥९॥ अयाचितो महोत्साह-श्चिद्रूपश्चिन्मयो वृतिः । भद्रयुक्तः स्वयंबुद्धो-ऽनल्पबुद्धिर्दमेशिता ॥१०॥ विश्वकर्मा कलादक्षः कल्पवृक्षः कलानिधिः । लोभतिरस्कृतः सूक्ष्मो लोभहृत् कृतलक्षणः ॥११॥ लोकोत्तमो जनाधीशो लोकधाता कृपालयः । सूक्ष्मदर्येन्दुनीलाभो लोकावतंसकः क्षमः ॥१२॥ शिष्टेष्टोऽप्रतिभः शान्ति-श्छत्रत्रयविभूषितः । चामीकरासनारूढः श्रीशः कल्याणशासनः ॥१३॥ कर्मण्योऽत्रभवान् भद्रः शान्तिकरः प्रजाहितः । भव्यमानवकोटीरो मुक्तिजानिः श्रियांनिधिः ॥१४॥
कल्याणशतम् ॥१०००॥ छ । अमूनि तव नामानि पठन्ति ये नरोत्तमाः । भवेयुः सम्पदस्तेषां सिद्धयश्चापि मञ्जुलाः ॥१॥ स्वामिन् ! जिह्वासहस्रोऽपि, वक्तुं शक्तो न ते गुणान् । सहस्राक्षो न ते रूप-श्रियं निरीक्षितुं क्षमः ॥२॥ त्वच्चेतसि प्रवर्तेऽह-मित्युदन्तो हि दुर्लभः । मच्चित्ते विद्यसे त्वं चेत् देवेनान्येन पूर्यताम् ॥३॥ हर्षबाष्पजलैर्भव्य-मन्नेत्रे त्वन्मुखाश्रिते ।
अन्यप्रेक्षणसम्भूतं क्षालय(ये)तां मलं निजम् ॥४॥ त्वद्वक्त्रसङ्गिनी नेत्रे त्वत्परीष्टिकरौ करौ । त्वद्गुणग्राहके श्रोत्रे भूयास्तां मे मुदा सदा ॥५॥ ऋद्धित्वं हि प्रभुत्वं वा मनोवाञ्छितमन्वहम् । सौभाग्यत्वं नृपत्वं वै लभेरन् तव भक्तितः ॥६॥
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मई २०११
त्वमसि नाथ ! भवार्णवनाविक-स्त्वमसि सौख्यकदम्बककारकः । त्वमसि सिद्धिवधूस्तननायक-स्त्वमसि सप्तनयार्थविचक्षणः ॥७॥ त्वमसि दुःखनिवारणतत्पर-स्त्वमसि मुक्तिवशारतिहषितः । त्वमसि भव्यकुशेशयभास्कर-स्त्वमसि देवनराधिपसेवितः ॥८॥ त्वमसि मोहमतङ्गजकेशरी त्वमसि नाथ ! जगज्जनवत्सलः । त्वमसि दुःकृतमन्मथशङ्कर-स्त्वमसि कोपशिलोच्चयमुद्गरः ॥९॥ भृत्योऽस्मि तव दासोऽहं विनयी तेऽस्मि किङ्करः । नाथ ! त्वच्चरणाधारो लभे शं भवदाश्रितः ॥१०॥ जयन्तु ते श्रीगुरुधर्ममूर्तयो गणाधिराजा मुनिसङ्घपालकाः । अनेकवादीश्वरवादसिन्धुरा-भिमानपञ्चास्यनिभाः क्रियापराः ॥११॥ श्रीधर्ममूर्तिसूरीशाः सूरिश्रेणिवतंसकाः । कल्याणवपुषो नूनं चिरं नन्दन्तु सत्तमाः ॥१२॥ तदंहिकजरोलम्बः शिष्यः कल्याणसागरः । चकार पार्श्वनाथस्य नामावलीमभीष्टदाम् ॥१३॥ पुण्यरूपमिदं स्तोत्रं नित्यमध्येति भाक्तिकः । तस्य धाम्नि महालक्ष्मी-रेधते सौख्यदायका ॥१४॥
इति श्रीपार्श्वनाथनामान्यष्टोत्तरसहस्रमितानि समाप्तान्यजनिषत ॥
श्रीविधिपक्षगच्छाधिराज श्रीधर्ममूर्तिसूरीश्वरपत्कजभ्रमरायमानेन श्रीकल्याणसागरसूरिणा श्रीपार्श्वनाथनामानि श्रीमन्मार्तण्डपुरे कृतानि लिखितानि च ॥ निजकर्मक्षयार्थम् ॥ कौशीद्यं विहाय च सम्पूर्णानि
पाठितानीति ॥छ।
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३६
अनुसन्धान-५५
उपाध्याय संवेगसुन्दरगणि-विरचिता शीलोदातिकल्पवल्ली॥
- शी.
वडतपागच्छ एटले के तपागच्छनी वृद्धशाला - वडी पोशालना आचार्य जिनरत्नसूरि शिष्य वा. जयसुन्दरशिष्य वा. संवेगसुन्दरे रचेल आ लघु काव्यरचना, शील अर्थात् ब्रह्मचर्यनो महिमा वर्णवती संस्कृत पद्यात्मक रचना छे. अपवादरूप वसन्ततिलका तथा उपजातिने बाद करतां आखं काव्य शार्दूलविक्रीडित तथा स्रग्धरा छन्दोमां रचायेलुं छे.
आ वा. संवेगसुन्दरे सं. १५४८मां मानुष्यपुर (माणसा?)मां 'सारशीखामणरास' रच्यो हतो. सं. १५१९मां तेमणे चोरवाडपुरमा चिन्तामणि पार्श्वचैत्यनी प्रतिष्ठा करावी हती, तेवो उल्लेख 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां प्राप्त छे.
आ काव्यमां, तेना नामनां सूचवायुं छे तेम, शीलविषयक उदाहरणो वर्णववामां आव्यां छे. शील-पालनना उत्तम लाभोनुं वर्णन करीने तेना पालन माटे तेमणे प्रेरणा आपी छे. शीलविहोणा जीवननी निन्दा पण तेमणे भरपेट करी छे. प्रथमनां ४० पद्यो आ ज प्रतिपादनमा रोकायां छे. त्यार पछी ते विषयनां उदाहरणो प्रारम्भाय छे, तेमां नेमिनाथ, मल्लिनाथ, स्थूलभद्रमुनि, जम्बूस्वामी, वज्रस्वामी वगेरे महापुरुषोनां नामो लीधां पछी, सुनन्दा (वज्रस्वामीनी माता), नारदमुनि, सुदर्शन शेठ, मनोरमा (सुदर्शन शेठनां पत्नी), ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता, दमयन्ती, सुभद्रा, सुलसा, द्रौपदी, मदनरेखा, नर्मदासुन्दरी, मन्दोदरी, ऋषिदत्ता, मृगावती, अंजनासुन्दरी, चेल्लणा, गङ्गा, वंकचूल, शीलवती, अगडदत्त, कलावती, इत्यादि शीलसम्पन्न जनोनां नाम तथा व्रतदृढतानुं वर्णन करेल छे.
७०मा पद्यथी शील-विराधना करनारानां उदाहरण आरंभाय छे. तेमां - आर्द्रकुमार, रथनेमि, नन्दिषेण, कूलवालक, इन्द्र, द्वीपायन, इत्यादि नामो आलेख्यां छे. ते पछी पुनः शील-प्रशंसा अने कुशील-निन्दानो दोर चाले छे.
एकंदरे शीलनो महिमा गाती आ खूब मजानी, उपकारक रचना छे.
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मई २०११
३७
कर्तानो सदाचार प्रत्येनो गाढ पक्षपात अने दुराचरण प्रति तीव्र अरुचि, काव्यना पदे पदे प्रगट थाय छे. दुःशील जनोने पण शील-पालननी रुचि जागे तेवी बोधदायक-प्रेरक रचना.
काव्य क्यांक त्रुटित छे. पाटणना हेमचन्द्राचार्य भण्डारमाथी सत्तरेक वर्ष पूर्वे मेळवेल झेरोक्स-प्रति परथी आ सम्पादन कर्यु छे. ते प्रत अनुमानतः कर्ताना पोताना समयनी होय तेम जणाय छे. जोके निश्चित कहेवू जरा कठिन छे. आ कृतिनी बीजी प्रतिओ पण क्यांक होवी जोईए. ते मळे तो त्रुटित अंश पूरी शकाय.
उपाध्याय संवेगसुन्दरगणि-विरचिता
शीलोदाहृतिकल्पवल्ली ॥ स्तुत्वा वाचमनेकशास्त्रलहिरीगङ्गोपमा तीर्थकृद्वक्त्रावासनिवासिनी भगवतीं प्रोद्यत्प्रभावाञ्चिताम् । प्राप्य श्रीस्वगुरोः पदाम्बुजभवां स्फोर(?ट?)प्रपत्तिं परां शीलोदाहृतिकल्पवल्लिमतुलां कुर्वे सतां तुष्टये ॥१॥ जितो येनाऽरातिर्भुवनविदितः सम्बररिपुमहारागाहियँ व्यथयितुमलं न स्म भवति । शिशुत्वादारभ्य प्रचुरशमसङ्गैकरसिकः । स शैवेयो देवोऽवतु जिनपतिः प्रौढमहिमा ॥२॥ सुसंस्थानादानातिशयनिधयः सत्तमधियः सदा भव्या दिव्याऽमलगुणगणानामवधयः । सुरा यो(ये)दीर्घायुस्कलितवपुषः सत्सुखजुषो नराः शीलाल्लीलाललितगतयः स्युः सुगतयः ॥३॥ अथ वसन्ततिलकाच्छन्दसा द्वे वृत्तेतं नो जहाति विपुला कमला कदाचित् कान्तं कुलोत्थवनितेव विवेकभाजम् ।
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३८
अनुसन्धान-५५
तं स्वीकरोति सुगतिर्निपुणं यथाधीर्योऽजस्रमाश्रयति शीलगुणं प्रथिष्टम् ॥४॥ शीलं सुधाकरकराऽमलमादरेण ये पालयन्ति भविका रसिकाः सुधर्मे । तेषामशेषसुखसन्ततिरङ्गमुच्चैन श्रीरिव त्यजति सद्म विवेकभाजाम् ॥५॥ वासोऽस्वप्ननिकेतने नरजनुश्चाचारशुद्धं कुलं पद्मा सद्मनि नीरजन्मनि यथा केलिं विधत्ते त्वलम् । माधुर्यामृतजित्वरं च वचनं नीरोगमङ्गं च यत् । तत् शीलाऽमरशाखिनः फलमिदं जानन्तु भो भूस्पृशः ! ॥६।। पापध्वान्तनिराकृताविह रविर्यद् वै सुधादीधितिः कल्याणावलिकैरवाकरसमुल्लासप्रदाने च यत् । यद्वाऽनेकमनोऽभिवाञ्छितसुखापूर्ती सुरानोकुहस्तन्नित्यं परिपालनीयमकलं शीलं सतां मण्डनम् ॥७॥ यः शीलमङ्गीकुरुते स धन्यो निजं स एवात्र जनुः पुनीते । सौभाग्यभाग्याभ्युदयैविशिष्टां स एव लोके लभते प्रतिष्ठाम् ॥
इन्द्रवज्रेयम् ॥ कर्मानोकुहपंक्तिकृन्तनविधौ यत् तीक्ष्णपशूपमं यच्चानेकभवौघसञ्चिततमोध्वान्तांशुमन्मण्डलम् । यच्च प्रौढकषायतापशमनश्वेताश्वबिम्बं परं तत् शीलं विमलीकरोति नहि कं संपालितं यत्नतः ॥९॥ व्यावलात्तु(?)रगद्विपादिका(क)बलोन्मत्ता अपि क्षोणिपास्तस्मै मानमनिन्दिताय ददते शीलेष्टदेवो हि यः । प्रोत्सर्पद्विषवेगदर्पकलिताः प्रौढाः पुनः पन्नगास्तं नैवात्र तुदन्ति यस्य सततं शीलामृतं सन्निधौ ॥१०॥ देवः श्लाध्यतमः स एव सुगुरुर्धर्मः स एवाऽनघो वंशः सोऽमलतामितो व्रतमलं सद्भिः प्रशस्यं हि तत् ।
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मई २०११
तज्ज्ञानं मतिरत्र सा च विमला तद्दर्शनं तत्तपो यच्चाऽन्यद् वरशीलसंयुतमहो ! तद्धि प्रमाणं जने ॥११॥ वदनकुहुरनिर्यद्वह्नयोऽप्रत्नभीतिप्रदनयननिवेशा भीषणाकारनासाः । व्यथयितुमसमर्था एव तं यातुधाना यदुरसि शुचिशीलाख्यौषधी सुप्रधाना
॥१२॥
तावन्नुः प्रसरीसरि (री) ति सुयशः सच्चन्दनामोदवत् तावत् श्रीश्चरिकर्ति चात्र चरटेवाऽब्जेऽङ्गके खेलनम् । लोकाग्रे नरिनति तावदपि गी रङ्गे यथा नर्तकी यावत् शीलमिदं सुमित्रवदलं नो सन्निधिं संत्यजेत् ॥१३॥ शीलं स्वर्गधुनीसमुत्थजलवद् विश्वं पुनीतेऽमलं शीलं पापमपाकरोति निबिडं तापं यथा चन्दनम् । शीलं सर्वमलङ्करोति नियतं वर्ष्णेव सन्मण्डनं शीलं कामितमातनोति सुतरामर्घ्यं घुसद्रत्नवत् ॥१४॥ निर्मर्यादविवादसादनिधनाद्यानेकदुःखप्रदं वैरातङ्ककलङ्किताप्रभृतिकानर्थाय यत् केवलम् । तत् सन्त्यज्य कुशीलमुत्तमजनाः ! शीलं श्रयध्वं सदा यद्ध्यानादपि निर्वृतेः सुखमलं हस्त [स्थ ? ] वल्लभ्यते ॥१५॥ यत् (यः)शीलं न जहाति तद्धन इव प्राप्तं प्रयत्नाद्धनं शीलं पुष्यति यस्तु निर्वृतिकरं बीजी यथाऽपत्यकम् (?) । शीलं यः स्ववशीकरोति निजकं त्वध्यात्मविद्वन्मनः स स्तुत्यः सुधियां भवेद् यदि जगत्यत्राऽद्भुतं किं तदा ? ॥१६॥ यद् दु:पालमनुत्तराद् व्रतगणाद् यद्दानतो दुष्करं
यत्तूग्रात् तपसोऽधिकं यदपि च स्वर्णाचलादुन्नतम् । आदर्शप्रतिबिम्बितादपि हि यद् दुर्ग्राह्यमाकारत
स्तत् शीलं परिपालयेद्धि विरलः कश्चिद् भवेऽत्राङ्गवान् ॥१७॥ ये शीलं प्रविहाय सौख्यसदनं संसाररोगाऽगदं कृष्णव्यालकरालभोगविषमं वाञ्छन्ति भोगं भवे । मन्ये ते सुरपादपं प्रवितरन्निःशेषकामं परं हित्वा निन्द्यगराश्रयं हि कनकाभिख्यं भजन्ते द्रुमम् ॥१८॥
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अनुसन्धान-५५
ये शीले हिमवालुकाकुमुदिनी कन्दप्रभाजित्वरे लीनास्ते किमसारसंसृतिभवे सौख्ये रताः स्युः पुनः । गाङ्गे वारिणि हारिणि प्रतिदिनं ये मज्जनं कुर्वते ते किं कुत्सितकर्दमाकुलकुशे बध्नन्ति चेतोरतिम् ? ॥१९॥ ते दूरं लिहतेऽप्यशेय(?)विषमामाः शीलतोयऽन्वहं (?) प्रौद्वैरप्युपचारतन्त्रकुशलैः साध्यानवैद्यैरहो ! । शीलाच्चोत्कटशत्रवः समधिकं वैरानुबन्धोद्यता नश्यन्त्याशु तमोभरा इव रवेर्धर्मा इवाऽम्भोदतः ॥२०॥ क्षाराब्धेः क्षीरनीरं सकि(क?)लवनहुताशात् पुनस्तोयवर्षं कल्याणं पीतलोहाल्ललितगतिविलासं नितान्तं बकोटात् । पावित्र्यं पङ्कतोऽहेर्लपनकुहुरतः पुण्यपीयूषयूषं प्रेयः श्रेयः कुशीलादनवरतममन्दं समीहेत यो वै ॥२१॥ ये कुर्वन्ति सुराद्युपासनविधिं तेषां सुखं चैहिकं ये भूपावलिसेवनैककुशलास्ते शं लभन्ते नवा । ये रायं समुपार्जयन्ति च ततः सौख्यं न तेषां चिरं शीलादत्र परत्र चापि सुखिनः सर्वेऽङ्गिनः स्युः सदा ॥२२॥ तादृग् ना(नो)भावतंसैरविरलविलसद्रत्नरोचिविचित्रै! तादृक् कुण्डलैर्वा कनकसुघटितैर्हारिहारैर्न तादृक् । केयूराद्यैरशेषैरपि बहुरचितैर्मण्डनैर्नैव तादृक् शीलालङ्कारकेणात्र भवति भविनां यादृशी सा समन्तात् ॥२३।। ख्याता सा जडसङ्गिनी सुमनसां सेवालिनी सर्वतः सोऽप्येवामृतदीधितिर्निगदितो लोकैः कलङ्कीति वै । क्रूरैश्चन्दनभूरुहालिरपि साऽप्रत्नद्विजिलैर्वृता तत् किं वस्तु जगत्यनुत्तरमहो ! यत् शीलतुल्यं भवेत् ? ॥२४॥ नो तत्राऽऽमयसंचया न कुनयास्तिष्ठन्ति नैवाऽऽधयोनाऽपि ध्वान्तचयोपमान्यपयशोमुख्यानि दुःखान्यहो !! शीले देहिनमाश्रितेऽद्भुतसुखाधारे सुधाभेऽधिकं किं तार्थे वसति स्थितिं विदधते प्रोत्सर्पिदर्पाहयः ?॥२५॥
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मई २०११
दौर्गन्ध्यं नहि चन्दनेन सममंशौ(शो)स्तेजसा दुस्तमः सौजन्येन [च] दुर्जनत्वमपि नो वैश्य(ज्येन) मौढ्यं यथा । दैन्यं तूत्तमपुण्यजेन धरणीपालादिमानेन नो कौशील्यं कलुषेतरेण हि तथा शीलेन नो संमिलेत् ॥२६॥ वृत्तं नीरसमस्तवारि तु सरो भोज्यं निराज्यं पुनः निःपुण्यं जननं निरंहतिधनं वै निर्विचारं वचः । निर्नाथं सदनं निरक्षि वदनं निर्हेलि यद्वन्नभस्तद्वत् शीलविवजितं नहि विबाभात्यङ्गिनामङ्गकम् ॥२७॥ दौःशील्यान्न मतिः शुभेषु सुगतिर्नो नैव तत्त्वे रतिनँवाऽथाऽपरतिर्न चाऽपि विरतिर्लोल्यान्न तृष्णाक्षितिः । न श्लोकोन्नतिरुत्तरायतिरपि श्रेयो न सत्सन्ततिः किं कुत्राऽपि सुखं श्रुतं विषफलास्वादाद् बत प्राणिनाम् ? ॥२८॥ कपूरे हिमदीधितौ हलधरे हारे हरे सिन्धुरे सौरे चापि हये तुषारनिचय(ये) गौरीगुरौ शौक्तिके । गाने चाऽम्भसि चन्दने त्वुडुगणे कुन्दे च डिण्डीरके दीप्ति ह्येषु दधाति सन्ततमहो ! शीलस्य धर्तुर्यशः ॥२९॥ उग्रव्याघ्राकुरङ्गन्त्यतिविकटकरट्युत्करा वै तुरङ्गन्त्यौद्वत्यैकाग्रचिता निखिलखलजनाः सज्जनन्त्येव विष्वक् । अद्रीन्द्रा ग्रावखण्डन्त्यलघुजलधयो गोष्पदन्त्यग्नयोऽपि स्वैरं नीरन्ति शीलातिशयपरिणतेः प्राणभाजामजस्रम् ॥३०॥ ग्रावा लेखमणिः सुधाशनतरुः काष्टं पशुः कामधुक् सिन्धुश्चाऽपि जडात्मकः सरसिजं पङ्कोद्भवं श्रीश्चला । किट्ट धातुषु पुष्पजातिषु परिम्लानिर्विचाराऽसहं सर्वं वस्त्विति चैकमेव विशदं शीलं वयं मन्महे ॥३१॥ स स्तुत्यः स च माननीयवचनः सोऽनेकलब्ध्यास्पदं सोऽर्हत्शासनकज्जलध्वजसमः सोऽनिन्द्यविद्यानिधिः । सोऽगण्यामलसद्गुणैकजलधिः सोऽवाप्तधीशेवधिर्यः श्वेताम्बुजमध्यगां भगवती शीलाख्यलक्ष्मीं स्मरेत् ॥३२॥
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अनुसन्धान-५५
उद्यच्चण्डमरीचिमण्डलरुचिप्रोद्दण्डपिण्डाधरीकारैकक्षमसर्वविश्वविलसत्प्रौढप्रतापाञ्चितम् । यल्लोकेऽत्र सुमाहिनं चिरतरं ह्यासाद्यते सम्पदा साकं तत् खलु शीलकल्पतरुजं जानीत दिव्यं फलम् ॥३३॥ पाति प्रौढकषायवायुविचलन्नक्रेऽघकल्लोलके संसाराम्बुनिधौ पतज्जनभरान् यद् यानपात्रं यथा । यत् कैवल्यपुराऽध्वदर्शनविधौ सार्थोपमेयं च सत् तत् शीलं परिहृत्य को नु विभवी दुःशीलतामाश्रयेत् ?॥३४॥ ध्यायन्त्वादृतमानसाः सुमनसस्तं शीलमन्त्रं परं यस्मान्नश्यति दुष्टदुर्जनकृतक्षुद्रप्रयोगादिकम् । यस्मात् तानि भवन्ति यानि सुखमाशालीनि सौख्यानि वै सिद्ध्याख्या वनिता स्वयं च वशगा यस्मात् समृद्ध्या समम् ॥३५॥ यः शैलोपमसामयोनिजयनप्रख्यातिमाप्त: क्षितौ यः पञ्चाननदर्पपाटनपटुत्वेनाऽपि शोभामितः । यो वा वाजिगजादिसंकुलरणक्षोणीविजेताऽधिकं सोऽपीह व्रतराजिमुख्यमतुलं शीलं न धर्तुं प्रभुः ॥३६॥ श्रीसार्वागमशास्त्रसारकलनाकेलीगृहाः केऽप्यहो ! केचिदुर्दमवादिकुञ्जरकुलोन्माथैककण्ठीरवाः । छन्दोनाटककाव्यवित्तमजनोत्तंसास्तु केचिन्नरा ये शीलं हृदि धारयन्त्यनुदिनं ते सन्ति वै पञ्चषाः ॥३७॥ संख्यावत्संसदुर्वी तमनणुसुगुणावासमाशिश्रियेत त्वष्टारं पद्मिनीवद्दयितमिव सती कोकिलेवाम्रसालम् । हंसीवन्मानसं सन्मतिरिव विनयं श्रीरिवेन्द्रानुजं वै यः शीलं चिन्तितार्थप्रदमनुवदलं चिन्तयेदेकचित्तः ॥३८॥ वेत्ता सोऽत्राऽवसेयः स च विशदमतिः सोऽर्हतां पर्युपास्तेः कर्ता स प्राणिवग्रा(ई)द्यवनविधिपटुः सोऽमलध्यानधर्ता । उद्धर्ता वंशजानां स सकलशशभृज्ज्योतिराभप्रकीर्तिर्यः शीलावासमध्यात् क्षणमपि न बहिर्याति संत्यक्तलौल्यः ॥३९॥
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मई २०११
गर्जन्तस्तावदुच्चैर्विषयकरटिनः संस्थितिं कुर्वतां वै चित्तारामेऽभिरामेऽशमदमनिशितोद्दामदंष्ट्रोत्कटास्यं (स्यम् ?) । रागद्वेषादिकश्वापदततिविजयावाप्तकीया॑ह्वनादं तन्वन् श्रीशीलनामा मृगपतिरसमो नैति यावज्जिगीषुः ॥४०॥ सुन्दर्योऽपि सुधाभुजां हि यकया रूपश्रियाऽधः कृता राज्या सममुग्रसेनतनुजां यस्त्यक्तवांस्तामपि । अब्दं दानमदात्तु रैवतनगेऽलासीत्तपस्यां च यो धुर्यः शीलवतां स नेमिजिनपो वः श्रेयसे भूयसे ॥४१॥ दद्यात् कस्य मुदं न चेतसि परां सा धारिणीकुक्षिभूत्तिाऽर्हन्नियमस्थितिं रथपदान्नेमि दरीस्थं मुनिम् । दुर्ध्यानाम्बुधिनीरपूरनिपतन्तं प्रोद्दधाराऽऽशु वै स्वेरायुक्त्यभिधाननावमिव सत् शस्यां ददन्ती किल ॥४२॥ रक्षत्वत्र स वः शिवो नवतमः श्रीकुम्भभूपाङ्गभूमल्लियः कमनं समूलमवधीद् रोषास्त्ररिक्तोऽपि हि । यस्तु प्राग्भवमित्रषट्कमतनौ मज्जत्कुरागाम्बुधौ । पाति स्म प्रवरः सुशीलकलितानां विश्वभूमीस्पृशाम् ॥४३॥ अब्दद्वादशकं यथेच्छमनुभूतं येन वारस्त्रिया साकं - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -१ प्रोक्तो दुष्करकृत्त्विति स्वगुरुभिस्तं स्थूलभद्रं स्तुमः ॥४४।। दस्यूनां पञ्चशत्या प्रभव इति पुमान् प्राप यस्मात् प्रबोधं स्वर्णानां कोटिभिर्यो नवनवतिमिताभिर्जही चाऽष्ट बालाः । योऽलासीद् वाँजिपंक्षाशुगमितमनुजैः साकमर्हत्तपस्यां । स श्री जम्बुप्रभु! कथमिह लभते शीलदृष्टान्तभावम् ? ॥४५॥ मात्रा यस्तु सुनन्दया धनगिरेः क्रन्दन् ददे खिन्नया बाल्येऽप्यागमपारगोऽत्र समभूद् श्रीसिंहगिर्यादरात् । श्यामाभिः प्रतिघस्रमुत्तमसमृद्ध्या प्रार्थमानो निजं
शीलं नो विजहौ स वज्रगणभृद् भूयात् सतां सन्मुदे ॥४६॥ १. पादद्वयं लेखकदोषात् पतितम् । प्रत्यन्तरादुपलब्धव्यम् ।
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अनुसन्धान-५५
यत्कुक्षाववतीर्णवान् गुणनिधिः श्रीवज्रनामा विभुया भ्रागसम्मितेषु जिनपाद् वर्षेषु वीराभिधात् । कान्तभ्रातृसुतेष्वितेषु चरणं या स्वीचकार व्रतं स(सा)वो यच्छेनुद्गच्छस्य (? यच्छतु.... ) जयिनी श्रेयः सुनन्दा सती ॥४७॥ ख्यातो यः कलिकेलिमन्दिरमहो सर्वासुमद्ध्वंसकृद्
यश्चाऽत्युग्रतरोरुपाप्मनिचयासङ्गैकबद्धस्पृहः । कामासक्तजनप्रपक्षकरणे दक्षो मुनिर्नारदः
प्राप्नोत्यक्षरसम्पदं स यदि तत् शीलस्य लीलायितम् ॥४८॥ यो गाढं कपिलाख्यया त्वभयया संपीड्यमानो रहः शीलाद्वै निजकात् सुराद्रिवदहो नो चालितो वात्यया । क्रुद्धस्याऽपि कदर्थनान्न नृपतेः खेदं मनाक् चाऽऽप्तवांस्तं को वर्णयितुं सुदर्शनमिहेशः स्याच्च सद्दर्शनम् ॥४९॥ भर्तुर्यात्रिकचत्वारादिषु विगानं प्रोच्यमानं जनैः श्रुत्वाऽऽरक्षिक (क्षक) पीडनास्तु (तु) बहुधोत्सर्गं व्यधाद्वेश्मनि । यत्शीलप्रतिपालनेन विपदां नाशो बभूवाऽऽशु सा जीयादत्र मनोरमाह्ववनिता साध्वीजनैरानुता ॥५०॥ या श्रीनाभिजतीर्थनाथविलसद्वंशश्रियोऽलंकृतिर्या शीलेन निजेन चाऽपि धवलीचक्रेऽखिलं या बाल्येऽपि ललावशेषसुखदां जैनीं तपस्यां परां सा ब्राह्मी विदितोत्तमैर्गुणगणैः केनोपमेया भवेत् ? ॥५१॥ संप्राप्तामलकेवलाज्जिनपतेरादीश्वरात् संयमं
जगत् ।
लान्ती वै विनिवार्य दिग्जयकृते याते नृपे त्वार्षभौ । या शीलावननिष्ठधीश्चिरतरं तेपे तपो दुश्चरं स्वीचक्रे व्रतमागतेऽपि भवतात् सा सुन्दरी वो मुदे ॥५२॥ प्राज्याद् राज्यपदाच्च्युताऽतिगहनाद् या काननाद् रावणेनाऽऽनीताऽपि निजां पुरीं नहि मनाक् तत्याज शीलं स्वकम् । यस्या वह्निरपि ज्वलन् जलमिवाऽभूत् शीलसम्पर्कतो भर्त्रा साकमवाप सौख्यमपि सा सीतासती नन्दतात् ॥५३॥
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ध्यायन्त्यार्हतधर्ममात्महृदये या संचचाराऽवनौ दुःसञ्चारवनस्य विश्वविदितेन प्रोज्झिता स्वामिना । भुक्त्वा द्वादशवत्सरी तु विपदं शीलेन सौख्यं पुनः प्राप्सीत् सा दमयन्त्यशेष भुवनस्तुत्या सती नन्दतु ॥५४॥ सिक्त्वा चालनिकाजलेन यकया चम्पाभिधायाः पुरोद्वाराणामुदघाटि वै त्रिकमहो ! शीलानुभावात् स्वकात् । चक्रे श्रीजिनशासनोन्नतिरशेषेलास्पृशां साक्षिकं सा विश्वे जयतात् समग्रवनितामौलिः सुभद्रा सती ॥५५॥ देवः श्रीत्रैशलेयस्त्रिदशपतिमुखाऽस्वप्नकोटीभिरर्यो यस्याः शीलव्रतस्याऽधिकमनणुतरां वै चकार प्रशंसाम् । यां च श्रीधर्मलाभाशिषमपि सुखदां प्राहिणोत् किं न सा स्यान्नुत्या सर्वत्र साध्वीसदसि हि सुलसोपासिका सर्वकालम् ॥५६॥ पूर्वे जन्मनि या गृहीतचरणाऽप्यालोक्य भोगे रतान् पुंसः पञ्च निदानमेव कृतवत्याप्तुं सुखं तत् ततः । लेभे पञ्च धवांस्तु पाण्डुतनयानग्रेसरत्वं सतीनां तस्यै द्रुपदाधिराजतनयायै श्रेयसं स्तात् सदा ॥५७॥ या नाऽभूद् युगबाहुमग्रजहतं वीक्ष्याऽपि सुव्याकुला याऽत्याक्षीत् पुरमप्यहो सुखपदं शीलं स्वकं रक्षितुम् । या माता च नमेनूपस्य जगति ख्याता ललौ सद्वतं सा रेखा मदनेति पूर्वपदयुग् देयान्मुदं वोऽतुलाम् ॥५८॥ वप्तुर्भर्तुरगारतस्तु समभूद् भ्रष्टा ययौ दुर्वनं । पश्चाद् वारवधूगृहं पुनरकार्षीद् वैकलीं स्वां दशाम् । शीलं रक्षितुमाप्तवत्यपि सुखं भूयः सुधासोदरं सा श्रेयांसि तनोतु विश्वविदिता श्रीनर्मदासुन्दरी ॥५९।। नैतन्नैतदनुष्ठितं समुचितं कृत्यं त्वया सर्वथा। यत् श्रीमैथिलभूमिपालतनयां सीतामिहानीतवान् । दौःशील्याचरणात् सुखानि न भवन्तीति प्रियं याऽब्रवीत् सा ब्रह्मव्रतमौलिमण्डननिभा मन्दोदरी शं क्रियात् ॥६०॥
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अनुसन्धान-५५
प्रच्छन्नं सुलसाकृतात् कपटतो याऽऽप्तापि दुर्व्यापदं कृत्वा तापसरूपमप्यतितरां घोरे वनेऽस्थादहो !। स्वं शीलं हि जुगोप चाऽऽप बहुलं सौख्यं पुनः पेशलं सा भूयादृषिदत्तिका मुनिजनैर्नुत्या मुदे वः सती ॥६१॥ यस्या रूपं पटस्थं प्रचुरतरगुणं वीक्ष्य लाम्पट्यदोषाच्चण्डप्रद्योतभूपे प्रबलबलवृतेऽप्यागते प्रार्थनार्थम् । कान्ते जाते परासावपि निजतनयऽणै(यं वै?) ररक्षैव या स्वं शीलं धीसंप्रयोगाद् भवतु बहुमुदे सा मृगावत्यजस्रम् ॥६२॥ प्रच्छन्नं कटकात् समेत्य दयिते रन्त्वा पुनः प्रस्थितेऽभिज्ञानेऽपि च दर्शिते श्वसुरकोऽरण्ये मुमोचैव याम् । तातेनाऽऽपि हि नाऽऽदृता गिरिनिकुञ्जेऽसूत पुत्रं हि या सौख्यं चाऽऽप शुभाय सा भवतु वः सत्यञ्जनासुन्दरी ॥६३।। किं कुर्वन् स भविष्यतीति बहुले शीते स्वदेव्या वचः श्रुत्वा श्रेणिकराड् रुषाऽऽकुलमनाः पप्रच्छ वीरं जिनम् । साध्वी चेटकभूपभूरथ नवेति स्वाम्यपि प्रोचिवान् सत्येवेति हि यां सदाऽस्तु सुमुदे सा चिल्लणा सुव्रता ॥६४॥ स्वामिंस्त्वं मृगयारसं खलु विमुञ्चेति स्वकीयं वचोऽकुर्वाणे सति शान्तनौ नरपतौ याऽगात् पुनः स्वं पदम् । अस्थाद् विंशतिवत्सराणि च चतुर्युक्तान्यहो कानने शीलं पालयति स्म निर्मलतमं गङ्गा सुखायाऽस्तु सा ॥६५॥ बह्वन्यायरतोऽपि चौरगणमुख्योऽपि प्र[म]त्तोऽपि च क्षोणीनायककान्तया निधुवनार्थं यः समभ्यर्थितः । दत्तान् सद्गुरुणा विमृश्य नियमांश्चित्ते स्वशीलव्रताद् भ्रष्टो नैव बभूव सोऽत्र जयतु श्रीवङ्कचूलो गृही ॥६६॥ यां मोक्तुं पितृमन्दिरे श्वसुरकोऽचालीन्निवेद्याऽग्रतः सूनो रात्रिभवं स्वरूपमखिलं मार्गे पुनर्निर्मलाम् । ज्ञात्वाऽऽगात् स्वगृहं शशंस च महन(त्)शीलं यया जिग्यिरे चत्वारः सचिवा जयत्वनुदिनं सा शीलवत्यङ्गना ॥६७॥
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नार्यः कदाचन मनाग् मनसः स्वकीया
नैसर्गिकी कुटिलतां न परित्यजन्ति । ज्ञात्वेति तत्र न भवन्ति हि सक्तचित्ताः सत्पूरुषा य(ह्य)गडदत्तमुखा यथेह ॥६८॥ संत्यक्ताऽवनिजानिनाऽतिगहनेऽरणे गता दुर्दशां संछिन्नं पुनरेव हस्तयुगलं प्राप्सीन्नवं पेशलम् । भेजे भूरिसुखानि सर्वजगति ख्याता कलावत्यहो शीलस्याऽतिशयेन विस्मयकरं किं किं न सम्भाव्यते ? ॥६९।।
अथ ब्रह्मव्रताराधकेतरोदाहृतयः । तत्र तेषां(केषां)चिदभव्यानामपि स्वीकृत-सर्वविरतीनामपि व्रतखण्डना जायते सा तदधिकारे प्रोच्यते
पूर्वं यो नियमस्थितिं गुरुसकाशादग्रहीद् दुष्कलां निर्वेदात् कुशलत्वमाप सकलस्याऽर्हत्क्रियौघस्य च । सोऽपि ह्यार्द्रकुमारको व्रतविधि हित्वा चतुर्विंशतिं वर्षाणां गृहसौख्यभाक् पुनरभूद् धिक् पुष्पचापोद्गतिम् ॥७०॥ श्रीशैवेयजिनस्य बन्धुरपि यः स्वीकृत्य जैनं व्रतं दर्यां रैवतभूधरस्य विशदध्यानं प्रपन्नः परः(रम्) । सोऽपीक्ष्याऽऽवरणप्रमुक्ततनुकां राजीमती रागवानासाश्त (?)त्र तु चेत्तदा खलु भवेदन्यस्य का सङ्कथा ? ॥७॥ यः शिष्योऽन्तिमतीर्थपस्य नृपतिश्रीश्रेणिकस्याऽऽत्मभूरप्यत्युग्रतपोनिधिर्बहुतमव्याख्यानलब्ध्या सदा । जन्तून् बोधयति स्म यो दश दश श्रीनन्दिषेणो मनिः सोऽप्यासीत् पणयोषिता सह रतो धिक् कामविस्फूर्जितम् ॥७२॥ सम्पर्कं स्वगुरोविमुच्य तटिनीतीरे तपोभिर्घनैः पार्श्वस्थांस्त्रिदशांश्चकार वशगान् यो वै सहेलं वशी । सोऽपि प्रालभताऽत्र निन्द्यनरकं सङ्गेन वारस्त्रिया संत्यक्तव्रतसंस्थितिवृजिनवान् द्राक् कूलवालो यतिः ॥७३॥ विद्यन्ते नहि किं सुपर्ववनितास्तारुण्यराढाञ्चिता लेखानामधिपोऽपि गौतमऋषेर्भेजे सि(?) यत् प्रेयसीम् ।
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अनुसन्धान-५५
पुष्पेषुज्वलने घने ज्वलति हृत् तृण्याकुटीरे महान् रक्षोऽपि प्रविमुह्यतीह यदि कः स्याद् विस्मयो वै तदा ॥७४॥ कष्टैः काननवासजैर्बहुविधैरुयैस्तपोभिर्व्रतैर्योगैरङ्गसमन्वितैरपि(ति)तरां यै रञ्जितं भूतलम् । श्रूयन्ते यदि तेऽपि तापसवरा द्वीपायनाद्याश्च्युताः सत्शीलात् तदहो ! रिपोरिव कलाकेलेर्हि दुश्चेष्टितम् ॥७५॥ भ्रष्टोऽष्टश्रवणः पुराणपुरुषश्चोमापतिस्तापनः
स्कन्दः सोऽपि हिमद्युतिस्तु निजकात् शीलादहो ! श्रूयते । अन्ये चाऽप्यमरा यदीह वनितानां कर्मकृत्त्वं घनं कुर्वन्त्येव तदा स्मरो हि विरलैः शक्येत जेतुं परैः ॥७६॥ येऽरातीन् रणभुव्यनुत्तरबलान् निघ्नन्ति वै हेलया मत्तं कुञ्जरमानयन्ति वशमत्युग्रं च कण्ठीरवम् । तेऽप्यानङ्गरसाकुला गतबला नार्यंहिपद्मेष्वहो ! शूरा ह्यत्र नरा लुठन्ति विषमं धिग् मान्मथं चेष्टितम् ॥७७॥ सम्प्राप्ते निधनेऽपि कातरवचो धीरा न जल्पन्ति ये कष्टां चापि दशां गता अपि निजं मानं न मुञ्चन्ति ये । कुर्वन्तः खलु तेऽपि दास्यमवशाः स्त्रीणामनङ्गानलज्वालाभिः परितप्यमानवपुषो दृश्यन्त एवाऽवनौ ॥७८॥ अद्यापि क्षितिमण्डलेऽत्यपयशो ध्वान्तोच्चयश्यामलं निन्द्यं नूपुरपण्डिताप्रभृतिकानामङ्गनानां महत् । शीलं स्थापयितुं कुशीलचरितज्ञातच्छलात् सन्ततं दक्षैरप्युपदिश्यते मुनिजनैः सर्वत्र शान्तैरहो ! ॥७९॥ किं कुर्मो वयमत्र चेदनियमा नूनं नराश्चाऽर्गलामुक्ताः शीलगुणं बलादपहरन्त्यस्मत्सकाशाद् ध्रुतं (ध्रुवम् ? ) । मा भूत् कस्यचनापि नि (वि) श्ववलये निन्द्या पराधीनता काश्चित् सत्त्वविवर्जिता यितितरां नार्यः प्रजल्पन्त्यहो ! ||८०|| दुःशीलतादिबहुदूषणतत्पराणामाख्यामि पाप्मपदमत्र वदन्ति दक्षाः । तत्सङ्गतिस्तु घनदुःखपरम्पराणां हेतुः कथं न भवति प्रविचार्यतां भोः ! ॥ ८१ ॥
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दारिद्यं क्लीबता रुक्ततिरि(र) मतिरपाण्डित्यमल्पायुरापत्कौरूप्यं नारकाणां गतिरधममनुष्यत्वमाशाविनाशः । तिर्यक्त्वं चेन्द्रियाणामपहतिरशुभ श्रेणिरित्यादि दुःखं दुःशीलैरत्र पुंभिः प्रबल भयचयैः साकमासाद्यते वै ॥८२॥ यद्दोर्दण्डविमुक्तबाणनिकरत्रस्ताः कुरङ्गा इव प्रत्यर्थिपृथिवीभुजो वनभुवं ह्याशिश्रियुः सर्वदा । लङ्का यन्नगरी बिभीषणमुखा यस्योद्भुताः सोदराः सोऽप्याप्तो निधनं गतस्तु नरकं दौः शील्यतो रावणः ||८३ || पराङ्गनासङ्गजुषां नराणां भवेद् यदा दुर्भगताऽपकीर्तिः ।
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तदा न चित्रं हृदि चिन्तनीयं मषी न कायय निषेविता किम् ? ॥८४॥ परिस्त्रियं पुण्यततेर्निहन्त्रीं सुखाशया येऽत्र भजन्ति मूढाः । शङ्के स्पृशन्त्युग्रविषोद्भुतां ते प्राणेच्छया क्रूरतरीं (रां) भुजङ्गीम् ॥८५॥ त्यक्त्वा निजं या दयितं विलज्जा परेषु रागं तनुते नरेषु । विद्युल्लताचञ्चलमानसायां रमेत कस्तत्र पराङ्गनायाम् ? ॥८६॥ मोक्षद्रुमे तेन कुठारघातो ददे च देहे च रणाभिधौकः । उन्मूलिता चारुगुणालिवल्ली येनाऽन्यनारीषु रतिः कृते ॥८७॥ निर्भर्तृका-सङ्गतिरुच्यते वै प्राज्ञैरनर्थैकनिबन्धनाय । कुलिङ्गिनीभिः सह रन्तुमिच्छा सर्वापहाराय तदा न चित्रम् ॥८८॥ न मातरं नो जनकं गुरुं वा हितं वचो न श्रुतमार्हतं च । मित्राणि बन्धून्न च देवताद्यं वै मन्यते वारवधूरतो ना ॥८९॥ या खानिरुर्व्यां कु(क) पटोच्चयानां यदीयचित्ते न कृपा कदाचित् । ध(अ?)न्यस्य हेतोर्विदधाति हाईं यासां (या सा ? ) कथं वारवधूः सुखाय
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निषेवते यो वनिताः प्रकामं पशुक्रियाभक्तमतिर्नृपाशः । स सूक्ष्मजन्तून् नवलक्षमानान् निहन्ति जैनागमवाक्यमेतत् ॥९१॥ यथा तरूणां दववह्नितोभीर्यथा र (रु) रूणां च हरेः करालात् । बिडालतः कुक्कुटशावकानां यथा तथा स्त्रीजनतो यतीनाम् ॥९२॥
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अनुसन्धान-५५
नितम्बिनीं ये हृदये निधाय वाञ्छन्ति मोक्षं बत मुग्धलोकाः । आरुह्य ते लोहमयीं शिलां वै तरीतुमिच्छन्ति महाम्बुराशिम् ॥९३॥ व्यापत्खनिः सद्म कलेर्निदान - मनर्थराशेः खलु याऽत्र लोके । स्वान्तं दुराराध्यतमं च यस्याः सा सौख्यहेतुर्वनिता कथं स्यात् ? ॥९४॥ सा जातिरब्धौ विनिमज्जतु द्राक् कुलं च तद् यातु विदूरमाशु । गुणा विशन्तूग्रतमे हुताशे दुःशीलतायां निरतस्य पुंसः ॥९५॥ विज्ञाय किंपाकफलोपमानां - स्त्यजन्ति विज्ञा विषयानशेषान् । मूढाः पुनस्तत्र रतिं दधाना भवन्त्यजस्त्रं जनगर्हणीयाः ॥९६॥ विद्योततोऽत्राभिजनो जनस्य शीलेन वै शुद्धतरेण शश्वत् । सालो हि मूलेन सुनिश्चलेन रुचि दधाति च्छना ( ? ) दिकैर्नो ॥९७॥ तृष्णा वञ्चनपाटवं वितथा (थ) वाग् वैधेयताऽलज्जता
नैष्टुर्यं च (त्व) भिमानिता मनसिजक्रीडारुचिः प्रायशः । शुग्रोषावविवेकिता च सहजा दोषालिरित्यादिका
यत्र स्याद् वनितासु तास्विह पुमान् कुर्यात् कृती को रतिम् ? ॥९८॥ कर्तव्यो नहि योषितां प्रविलसत्स्नेहं गतानामपि विश्वासो हितमिच्छुभिर्बुधजनैर्नूनं कदाचित् क्षितौ । श्रीरामेण च लक्ष्मणेन च यथा तस्मिन् वने दण्डकाऽभिख्ये सूर्पणखाप्रदर्शितबहुप्रेमाऽपि नाऽङ्गीकृता ॥९९॥ भाषन्ते मधुरं वचो यदि पुनः प्रीतिं परां दर्शयत्यानन्दं रचयन्ति विभ्रमततिं कुर्वन्ति पुष्णन्ति शम् । तन्वन्त्यादरमद्भुतं च जनयन्त्येवेह चित्ते तथाप्यात्मज्ञा नहि विश्वसन्ति कुटिलभ्रूणां चरित्रे क्वचित् ॥१००॥ अर्च्यन्ते कुसुमेषुशासनधरास्ते निर्जरा जर्जरा मुक्त्यर्थं मनुजैरनेकविधिभिर्भक्तिप्रणुन्नैस्तदा । लोके किं नहि पूजयन्ति खलु ते गर्त्तावराहादिकानज्ञानप्रचयप्रनष्टमतयस्तत्त्वार्थमुक्ता हि ॥१०१॥ नारीणां निशितैः कटाक्षविशिखैर्नो भिद्यतेऽस्मोत्तरो (?) येषामत्र पवित्रसद्गुणजुषां शीलाह्वसन्नाहकः ( ? ) ।
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मई २०११
यैश्चापि स्मरभूधवो बहुबलोऽजेयो जितो लीलया दान्तैर्हेतिविवजितैरनुदिनं तेभ्योऽस्त्वजस्त्रं नमः ॥१०२।। पीयूषप्रतिमं निपीय व[च] नं प्रेक्ष्याऽलसां सद्गतिं सप्रेमेक्षितमद्भुतप्रदमनिन्द्यं विभ्रमं भ्रूभवम् । वक्षोजौ च गभीरनाभिवलयं मध्यं कृशं योषितां स्वान्तं नो विकृतिं जगाम नियतं येषां हि तेभ्यो नमः ॥१०३।। वामा क्लीबवदुत्तमैर्हि पशुमद्धेयं च सद्मासनं कुड्यस्याऽऽन्तरमप्यनङ्गरसयुक् स्त्रीणां कथा भिक्षुभिः प्राक्केलिस्मृतिरङ्गवीक्षणमपि स्वाङ्गेषु सत् संस्कृतिवर्षं चाऽत्यशनं प्रणीतमपि च ब्रह्मव्रताराधकैः ॥१०४॥ शीलं चन्दनचन्द्रकाशकुसुमप्रालेयपिण्डोज्ज्वलं याः प्राग्यं परिपालयन्ति नितरां तुच्छाऽपि ताभिॉहो !। स्त्रीजातिः पुरुहूतमुख्यसुमनोभिर्दानवैर्मानवैनिर्ग्रन्थैः सुविचक्षणैरपि जने स्तुत्याः कृता नित्यशः ॥१०५॥ याः श्रीनन्दनसन्निभानपि परान् स्वप्नेऽपि वाञ्छन्ति नो पुंसो जल्पमनल्पमन्यमनुजैः साकं न याः कुर्वते । यास्तुर्यव्रतधर्मपालनपरा रत्नत्रिकाराध(धि)कास्ता लक्ष्मीरिह मन्महे वयमहो साक्षान्न वै योषितः ॥१०६॥ अमङ्गलं शाम्यति दुःखजालं प्रणश्यति द्रागिह सर्वकालम् । येषां प्रशस्यादपि दर्शनाद् वै जयन्तु ब्रह्मव्रतधारिणस्ते ॥१०७।। सुसञ्चितं धर्मधनं प्रविश्य यो वर्मगेहेऽपहरत्यजस्रम् । अनङ्गचौरः प्रबलो जितो यैः सोऽप्यत्र तेभ्योऽस्तु नमस्त्रिसन्ध्यम् ॥१०८।। सर्वज्ञसिद्धान्तपुरे प्रकुर्वन् राज्यं कृपाह्वोत्तमपट्टदेव्या । समं च सम्यक्त्वमहाप्रधान-प्रभूषितः शीलनृपोऽत्र जीयात् ॥१०९।। यक्षाद्याः शकडालमन्त्रितनयाः सप्ताऽथ कंसद्विषो भामाद्या दयिताः सतीजननुताः कुन्त्यादिकाश्चाऽपराः । कौशल्याऽपि च देवकी जिन[पद]न्यस्ताः समस्ता अपि श्रेयांसीह वितन्वतामनुदिनं सत्यः प्रभूतानि वः ॥११०॥
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अनुसन्धान-५५
यद्वाणीरसमानिपीय भविका द्राक्षासितादौ रुचिं नो कुर्वन्ति यदीयकीर्तिरतनुः प्रालेयधामोज्ज्वला । प्रोद्यवृद्धतपोगणाम्बरदिवानाथोपमानाश्चिरं श्रीमत्श्रीजयसुन्दराह्वगुरवो जीयासुरुर्वीतले ॥१११।। इति श्रीवृद्धशालाकमलिनीदिनकरोपमानमहोपाध्यायश्रीजयसुन्दरगुरुशिष्या
णूपाध्यायश्रीसंवेगसुन्दरगणिः श्रीशीलोदाहृतिकल्पवल्ली कृतापि(त्वाऽपू)र्यत ॥ श्रीसर्वज्ञसरस्वत्यै नमः ॥
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मई २०११
[नोंध :
सिद्धार्थ-त्रिशलाकृत भोजन-विच्छित्ति-विषयक आ त्रण रचनाओ लगभग दोढेक वर्षथी आवीने पडी हती. परन्तु समयनी खेंचने कारणे तेनुं व्यवस्थित संकलन करवामां खास्सो विलम्ब थई गयो ! आजे ते त्रणे रचनाओ साथे ज मूकवामां आवे छे.
आ वर्णनोमां स्वाभाविक रीते ज केटलांक वर्णनो, शब्दो समान अने तेथी पुनरावर्तित थतां होय छे. छतां प्रत्येक वर्णन भिन्न भिन्न ज होय. आना उपरथी तेणे नकल करी तेवं नथी होतुं.
वास्तवमां, कल्पसूत्रनुं वांचन करवानुं होय त्यारे श्रोतावर्गने रस पडे ते माटे विविध स्थानो पर आ प्रकारनां वर्णनो व्याख्याताओ तथा भाषाविवरण/टबार्थना लेखको बोलता/लखता. टबार्थ सेंकडो होय, तेमां एक या बीजा, पहेलांना टबाओनो आधार पण लेवातो ज होय. छतां दरेक वक्ता/लेखक वर्णनने रसिकतानो पुट आपवा माटे कांई ने कांई उमेरता जाय ज. अहीं आपेल त्रणे वर्णनोने जोवाथी उपरोक्त वात स्पष्ट थई जशे.
आवां वर्णनो थकी वानगीओनां नामो, अवनवा शब्दो, भोजनसमारोहमां जळवाता भोजनक्रम - इत्यादि अनेक विषयो विषे जाणकारी मळी रहे छे. तो मध्यकालमां प्रचलित भोज्य पदार्थो विषे पण माहिती मळी आवे छे. अस्तु.
- शी.]
कल्पसूत्र-टबार्थ-गत भोजनविच्छित्ति
- सं. मुनिपुण्यश्रमणविजय विहार करतां डुंगरपुर जवानुं थयु, त्यां उपाश्रयमां कल्पसूत्र-टबार्थनी एक प्रति जोई. तेनां पानां फेरवतां आ ‘भोजनविच्छित्ति' जोवा मळी. 'अनुसन्धान'-४९मां आवी एक वर्णनात्मक कृति प्रकाशित थई हती, ते याद आवतां आनी नकल करी, तेनी साथे सरखावी जोई, तो बन्ने वर्णनमा घणी समानता जोवा मळी. प्रकाशित कृतिमां 'ग्रन्थान्तरानुसारेण' एम छे, तो ते आ कल्प-टबा परथी ज ऊतारेल हशे, एवी सम्भावना छे.
प्रतिना अन्तिम पत्रमा 'सं. १८२७ना आषाढ सुदि ४ भोमवासरे, कोटा नगरे प्रवरतन्नसागर महाराजने वांचवा माटे पण्डित सूरजमले लखी' एवी नोंध छे.
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५४
अनुसन्धान-५५
अथ भोजनविच्छत्ति प्राह ।
भलो उत्तंगतोरण मांडवो । उत्तंग तोरण | तुरत नवो बैसवानुं आंगणो । ते तो नील रतनतणो ॥ ससहा मांड्या आसण । वइसवानी किसी विमासण । आगलि मूंकी सोनानी आटणी । ते किम जाई छांडणी ॥ ऊपरि मूक्या सोनाना रुपाना थाल । अत्यंत विशाल । विचिमई चउसठि वाटकी । लिगार नहि जाटि काटकी ॥ गंगोदक दिधा थाल । कचोलानइं हाथ पवित्र कीधा । सगली पांति बइंसती हुइ । इन्द्र इन्द्राणी निरखती । तलई प्रीसणहारी आवी । देखता लोकनई मनि भावी ॥ ते केवी हैं
—
सोलशृंगार सज्या । बीजा काम सहु तज्या । हाथनी रुडी । बिहु बाहइं खलकै चूडी ॥ लघलाघवनी कला । मन कीधा मोकला ॥ चित्तनी उदार । अति घणुं दातार ॥ दोलतनी हाथ । परमेश्वर देवे तेहनो साथ ॥ धसमसती आवी । गलानई मनि भावी ॥ पहेलु फलहल प्रीसइं । सगलाना मन हिसई ॥ पाका आंबानी कातली ॥ ते बूरा खांडसुं भरी ॥ अनइं वली पातली पाका केला । ते वली खांडसुं किधा भेलां । सखराकरणां । ते वली पीला वरणा || नीला नारंगा । रंगइँ दीसता सुरंगा। कौंली रायण प्रीसि, भायिण दाडमनी कूली । खातां पूगइ मननी रली । तिम जानइं अखरोट, खाता उपजई मननी कोडी ॥ द्राख नई बिदाम, केइ कागदी केइ स्यांम । सलेमी कुहारा खारिक खजुरि ते प्रीस्या भरपुर || नालेरनी गिरी, ते मालवा गोलसुं भरी । लींबू मीठा नई खाटा । एहतो कहे न दीठा । परीस्या चारोली नई पिसता । लोक जीमई हसता । वली सेलडीनइं सहाफल । ते पिण प्रीस्यां परिघल ॥
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मई २०११
हिवइ पकवांन आणइ । ते केहवा हैं
सतपुडा खाना तुरतना कीधा,
ताजा सदला नैं साजा मोटा जां प्रासादना छाजा ।
—
पछें प्रीस्या लाडु, जाणे नान्हां गाडु
कुण कुण लाडु ते कई
मोतीयालाडु । दालिया लाडु । सेवीया लाडु । कीटी लाडु नांहलना लाडु । तिलना लाडु । त्रिगडुना लाडु । मगदना लाडु मींजीपाक लाडु । सिंहकेसरीया लाडु । करीया लाडु । अनेक जातिना लाडु मेहल्या ॥
वली बीजा आण्या पकवान, जीमता वाधइ मुखनु वान । कुण कुण जाति नवी नवी भांत ।
५५
तल्या गुंद । कुंडल्या कृत जलेबी ।
पड सुधीनी लापसी । मीठो मगद आछो माल निगद ॥
पछइं चूरमा मेल्हैं । खांडनुं चूरमुं । साकरनुं चूरमु । चूचूता चूरमा
तल्या चूरमा । चूं.... चूरमा । घीगलित चूरमा ।
पछै चावल परुंषै ते मस्यै ।
ते कुणकुण भेद सांभलता
उपजइ उमेद ।
सुगंध शालि । सुवर्ण शालि, धोलीं शालि ।
T
I
राति शालि । पीली शाली। शुद्ध शालि । कमल (कलम) शालि । कौमुदी शालि कूंकूंणी शालि । कालो भात, जीमतां नहीं बात । मीठी शालि । रायभोगशालि । वली साठीं चोखा । अखंड चोखा । बिहुअणीयाला चोखा | सुजाण स्त्रीइं खांड्या । चतुर स्त्रीइं सोह्यां । मृगाक्षीइं वीण्यां । उत्तम स्त्रीइं ओर्यां । चन्द्रवदनीइं स्त्रीइं उसाया । सुघड स्त्रीइं उतार्या । एहवी शालि परुषी ।
वली दालि केहकेही परुषी
मंडोवरा मगनी दालि ।
हरियामगनी दालि । काबलीचणांरी दालि । ऊडदनी दालि । झालरनी दालि । मौठनी दालि । मसूरनी दालि ।
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अनुसन्धान-५५
वरणै पीली परिणामे शीली। वली ऊपर परिघल घी प्रीस्यां, पणि ते केहवा - आजना ताव्या गायना घी, मजीठवरणा घी, सुरहा घी, नांकै पीवाई तेहैवा घी। हिवैई पोली प्रीसी ते केहवी
आंबी(आछी?)पोली घीमांहि झबोली, खातां उपजइ मननी रली । कुंअला मांडा । अतिपहोला मांडा । वीसपोलीनो एक कवलीओ थाय । हिवै शाक प्रीस्या । ते कुण कुण स्याक । नीलडोडीनो शाक । टिंडोरीना - स्याक । टींडसीना० चीभडां० कोहलाना० कंकोडाना० करमदाना० मतीराना० केलाना० कुंआरिना पाठाना शाक । तोरीना० खडबूजाना स्याक। मोगरीना० तरबुजाना० वाल्होलिना० आंबलीना० कर्पटाना० आवलाना० बोरना स्याक, वइंगणना स्याक । चौलानी फलीना० । गुवारनी फलीना० । सरघुवा फली । कचनार फली । सुहिजणा फली सांगरीना० काचरीना० कमरना० कयरना फूलना. फोगना शाक । एहवा स्याक मूंक्या । हिंवई अथाणां मूकै - नीली मिरचना अथाणा । नीली पीपरिना अथाणा । आंबाना० । नींबुना० करना० । वणकीकाठीना० । ओढबाणाना० । ल्हेसुआना० । तोरीना० । राईता अनेक मेहल्या । खाटा स्याक तमतमा स्याक । तल्या स्या० । वघार्या० । छमक्या स्या० । वली प्रीसी भाजी । ते केही केही भाजी । चीलनी भाजी, ते उपरि सहुनो मन राजी, सुरसुंनी भाजी सोवानी० तांदलीबधुआना स्याक । चिणांरी मेथीनी० । मूली० चूका० । हिवई बडा प्रीस्यां, ते केहवामरिचाला बडा । तल्या० कोरवडा । कांजी बडा । घोल० दाल्या० उडद्या० । घणइं तेलई भीना । सर्वनइं दीना । मिरचना घणा चमत्कार । अत्यंत सुकुमाल ।
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मई २०११
८७
हाथई लीधा ऊच्छलइं । मुढइं घाल्या तुरत गलइं । ऊत्तरइं । घणु सु कहीइ, स्वर्गना देवदेवीना घणा मन टलवलइं ॥ हिवइं पलेव प्रीस्यइं । ते कहेवी - चोखानी पलेव, ज्वारीनी पलेव । बीजाहानी प० । हलद, मरिच सुंठई करि सहि(त) राई जीहाई करि सहित ॥ हवइ भोजन विचि पाणी आवइं । पीवाना पांणी आवइ ते केहवा - साकरना पांणी । द्राखना० पाडलीना पाणी । गंगाना० यमुनाना० । कपूरवासित० । एलचीवासित० । ताढा हिमजल० । हिवइ दहींना घोल आवै । ते केहवा – गायना दही । भैंसरा दही । सुथरा० । काठाजम्पा० । मधुरा दही । मथ्या० । वली सखरा घोल तेहना भर्या कंचोल । करसुं जीमतां होइ रंगरोल ॥ वली सुथरा आण्या करबा । भरि मूंक्या गरबा । मांहिं घणी राई । जीमता ढील नही काई । उपरि जीरा लूंण हलद तेहनो प्रतिवास । प्रीसणहारी पिण खास । हिवई चलुना पाणी आवै । ते केहवा केहवाफुलवासित पाणी । केवडावासित पाणी । कपुरवासित० । पाडलवासित पांणी । चंपावासित० । चंदनवासित० । एलचीवासित० । सुगंधवासित० । गंगोदक पांणीय चूलू कीधां पछई मूछण 3 ते केहवा – वांकडी सोपारीनी फाल । कथेरीसो० । चिवली सो० । मलवारी सोपारी । चूंटी सो० ।। तेह पण केसर कपूर वासित । वली लौंग । जावंत्री । जायफल । दालचीनी । एलची डोडा सुरंग नागरवेलिना पांन बीज घणा आदरनइ सन्मान घणा, गीतनै ग्यान, घणा तांनइ मान घणा वाजिब बाजै । पछइ भला वस्त्रनी पहिराणी करइ ।। ते केहवा वस्त्र - रत्नकंबल वस्त्र । पांभरी० ।
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अनुसन्धान-५५
खीरोदक व० । अट्टाणव व० । खासामूल । चउतार सेला । कसवी वस्त्र । जरवाय । चीणी मसजस । कथीपा । सूपः । धीटः । पटः । टसरीया सिणीयाः । धोवती । भैरव कमरबेली थरमाः । नारी कुंजर प्रमुख पंचरंगी पागबागा पहिराव्या । उपर केसरिना छांटणा कीधा । भलाभला विलेप लगाव्या । बावन्ना चंदन विलेपः । वली सखरा चूआ चांपेल मोगरेल केवडेल फुलेल । जाइ जूही । कुंद मचकुंद । चांपो मरुओ मोगरो । दमणो केतकी । बौंलसिर प्रमुख फुल तेल । तेहना हार करी गलइ घाल्या पछइ कांनै वीरवली हाथइ बहिरखा मुहडी सोनारुपाना कणदोरा हाथना सांकला पगना सांकला प्रमुख पहिराव्या पछै वर्द्धमान नाम दीधोः ।
इति दसोटण विधि संपूर्णम् ॥
C/o. सेवंतीलाल सी. शाह
६, वाराणसी सोसा., संभवनाथ जैन देरासर पासे हाई-वे, डीसा-३८५५३५
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मई २०११
सिद्धार्थकृत भोजनविधि
सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री
अगाउना अंकमां आपी हती लगभग तेवी ज छतां तेनाथी कंइक जुदी रचना अत्रे रजू कराय छे. श्रीवीरप्रभुना नामठवण प्रसंगे श्रीसिद्धार्थमहाराजाओ करावेला भोजनसत्कार- वर्णन करती 'सिद्धार्थकृत भोजनविधि' नामक अढारमा सैकामां रचायेल आ कृति भोजनना रसनी जेम काव्यरसथी आस्वाद्य छे. अहीं भोजनमंडप, पीरसनारी स्त्रीओ, पीरसवानो क्रम, भोजन बाद वस्त्रादिनी पहेरामणी वि. वर्णनमां लगभग बंने कृतिमां घणी बधी समानता छे. जोके, भोजनमां पीरसायेल वानगीओनुं वैविध्य भोजन करावनारना राजाशाही ठाठने छतो करे छे. जेमके - साकरमांथी बनावेला मात्र पकवानो ज २८ प्रकारनो छे. ज्यारे मात्र 'शालि'मां ज २० प्रकारनी विविधता छे. शाक-राईता ने भाजी मळीने वळी २३ जातनुं वैविध्य धरावे छे. ११ जातना लाडू अने ४ प्रकारना पाक तेना वैविध्य माटे दाद मांगी ले तेवा छे. भोजनना वैविध्यनी साथोसाथ कविओ कृतिनुं वैशिष्ट्य पण जाळववानो प्रयत्न कर्यो छे. शब्दोना प्रासानुप्रास उपरांत वच्चे-वच्चे ४ श्लोको पण बहु मझाना छे. लाडूनी यादीमां मूकेला 'सिंहकेसरिया'नी पाकविधि बतावतो श्लोक सघळा लाडूमां सिंहकेसरियानी अद्वितीयतानी साक्षी पूरे छे. ज्यारे लापसी अने वडानी विधि वर्णवता श्लोक पण सुंदर छे.
दाळनी बाबते बंने कृतिओमां जोतां लागे के, तुवेरनी दाळ ओ गुजरातनी-गुजरातीओनी खास वानगी पहेलेथी ज छे. खाजानी मोटाई माटे एक मझानी कल्पना पंक्ति मूकी छे. 'जिस्यां हुइ आवास तणां छाझां'. सात पडवाळा खाजा पर खांडनुं पड एवी होशियारीथी चढावायुं छे जाणे के घर परनां छजां !
छेल्ले, पीवा माटेना जे पाणी पीरसाया छे तेनी स्वच्छता माटे 'स्वच्छं सज्जनचित्तवत्' अने मधुरता माटे 'बालालिंगनवत्' विशेषणो वापरीने तो कविओ कमाल करी दीधी छे. आ श्लोक सुभाषितग्रन्थोमां प्रसिद्ध छे.
___ भोजननी वानगीओनी विविधता वर्णवीने मोजमां आवी गयेला कवि बोली ऊठ्या छे के 'घणू सूं? स्वर्गना देवता पिण खावाने टलवले' । एक
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६०
अनुसन्धान-५५
तो सिद्धार्थ महाराजाने आंगणे निमन्त्रण अने साथै प्रभुनुं नामकरण, पछी शुं बाकी रहे ? अने अहीं कदाच कोईने कविनी, वातमां अतिशयोक्ति लागे ने मात्र कविकल्लोल गणीने वातने हसी न काढे ते माटे कवि स्वयं एक खुलासो आपे छे के, ‘जे ए सर्व प्रभुने पुण्ये थाए... इंद्र प्रभुनी भक्ति करे तिहां किम न होईं ?' जो के, उपर पण भोजनबाद पहेरामणीनुं वर्णन छे त्यां पण कविओ 'पूर्वे वृष्टि थइ छे ते' ओम जणावीने आ वातनी पुष्टि करी छे.
-
छेल्ले आ कृतिनी रचना ते वखते श्री ट्राफा (?) शहेरमां बिराजेला पं. नेणचंद्रजीओ सं. १८४० नी भादरवा सुद चतुर्दशीना रोज करी छे ए वातनो उल्लेख छे. पं. नेणचंद्रजी अंगे कोई विशेष जाणकारी नथी. तेमज 'द्राफा' एटले कयुं नगर ? ते पण समजायुं नथी.
आखी 'भोजनविधि' पूर्ण थया बाद 'वस्त्रनामानि' लेख छे.
अलग नानो
सिद्धार्थकृत भोजनविधि
हवे इहां राजा सिद्धार्थ जे ते; पुत्रनुं श्रीवर्धमानकुमर एहवं गुणनि:प्पन नाम देवा निमित्ते स्वजन वर्गने जिमाडे, तेह भणी भोजनविधि लिख्यते ॥
विउलं असणपाणमिति सकलज्ञाति-क्षत्रियाणां भोजनपूर्वसत्कार:मांड्यो उत्तंग तोरण मांडणो, तुरत नवो वेसिवाने आंगणो । ते तो नीलरतनतणो, तेहने वखाणीइं सुं घणो ॥
तेहमां भला चंद्रूआ बंधाया, पछे कुंकुमना छडा देवाया । मोतीतणा चोक पूराया, तेमाहिं वारुं पाट पथराया ॥ तिहां सखरा मांड्या आसण, जिहां बेसतां किसी विमासण । आगे मूकी सोवन आडणी, ते तो किम जाए छांडणी ॥ उपरि मूक्या सोवनथाल, ते तो सोहे घणुं विसाल । विचमे आली चोसठि वाटकी, लिगार नही जाति काटकी ॥ पछे गंगोदक दीधां, थाल कचोला ने हाथ पवित्र कीधां । तिहां सघली पांति बेठी दृष्टि करीने हेठी । तेहवे प्रीसणहारी पेठी, ते सहुने मनि बेठी ।
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मई २०११
ते केहवी
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सोल शृंगार सज्या, बीजा काम तज्यां । हाथनी रुडी, बिहुं बांहे खलके चूडी । लघु लाघवीनी कला, जेणे मन कीधा मोकला । चित्तनी उदार, हाथनी घणुं दातार ।
धसमसती आवी, जिमनाराने मन भावी ।
हिवे जे प्रीसे ते कहे छे
काव्य : केलां-खांड-खजूर - साकरघणी - नारिंग- जंभीरडां
आंबा-चींभड-तूरदालिसुरहं गोकं प्रधानं घ्रतं । लाडू-लावण-लापसी ललवती, चारोलियं भेलितं, श्रीसिद्धार्थमहानरेन्द्रभुवने भुङ्क्ते जनः स्वेच्छया ॥१॥
अर्थ : हिवे पहिली फलहुली प्रीसे सहुनां हीयां हीसे ।
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पाकां आंबानी कातली, ते बूरा खांडस्युं भरी ने वली पातली । पाकां भलां केलां, ते वली खांडस्युं कीधां भेलां ।
सखरा करणां, ते वली पीलां वरणां ।
नीला नारंगा, रंगे दीसता सुरंगा ।
पाकी नीली राएणि, प्रीसी भली भारणि ।
वली आपे दाडिमनी कली, जे खातां पोहोचे मनरली । निमजां ने अखोड, जिमतां पहोचे मनकोड । द्राखने बदाम, केई कागदी केई स्याम । सिलेमी खारिक ने खजूर, ते प्रीस्यां भरपूर । नालीयरनी गिरी, मालवी गुलसुं भरी । लींबू खाटा ने मीठां, एहवां तो कहीइं न दीठां । चारोली ने पिस्तां, सहुको जिमे हस्तां ।
वली सेलडी ने सदाफल, ते पिण प्रीस्यां परिघल । हिवे पकवान आणे, ते केहवां वखाणे ।
घेवर, गुंदवडां, पतासां, साकरीयाचिणा, साबूडी (णी), जलेबी, मुरकी, हेसमी, अमृती, घारडी, मेसूय, पेढा, दहिथरां, खूरमां, मोतीचूर, फीणा, वरसोलां,
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अनुसन्धान-५५
छाब्बडी सूत्रफीणी नाख्वा(?) चीनी बरफी, हलवो, सक्करपारा, पानडीयासाटा, गुलपापडी, तिलपापडी, गगनगांठीआ, चण्यानो मेसूप इत्यादि पकवान प्रीस्यां । हवे फरसाण आवे-सूखडी बोलावे । चण्याना गाठीआ लासा गांठीआं कावरीआ सेव, चण्यानी - मगनी पापडपूरी, गहुं-चण्यानी पूरी, चोपडां, फाफडा, चण्या तल्या, मग तल्या, ओलीया तल्या, चण्यानी दाल, मगनी दाल, अडदनी दाल, मठनी दालि - तेलसुं वघारी, घणां मरी-हलद्रसुं भरी । तदनंतर – सातपुडा खाजां, चिहूं खूणे साजा ।
खांडभर्यां ताजां, जिस्यां हुइ आवास तणां छाजां ॥ तदनंतर प्रीस्यां लाडू, जिस्या अमृतभर्या गाडूं ।
घृतसूं तल्या, खांडसूं मिल्या ॥
अति स्थूल, अति वाटला, अति उजला, अत्यंत सूकमाल, एलची दाणे वास्या ।
कौण-कौण ? तेहनां नाम, जिमतां मन न रहे ठांम ।
एहवा- मोतैया लाडू, सेवैया लाडू, दलीया लाडू, मगीया लाडू, अडदीया लाडू, कसमसीया लाडू, लाखणसाइ, करणासाइ लाडू, ओषधीया लाडू, चूरमाना लाडू, सिंघकेशरीआ लाडू - गाथा : -
चउसट्ठिकुसुमरसो, अट्ठारसरायदव्वसंजुत्तो । सोलससुगंधजुत्तो, नवबीए सिंघकेसरीओ ॥१॥ इस्या सिंघकेशरी प्रमुख लाडू प्रीस्या ।
हिवे किस्या पाक प्रीस्या ? एलचीपाक, कैरीपाक ते मुरबो, नालीयरपाक, दूधपाक, गूदपाक, गूलाबपाक, केलांपाक, जावंत्रीपाक, खजूरपाक ।
तदनंतर अथाणानी जाति । केरी,लींबू, केरडा, सेरडा, बदाम, आदू, नीली हलद्रमापरवती राइ, गिरमर मरी, सफलजल, कोठीबडां, अवेडां, करमदां, आमलां, बीली इत्यादिक अथाणां आप्यां ।
पछे पातली सेव, प्रीसी रुडी टेव । मीठी-मोली बूंऊ ल्यावे, जे जिमतां हर्ष थावे ॥ पछे मालपूडा ने लापसी, सहुको जिमे हसी ॥
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मई २०११
६३
काव्य - सूक्ष्मं गोधूमचूर्णं, घृत-गुडसहितं, नालिकेरस्य खंडं
__द्राक्षा-खजूर-सूंठी-तज-मरिचजुतं, एलची नागपुष्पम् । पक्वा (पक्त्वा) लोहे कढाहे टलविटलतू(तनू?) पावके मन्दकान्तौ, धन्या हेमन्तकाले प्रचूरघृतयुता भुज्यते लापनथी(श्रीः) ॥२॥ एहवी लापसी प्रीसी ।। हिवे वडां आवे, ते तो सहुने भावे । हिंग्वा जीरैर्मरीचैलवणपटुतरै राईकैः पूर्णगर्भ'स्निग्धः स्वादः सुगंध परिमलबहुलः कोमलः कुंकुमाभः । क्षिप्तो दन्तान्तराले मुरुमुरु कुरुते व्यक्तशब्दो यथा स्यात्
धन्यानां वै कपोले प्रविशति वटकः कान्तया प्रेमदत्तः ॥२॥ मरीयालावडां, तल्यांवडां, कोरांवडां, कांजीवडां, घोलवडां, मगनी दालिनां वडां, उडदनी दालिनां वडां, केलानां वडां, मेथीनां वडां, आदूनां वडां, वैताकनां वडां,
घणे झोले भीनां घणे तेले सीनां । मरीना घणा चमत्कार, काने थाए झणत्कार । अत्यंत सुकुमाल,दीसतां विशाल ॥ हाथे लीधां उछले, मुखें घाल्यां तुरत गले । घणूं सूं ? स्वर्गना देवता ते पिण खावाने टलवले ॥ वली पायड पूनिमचंद, ते खांता होइ आनंद । हवे प्रीसी शालि, ते जिमीइं विचाली ॥
कौण-कोण ? ते भेद, जे सांभलतां उपजे उमेद ॥ सुगंध शालि, स्वर्ण शालि, बेरडी शाल, धोली शालि, राती शालि, महाशाल, पीलि शालि, शुधि शाल, कौमुदी शालि, मंजरी शाल, संसरी शाल, कुंकणी शालि, देवजीरी शाल, दुग्ध शाल, रायभोग शालि, कलीया शाल, कस्तुरी शाल, सांठी शाल, अखंड शाल, कल्प शाल । अखंड चोखा निबली स्त्रीइं खांड्या, सबली स्त्रीइं छड्या, हलवे हाथे सोह्या(ध्या?) नमणी निजरे जोया,
१. सुस्निग्धस्नेहपक । टि. प्रतौ ।
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अनुसन्धान-५५
फूटरी स्त्रीइं धोया, चतुर स्त्रीइं वीण्या, उत्तम स्त्रीइं ओर्या, सुजाण स्त्रीइं उत(ता)र्या, एहवा आखा अणीआला सुगंध फरहरो सरस सुकमाल एहवा कूर प्रीस्या ।
हिवे दालि आवे, ते केहवी लावे ?
मंडोरा मगनी दालि, काबिली चिण्यानी दालि, गुजराती तूअरिनी दालि, झालरिनी दालि, मठनी दालि, वरणें पीली परिणामे शीयली ।
__ वली परिघल घी प्रीसे, ते केही भांते दीसे ? गायनां घीय, महिषीनां घीय, आजूनां ताव्या, मंजीष्टवरणां घी, सुरहां घी नाकें पीए एहवा घी प्रीस्या ।
हिवे विचे पोली प्रीसे, ते दीठे मन हीसे । आछी पोली, घीमांहि झबोली । फूंकनी मारी आकाशे जाये, एकवीसनो एक कोलीओ थाए । एहवी पोली प्रीसी ।
हिवे शाक आवे, ते सहुने भावे । कारेलां, कोचला, टीडोरांनां शाक, डोडीनां शाक, चीभडाना शाक, केलानां शाक, आरीआं-तुरीआंना शाक, मतीरानां शाक, वेगणनां शाक, घ्रतकालाना शाक, गुआरफलीनां, चोलाफलीना, सरघूआनी फलीनां ।
राइतां - सांगरिना राइतां, मरिच नीलीनां राइतां, नीलीपीपरिनां राइतां, खारेकद्राखनां राइतां, सेरडानां राइतां, मूलाफलीनां राइतां ।
हिवे भाजी आवे, ते सहुने मन भावे ।
सरसवनी भाजी, राइनी भाजी, सूआनी भाजी, मेथीनी भाजी, तांजलजानी भाजी इत्यादि ।
सर्व शाक ते खाटां खारां, गल्यां,तल्यां, वघार्यां, फुकार्यां, छमक्यार्यां, कलकलतां, फलफलतां, बलबलतां, सडसडतां, चमचमतां, छमछमतां, चूचूतां । राइतां हीगाला हलदीयां तीखां तमतमां कडूआं कसाइलां सरडकीआं फरडकीआं करडकीयां चाटणां चावणां लीबूरसे सहित । वली खांडमी आवे, तली काचरी
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मई २०११
ल्यावे । वडी भावे । घेसवडी, उबका वडी, सीरावडी, हलद सों जरद । यथा -
आछे नाह्न केरके चूणे चोखे छमकारे चूणे आछे से अथाणे घणे ओर भी अमोल है। चीरडी षडी रडी सीरावडी पूडी हरद आछे भुंजीआंको झोर हे । सांगरी निरोग फोगराइं सेलरांको योग, भाजी भांत भांतिकी मेलीबूकोनि चोर हे, एकली मिठाई तो धिठाइ कहे धर्मसीह
सालणेके जुवो लावा केसो अमोल है ॥१॥ इत्यादि शाक जिहां जोईई तीहां तेहवा प्रीस्या । हवे पलेव प्रीसे, ते केहवी दीसे ।
चोखानी पलेव, उडदनी पलेव, चोलानी पलेव, चिण्यानी पलेव, हलदीया पलेव, पिप्पलीया पलेव, सुंठीया पलेव, इत्यादि पलेव पण प्रीसी। हिवे भोजन विचे पीवानां पाणी आणे, ते केहवा ? वखाणे । यत- स्वच्छं सज्जनचित्तवल्लघुतरं, दीनातिवच्छीतलं,
बालालिङ्गनवत् प्रकाममधुरं तस्यैव संजल्पवत् । एलोशीर-लवङ्ग-चन्दनलसत्कर्पूरकस्तूरिका,
केतक्युद्यु(द्य)तपाटलासुरभितं पानीयमानीयताम् ॥१॥ साकर सरिखां पाणी, गंगोदक पांणी, कपूरवास्यां पाणी, एलचीवास्यां पाणी, शीतल पांणी आप्यां ।
पछे सूखडी-कूर-दालि जिम्यानंतर, हिवे दहीना घोलवा आणे, ते केहवा वखाणे । यत - वटकमंडक मोदिक लापसी, घृत सपूरण चूरण इंडरी;
कलमशालि तणा नव तंदुला, सुलवणा महिषीदधिसंयुता ॥४॥ गायनां दही, भेसना दही, सतरां दही काठां जाम्यां, मधुरां धाम्यां सखरां, सजीरालां, सलवणां ।
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६६
अनुसन्धान-५५
जाडां घोल तेहना भर्या कचोल ।
चोखा साथे जिमतां घणा थया रंगरोल ।। हिवे चलूनां पाणी आवे, ते केहवा ल्यावे -
केवडे वास्या पाणी, काथे वास्यां पाणी, सुगंध वास्या पांणी, वाले वास्या पाणी । सुवन्न झारीइं पाणी भर्या, तिणसुं चलु कीधां ।
पछे मुखवास दीधां, ते सहुई लीधां ।
पांनना बीडां, वांकडी सोपारी, चीकणी सोपारी, नेवरी रोठी सोपारी, काली सोपारी, कपूर, केशर, एलची, लविंग, जायफल, जावित्री, तज, तमालपत्र, चिणकबाब, खेरसार, सूआ, विरहाली इत्यादि मुखवास दीधां ।
पछे सुगंधिनां विलेपन कीधां, केशरनी(ना) टीला कीधां, चूआचंदन-केशर-कस्तुरी-जवादिकना छांटणा कीधां । पछे सर्व कुटंबने पूर्वे वृष्टि थइ छे ते वस्त्र-आभूषण तेहनी पहिरावणी करी ।, चीनाशुक-हीरागल-मिसरुपटोला सूत्रेल वस्त्र रत्नकंबलादीक अनेक जाती वस्त्र, तथा वेढ, वीटी, कडा, उतरी, हार, हथोटा प्रमुख पहेरामणी कीधी । सर्व कुटंबने संतोष्यु ।
इति श्रीभोजन(ना)धिकार समाप्त ॥
इहां कोइ कहेस्ये जे ए तो कविकिल्लोल छ । तिवारे कहिवू जे ए सर्व प्रभुने पुण्ये थाए । देवता सर्व पूरे, जे इच्छा करे ते थाइं । आजने काले अनपूर्णाने आराधई, इच्छा भोजन पामे । तो, इंद्र प्रभुनी भक्ति करे तिहां किम न होइं? इहां संदेह राखवो नही ॥ संवत १८४० ना वर्षे भाद्रवा शुद १४ । श्रीद्राफा मधे ।
लि. पं. नेणचन्द्रेण ॥ अथ वस्त्रिनामानि ॥
देवदूष्य, देवांग, चीनांशुक, पट्टकूल, नीलनेत्र, वायंगणनेत्र, पाडूअपट्टहीर, पटसाउलि १० पंचराइआ, नर्म, खर्व, फूलपगर, जादर, नेत्रपट्ट, राजपट्ट, गजवडि, हंसवडि, कालवडि, भूअचिआं, पट्टकुल, पट्टहीर, साडी, घाटडी, चीर, कमखा, अतलस, लांहि, चादर, क्षिरोदक, खारछीनी, शणीआं गुआगरी डसणीआं, आगराइ, सडली, पटणी, मिश्रू, तास्ता, जरबाख, मुखमल,
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मई २०११
६७
कफइ, कथीपां, मसूजर, अतलस, अतलसकाकणीया, पामरी, कसबीवस्त्र, पीतांबर, शिरबंध, नरमो, सालु, भयरव, अटाण, खांसा श्रीसखर, श्रीबाप, मलमल, साही, दुपडा, अधोतरी, समीआणा, दुकडी भरुची, बास्ता, महिमुंदी, घटी, पटी, छायल, नारीकुंजर, साडला, छीट, चादर, चोरसादिक, रत्नकंबल इत्यादिकवस्त्रनामानि ॥
कठिन शब्दार्थ आडणी - बाजोठ छडा - छांटणा, थापा जंभीरडां - जम्बीर-बीजोरुं निमजां - एक प्रकारनो मेवो अखोड - अखरोट सिलेमी - आखी खारेक साबूणी - रेवडी जेवी एक प्रकारनी साकरनी वानगी घारडी- घारी खूरमा - घउंना लोटमाथी बनतुं मोहनथाळ जेवू पकवान हेसमी, वरसोला - साकरनी मीठाई सफलजल - सफरजन (?) वटक: - वडा झोल - रसो-पाणी जेवो पलेव - राब (?) सालणुं - अथा| चूणे - चटणी / अथाणुं (?) मंडक - मांडा - पूडा
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अनुसन्धान-५५
सुखडी (वर्द्धमान रसोई)
सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री
पूज्य आ. श्रीविजयसोमचन्द्रसूरि म. तरफथी प्राप्त थयेल एक जूनाप्रकीर्ण पत्रनी झेरोक्ष उपरथी ऊतारेली आ रचना छे. तेना अन्त भागे 'इति सुखडी' एवं नाम छे, तथा छेल्ली कडीमां 'वर्धमान रसोई' शब्द छे, ते उपरथी अहीं मथाळु बांधेलुं छे. चौपाई छन्दमां रचायेली आ रचनामां मारवाडी भाषानी प्रधानता छे. घणां वानगीनां नामो मारवाडी होय तेवू लाग्युं छे. कर्ता- नाम पत्रमा नथी. २३मी कडीमां आवतो 'गुणचंदा' शब्द कर्ताना नामना उल्लेखरूप होय तो ना नहि. पानांनी झेरोक्ष बहुज झांखी होवाथी आवड्युं तेवू उकेल्यु छे. भूलचूकनी क्षमा मांगुं छु. आ पानुं सूरतना हुकममुनीजी भण्डारना ग्रन्थसंग्रहमांनुं छे.
सुखडी (वर्धमान रसोई) माय कहै मैरै चगनां मगनां, ल्युं रे बलैयां खेलौ मेरे अंगनां । ताजि कुलै तनसुख की ज गलीयां पाय घुघर गलै सोना की तगलीयां ॥१॥ वर हीनक थीनक भोजन मांगै, धाय जननीकै अंचल लागै । लीयौ कंठसु कंठ लगाई, फुनि बोलें त्रिसलादे माई ॥२॥ ज्यां लगि ललनांकु हुवै रे भुंजाइ, देवं फलोली मेवा मिठ्याइ । आंण धर्या जब मिष्ट मतीरा, उर छुली खरबुजाकी चीरा ॥३॥ पीसी मसरी महीय अनुरी, कुंअर आरौगै पींड खजूरी । करणा रायण अंबकी साखा, नालकेर अर दाडिम द्राखा ॥४॥ अर तरबुज जंभीरी केला, निर्मल घृत खांडसुं भेला । पाक सदाफल लींबुकी खटाई, ल्यों मेरे ललणां रुचिक मिठाई ॥५॥ हरखिय मा दीयें दूध का पेडा, फुनि आणै लघुवडा गिदोडा, कालाकंद भलाऽमृतकुंजा, चंद्रसाही तणुं गणयरनुजा (?) ॥६॥ चौखी रेवडी कल्याणसाही, पीठापाक बहुत कर ल्याई पीपल मरी एलची पाक, गाज सिंघोडां अरबजपाक ॥७॥
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मई २०११
बरबर गुलकी सूकी बरैयां, ठांण धरी बेसनकी पटैयां, अर घोले मेरे पीयौ निवाता, जे पीधां हुई अंगै साता ॥८॥ एहौ कंत जिब गइ रे वधाई, उठौ कुमर तुम हुवै रे भुंजाई, वडीवारको भुखौ मेरे लाला, अंगोली गहकै चाल्यौ पाला ॥९॥ कनक थाल रुपा की तवाई, चौकी बैठी परसै माई, बरबर घेवर मीष्ट जलेबी, अर फीना फीनी मरलेबी ॥१०॥ दहीवडा दहोवडी नीकी, उपर उजली खांड ज मुंकी । गुजागुंथमाहे छै सजुडी, हेसमी इंद्रव खाजा पुडी ॥११॥ खुची(?) मैदाकी घीमै चकोली, सेव गंठ्या सेव सुंहाली धकोली, खुरमां सीरौ सकरपारा पुरा गुणांगुलका गुलगुला रुडा ॥१२॥ साकोली थापडा पापड मुंरकी, अर लापसी परुसी गुलकी, सेवलडु मोतीलडु अ कसारा, नगद मगद बहुतविसवारा ॥१३॥ ए पकवांन परुस्या आंणी, जीमो मेरे ललणां म करौ कांनी, भात उजला रायभोगसाल, मुग मंड्योवर छोली दाल ॥१४॥ माय परुसै घी मोटी धारा, कांजीवडा मांहै बहुतविसवारा । बिहु बिहु पापड एक एक जूडी, कैर कर्मदा नै राय डौडी ॥१५॥ कैर पखोडी फलोली तलोली, काचर पेठ पीठां की तलोडी । भुजीवडां छाछवडी अचकोडी, कुरवडी मुंगोडी कठोडी ॥१६॥ कहै कविजन मांहै घाल्यौ आदौ, जीमौ कुंअर जीवण ससवादौ । अर मेली कचनारकी डोडी, वणी साक जीमणकी जोडी ॥१७॥ इम पलेव धौँ भरभेली, जीरौ मरी तस मांहै मेली ।। पोच्या लालरीको कीयौ खाटौ, माहै मेल्यौ चणांको आटौ ॥१८॥ घाली आंमला कीयौ रहडको, जि कोइ जीमतां हुइ सरडकौ । भीगा चणा वघार्या वटला, कीया सूर्ण बेसनकी कतला ॥१९॥ कडूइआ पड मधरेज करेला, सांगरी कैर करेला मरेला । माय परुसै आछी पोली, ते घृत खांड ज मांहै झकोली ॥२०॥ नीकी हुवै तवाकी रोटी, छंगधरी आछै दल मोटी । थोडा घीसुं करीअक कूनी, खांड एक मा देड अमकुंनी ॥२१॥
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७०
अनुसन्धान-५५
महिकी दूध तणी खीर रांधी, कीधौ सखरण बहु दही बांधी । भात पछै वड ल्यौ दूध घोली, खांड साकर तस मांहे भेली ॥२२॥ गंगोदक भरी निर्मल पांणी, करौ चलू इम बोलत त्रिशलादे राणी ।
साहिब के साहिब गुणचंदा, सिद्धारथ कुल उदयो दिणंदा ॥२३॥ भणै गुणै वर्धमान रसोई त्यां घर मंगल नित नित होइ - ईति सुंखडी ॥
C/o. प्रसन्नचन्द्र आराधना भुवन,
तलाटी रोड, पालीताणा
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मई २०११
केटलीक लघुरचनाओ
___- शी.
फुटकळ पत्रोमांथी जडेली थोडीक लघु गुर्जर काव्यरचनाओ अहीं प्रस्तुत छे. तेनो सामान्य परिचय -
प्रथम गौतमस्वामि-चउपई छे. भगवान महावीरना प्रथम शिष्य गौतम स्वामी, तेमां वर्णन छे. कर्ता मुनि जयसागर छे. रचना १८मा शतकनी के तेथी मोडी होय तेम जणाय छे.
बीजी रचना गहुँली छे, ते भगवान महावीरनां पांचमा शिष्य अने वर्तमान जैन श्रमण परम्पराना आदि आचार्य-गुरु सुधर्मस्वामीनी स्तुतिरूप छे. त्रीजी रचना पण सुधर्मस्वामीनी गहुंली ज छे. आचार्यना गुण ३६ छे. ते ३६ पण ३६ रीते गणावी शकाय छे. तेमांथी चार रीतनी छत्रीशी आ गहुंलीमां वर्णवाई छे. तेथी ज तेने 'षट्त्रिंशकाचतुष्कगर्भितगूहलीगीत' एवं नाम आपेल छे. गहुंली सार्वजनिक चीज गणाती होई तेमां तेना रचनार- नाम लगभग नथी
होतुं.
___ चोथी रचना छे तो गहुंली ज, पण तेनुं नाम 'सौधर्मगणधरभास' एवं अपायुं छे. तेमां पण आचार्यना गुणोनी छत्रीशी- ज वर्णन छे. उपरांत तेमां कुंकुमनी गहुंली रचीने ते ऊपर अक्षत पाथरीने ते ऊपर श्रीफल मूकवारूप गहुंली-रचनानुं पण वर्णन थयुं छे, जे ध्यानार्ह छे.
__पांचमी रचना 'गौतम भास' नामे, गौतमस्वामीनी गहंली छे. आमां पण त्रीजी कडीमां कंकुनो साथीओ करी, ते पर अक्षत पूरी गहुँली काढवानी प्रथानो निर्देश छे. क्यांय साथीआ साथे सिद्धशिला आलेखवानो निर्देश नथी ते खास नोंधपात्र जणाय छे.
२-३-४-५ ए चारे रचनाओमां, छेल्ली कडीमां 'जिनशासन' शब्द अचूक आवे छे, ते ऊपरथी ते चारे एक ज कर्तानी रचना होवानुं अनुमान थाय छे. आ रचनाओ पण १९मा शतकनी होवानुं लाग्युं छे.
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७२
अनुसन्धान-५५
श्रीगौतमस्वामि-चउपई ॥ गोयमसामी गुणनिलउ सोहगसिरि उरि हार । आराहउ आणंद भरि सुयकेवल सिणगार ॥१॥
चुपई ॥ गिरूया गणहर गोयमसामि रिद्धि वृद्धि जसु लीधइ नामि । रातिदिवस मुझ एह उच्छाइ प्रय(ह) उठी प्रणमुं तसु पाय ॥२॥ ब्रह्मवंशभूषण वसुभूति पुहवि प्रीया नररतन प्रसूति । इंद्रभूति तसु नामि पुत्र बीजो गोयम नाम पवीत ॥३॥ दउढ सहस तापस एक पात्र खीरि जिमाडी ततक्षण मात्र । ते वरीया न्याणे ततक्षिणा ए जाणे प्रभुनी दक्षिणा ॥४॥ दक्षण हस्त सिद्धि जस होय स जसु दीखइ तसु केवल होइ । आप पासि अणहूइ दान गोयम दीजइ इणि परि न्यान ॥५॥ वीरवयण अष्टापद शृंगि सोवनमय जिणहर उत्तंगि । जिण नीयलबधी वंदी देव केवल[ल]छि मनावी सेव ॥६॥ हेमकमल ऊपरि अणुसर्या सहस पचा[स]सुं परवर्या । चउवीसे जिन पूजा करी प्रभ(भु) ध्याउ उत्तम तप आदरी ॥७॥ आदि प्रणमंतां मायाबीज श्रीअरिहंतमनंतर लीज । गोयमसामी आगलि नमु मंत्र एह दीवाली-समु ॥८॥ गोयमनामइ लाभई राज गोयमनामइ सीझइ काज । नवनिधि अष्टमहासिद्धि मिलइ दोष गलइ सिवि संकट टलइ ॥९॥ कामधेनि घरि-अंगणि रमइ सुप्रसन्न जउ गोयम किमइ । क्षुद्रोपद्रव जाइ टली भावविभूषण न आवइ वली ॥१०॥ सिद्धि बुधि बहु लबधि भर्या तु गोयम चिंतामणि सर्या । जु तमे इच्छउ सुखसंतान इच्छउ अहिनिसि अतिबहुमान ॥ कवित ए जाप भणइ लही श्रीजयसागर बोलइ सही ॥११॥
इति श्रीगौतमस्वामिचउपइ संपूर्णः ॥
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मई २०११
७३
गहुंली अने भास गीतो ॥
रामचंद के वागि – ए देशी ॥ चंपानयरी उद्यान सुरतरु महुरि रह्यो री । वीर पटोधर धीर सुहम आय रह्यो री ॥१॥ जियक्रोध जीयमान माया लोभ तजै री । संपूरण श्रुतज्ञान जिनवर बिरुद भजै री ॥२॥ आश्रव५ विषय५ प्रमाद ५ निद्रा पंच तजै री । दसविध सामाचारि० षटविध जयणा भजै री ॥३॥ उपगारी धरै बार भावना तप पडिमा री । निःकारण जगबंधु रवि शशी मेह समा री ॥४॥ कंचनकमल विचालि बेंसी धर्म कह री । जिणथी भवियण लोय आतमतत्त्व लहैं री ॥५॥ कोणिक भूपतीनारि घुयली गोलिं करें री । माणिक मोती वधाय पुण्य भंडार भरै री ॥६॥ जिनसासननी भक्ती करतां पाप हणे री । सोहव सरिखें साद घुयली गीत भणे री ॥७॥
इति सोहम गणधर गुयलीगीतं ॥
चेलणा लावें गूयली गुरु ए रुडा, श्रेणिकनृप घरि नारि सजनी ए रुडा। सोहमसामी समोसर्या गु०, प्रभु पंचम गणधार स० ॥१॥ छत्रीस छत्रीसे गुणे गु०, शोभीत पुण्य पवीत्र स० । आगमवयण सुधारसे गु०, वरसी ठारै चित्त स० ॥२॥ पडिरूवादिक चौद छे गु०, खांत्यादिक दस धर्म स० । बारह भावन भावीया गु०, ए छत्रीसी मर्म स० ॥३॥ दंसण नाण चरणतणा गु०, तप आचारे युक्त स० । सत्य१० समाधि१० अलंकर्या गु०, सोल कषाये मुक्त स० ॥४॥
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७४
अनुसन्धान-५५
नवविध धर्मतत्त्वनी देशना गु०, नवकल्प उग्रविहार स० । नवनीयाणां परिहरे गु०, नववा. व्रत धार स० ॥५॥ आतमबाजोठ उपरे गु०, समकित साथीओ पूर स० । मूलउत्तर[गुण] धूयली गु०, उपसम अक्षत भूरि स० ॥६॥ कोकिल कंठे कामिनी गु०, सोहव गाये गीत स० । माणिक मोती लूंछणे गु०, श्रीजिनशासन रीति स० ॥७॥
इती षट्विंशकाचतुष्कगर्भित गूंहली गीतं ॥
आ छे लाल - ए देशी ॥
ज्ञानादिक गुणखांणि राजग्रही उद्यान गणधर लाल
सोहमसामी समोसर्या जी ॥१॥ कंचन गौरी सरीर वाणी गंगानीर, गण० ।
त्रिहुं पंथें पसरें सदा जी ॥२॥ अंग उपांगह बार१२, दसविध रुचीनो धार, ग०
दुगविध२६ शिक्षा उपदिशे जी ॥३॥ तेर क्रिया१३ व्रत बार१२, गिहिपडिमा अगीयार१, ग०,
श्रावकगुण११ भेद सिद्धना जी ॥४॥ विनय१० वेयावच० कल्प१०, धरें दसविध छ अकल्प, ग०
वंदण दोष२२ विकथा तजें जी३६ ॥५॥ कुंकमरोल कचोल, घुयली रंगमरोल, ग०,
____ अक्षत भूरि श्रीफल ऊपरें जी ॥६॥ मगधाधिपनी नारि, सोल सजी सणगार, ग०,
लली [लली] करती लूंछणां जी ॥७॥ जोती गुरुमुखचंद, पामती परमानंद, ग०,
चतुर चकोरी गोरडी जी ॥८॥
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मई २०११
सुरवधूनरवधू कोडि, मिलि मिलि सरिखी जोडि, ग०, गावैं जिनशासन- धणी जी ॥९॥
इति सौधर्मगणधर भास ॥
रचना
१
२
राजग्रही रलीयांमणी जिहां गुणशिल चैत्य सुठांम, साजन मोरी हे सहीयर मोरी हे बेंहिंनर (नी) मोरी हे, आवो सवाईगुरु भेटवा, कांई मेटवा कर्म कठोर सा० मुनिगण तारामां चंद यूं आव्या गणधर गौतमस्वामि सा० १ पांचें इंद्री वसि करें वली पालें पंच आचार सा० लबधि अठावीसनो धणी जेहवो आठ प्रभावक राय सा० २ पहेरणि पीत पटोलडी उपरि नवरंग घाट सा० कुंकुमघोलसु साथीओ करि अक्षतपूरि सुघाट सा० ३ लली लली कीजें लुंछणां लेई रजत कनकनां फूल सा० करो जिनशासन प्रभावना वजडावो मंगलतूर सा० ४
इती गौतमभास ॥
कडी
४
५
५
६
६
७
कठिन शब्दार्थ
न्याणे
दीखइ
केवल
नीयलबधी
गेलिं
सोहव
ज्ञाने
दीक्षा आपे
केवलज्ञान
पोतानी लब्धि - शक्तिथी
गेलथी- आनन्दथी
सधवा-सौभाग्यवती
७५
नोंध : बाकी अनेक शब्दो जैन परिभाषाना छे, तेना अर्थ जे ते सन्दर्भ थकी ज पामी शकाशे.
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७६
अनुसन्धान-५५
ट्रंक नोंध :
उपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी
गुरु-शिष्यपरम्परा चंदराजाना रासनी १९मा सैकानी एक प्रति जोवामां आवी. तेनी पुष्पिकामां उपा. यशोविजयजीनी परम्परा विषे वांचतां ख्याल आव्यो के सं. १८६६ सुधी तो तेमनी परम्परा प्रवर्तती ज हती. त्यार पछी पण केटलोक वखत ते चालु रही होय तो ते बनवाजोग छे. ते पुष्पिका आ प्रमाणे छे :
संवत १८६६ना वर्षे आसो सुदि २ दिने वार बुधे सकल भट्टारक पुरन्दर भट्टारक श्रीश्री १०८ हीरविजयसूरीश्वरजी तत्शिष्य महोपाध्याय श्रीश्री १०८ श्री कल्याणविजयगणि तशिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्री १९ लाभविजयगणि तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी नयविजयगणी तशिष्य सकलवाचकपुरन्दरवाचकचक्रचक्रवर्ती महोपाध्याय श्रीश्री १०८ महोउपाध्याय श्रीश्री श्रीमत् यशोविजयगणी तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्री १९श्री गुणविजयगणी तशिष्य सकलवाचकपुरन्दर वाचक महोउपाध्याय श्रीश्री १०८ श्रीसुमतिविजयगणी तशिष्य सकलपण्डित शिरोमणी पण्डित श्रीश्री १९ उत्तमविजयगणी तशिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्रीश्री १९ श्रीप्रतापविजयगणी तत्शिष्य पं. गंगविजयेन लिपीकृतं च भूधरजी कान्हुजीरामजी कान्हुजी वाचनार्थं श्रीमुंबईबंदिरे श्रीगोडीपार्श्वनाथप्रसादात् । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु श्रेयोस्तु शुभं भवतु ॥
__आना परथी उपाध्यायजी महाराजनी पांच पेढी सुधी तो शिष्यपरम्परा चाली हती ते नक्की थाय छे, अने वधुमां तेमनी पांचमी पेढीना शिष्य मुम्बई पण गया हता अने गोडीजीना प्रख्यात देरासरमां आ पोथी तेओए लखी हती ते पण जाणवा मळे छे.
- मुनि धुरन्धरविजय 'अरिहंत' समृद्धि एपा. पासे, हाई-वे, डीसा-३८५५३५
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मई २०११
(२)
काव्यानुशासननो स्वाध्याय करतां...
प्रा. रसिकलाल छो. परीखे कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत काव्यानुशासन (-अलंकारचूडामणि अने विवेक - अ स्वोपज्ञ टीकाद्वय साथे ) नुं सरस सम्पादन कर्तुं छे. (प्र. - महावीर जैन विद्यालय मुंबइ, ई. स. १९३८) हमणां ते पुस्तक द्वारा काव्यानुशासन - अध्याय - १नुं अध्ययन करतां तेमां केटलीक क्षतिओ जोवा मळी; जेनी नोंध अभ्यासीने उपयोगी थशे ओम जणातां अत्रे आपवामां आवे छे :
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१९
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2 2 2 2 m w v
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२५
१७
८
अशुद्ध
एवं दृष्टो०
० विगलद्वारा ०
० दानवयुतै ०
० नदी यच्चे०
५
१६
१९
मृदुप्रिय०
० रुहिका
वाताहर०
रावणः क्व नु
०लादि द्रव्य०
इति । वचनाद्
तदनुगमेन
०पारोऽपह्नव०
०तमाहय०
० दन्धशय्या०
शुद्ध
एवंदृष्टो ०
० विगलद्धारा०
० दानवनुतै ०
० नदीवच्चे०
मृदु प्रिय०
०रुहिकाः
वाताहार०
रावणः, क्व नु ● लादिद्रव्य०
इति वचनाद्
५२
५३
०तमा हय०
५३
०दन्ध! शय्या
५४
तेत्तियण
तेत्तियेण
५५
० भिधानेन विधि०
०भिधाने, न विधि०
५५
• तमोनिव
• तमनिव
★ पुस्तकमां शुद्धिपत्रकमां दर्शावेलां स्थानो अत्रे नथी नोंध्या.
तदननुगमेन
०पारोऽनपह्नव०
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७८
अनुसन्धान-५५
U
सज्झाव०
सब्भाव०
sur
22 - 12
C
m
६
६
७०
७०
७०
७४
4000 3 3 3 55 3 2 1885 3 3 38 ॐ ॐ ॐ
तु मए तथा च विभात्यह्निः ०न्तरे प्रतीतिः ०वदनामदिरा तत्त्वदृष्टि.....कथं साप्तस्य ०रप्रतिबोध० ससम्भ्रमाह इति वा । वक्तव्ये तत्परं तत्कुसुम० बहु जाणय
नेषु हते० ०प्रस्तुत्वगतिः वणुद्दसे सडिअत्तो चा एक्करसो कश्चित् कुब्ज ०लूकादेनिर्वा० जन्माभिनन्दनं समो सरइ लिङ्गनादि । तत्र मिलाण कमल० तनुरूपेऽपि ते शब्दे कनकं चित्रे पलाशैः प्रकर० स्यादितित्यादि०
तुमए ०तया च विभात्यह्नि ०न्तरप्रतीतिः ०वदना मदिरा ....कथं तत्त्वदृष्टिः सा तस्य ०रप्रबोध० ससम्भ्रममाह इति वा वक्तव्ये तत्परं यद् हृदयं तत्कुसुम० बहुजाणय
नेषुहते० ०प्रस्तुतत्वगतिः वणुद्देसे सडिअवत्तो चाएक्करसो कश्चित् । कुब्ज ०लूकादेर्निवा० जन्मानभिनन्दनं समोसरइ लिङ्गनादि तत्र मिलाणकमल० तनुरूपे अपि तेशब्दे कनकचित्रे पलाशप्रकर० स्यादित्यादि०
७८
/22 0*2222 v or w 2022 m
७८
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ण्हायंति
ण्हायंति ८५ ५ ०याणत्तहं
०याण तूहं ८६ ८ ०श्वररैद्य सुबो० ०श्वरैरप्यसुबो० रचनायास्तु
रचनयोस्तु ८७ १२ तद् द्वारेण
तद्द्वारेण पृष्ठ ७१, पंक्ति २४ 'त्रयश्चकाराः स्वतः सम्भवन्तीति । न केवलं भणिति०' ने बदले आम वांचवें जोइओ : 'त्रयश्चकाराः । स्वतःसम्भवीति (पृ. ७२ पर मुद्रित अलं.टीकार्नु प्रतीक) । न केवलं....' मतलब के 'न केवलं०'थी शरु थती तमाम टीका ‘स्वतःसम्भवी'नी साथे सम्बन्धित स्वतन्त्र चर्चा छे; ‘सुवर्णपुष्पां०'नी टीका-अन्तर्गत एने समजवानी नथी.
अभ्यास दरमियान डॉ. तपस्वी नान्दीओ करेलो काव्यानुशासननो अनुवाद पण जोवानो थयो. (प्र.- ला. द. विद्यामन्दिर- अमदावाद, L. D. Series-123, ई.स. २०००) आ अनुवाद परत्वे ग्रन्थमालाना सामान्य सम्पादक डो. जितेन्द्र शाहे लख्युं छे : "तेना (-काव्यानुशासनना) प्रमाणभूत अने विद्वत्तापूर्ण अनुवादनी ऊणप वर्ताती हती. ते आ प्रकाशनथी पूर्ण थाय छे." हवे, आ अनुवाद केटलो 'प्रमाणभूत' अने “विद्वत्तापूर्ण' छे, तेना एक-बे नमूना :
१. मंगलश्लोकनी अलं. टीकामां जैनमतानुसार वाणीनुं स्वरूप दर्शावनारी पंक्ति छे : "उच्यत इति वाक, वर्णपदवाक्यादिभावेन भाषाद्रव्यपरिणतिः।" जैनमते, 'भाषाद्रव्य' तरीके ओळखातां विशिष्ट पुद्गलस्कन्धो ज वक्ताना प्रयत्नथी वर्णादिरूपे परिणमे छे अने 'वाणी' तरीके ओळखाय छे. तेथी आ पंक्तिनो अनुवाद आम थायः "जे बोलाय ते वाणी, (आ वाणी अटले बीजुं कशुं नहीं, पण) वर्ण, पद,वाक्य व. रूपे भाषाद्रव्य, परिणमन ज छे." हवे, डो. नान्दीओ करेलो अनुवाद : "जे बोलाय छे ते थई वाणी, जे वर्ण, पद (तथा ) वाक्य रूपे ('आदि' पदनुं शुं थयुं ?) भाषामा परिणमे छे." अमणे जो 'द्रव्य' शब्दने लक्षमां लीधो होत अने जैन परिभाषा तेमज परिपाटीने समजवानो उद्यम को होत तो आवी गम्भीर क्षति न थई होत.
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२. त्रीजा सूत्रमा उद्धृत श्लोको :
"शब्दप्राधान्यमाश्रित्य, तत्र शास्त्रं पृथग्विदुः । अर्थे तत्त्वेन युक्ते तु, वदन्त्याख्यानमेतयोः ॥
द्वयोर्गुणत्वे व्यापार-प्राधान्ये काव्यगीर्भवेत् ।" (हृदयदर्पण) आनो अर्थ आवो छ : "तेमां (-शास्त्रादिमां) शब्दना प्राधान्यने आश्रयीने (विद्वानो) शास्त्रने जुएं गणावे छे. (अने) अर्थ ज्यारे तत्त्वथीप्राधान्यथी युक्त थाय त्यारे (तेने) आख्यान कहे छे. (तेमज, शब्द अने अर्थ) आ बन्ने गौण थाय अने व्यापार मुख्य बने त्यारे काव्य सर्जाय छे."
__ हवे डो. नान्दीओ करेलो अनुवाद जोइओ : "शब्दना प्राधान्यना आश्रये रहेला शास्त्रने जुदुं कर्तुं छे. पण तत्त्वथी युक्त अर्थ होतां (तेने) आख्यान कहे छे...." वास्तवमां शब्दना प्राधान्यनो आश्रय शास्त्रने बीजां बेथी अलग पाडवा माटे लेवाय छे. नहीं के शास्त्र पोते शब्दना प्राधान्यना आश्रये रहे छे. 'तत्त्व'नो अर्थ पण अहीं तत्त्व नथी लेवानो, पण 'प्राधान्य' लेवानो छे; नहीं तो शास्त्रमा अर्थ अतत्त्वथी युक्त- तत्त्वरहित होय छे ओम मानवानी आपत्ति आवे. अनुवादनी आवी गम्भीर भूलो तो बीजी केटलीय हशे एवं ग्रन्थ- अवलोकन करतां जणाइ आवे छे. क्लिष्टता पण एटली छे के घणां बधां वाक्योने त्रण-चार वखत वांचीओ त्यारे भावार्थ तो ठीक, शब्दार्थ पण मांड खबर पडे.
हवे अेक नजर आ अनुवाद साथे आपवामां आवेली डो. नान्दीनी काव्यानुशासन अंगेनी विस्तृत भूमिका पर नांखीशुं. आ भूमिकामां डो. नान्दीओ श्रीहेमचन्द्राचार्यनी प्रतिभानु खण्डन करवानो शक्य वधुमां वधु प्रयत्न कर्यो छे. आचार्ये आ काव्यानुशासनमां शुं करवू जोइतुं हतुं अने शुं नहीं तेनी घणी घणी समालोचना करी छे. आचार्यने घणां घणां सलाह-सूचनो पण आप्यां छे. आ बधांनी तथ्यता चकासवा माटे आपणे ओक ज सूत्रने स्पर्शती वातो जोइशुं :
"मुख्याव्यतिरिक्तः प्रतीयमानो व्यङ्ग्यो ध्वनिः ॥ का.शा. १.१९ ॥"
आ सूत्र पर भूमिकामां तेओओ करेली टिप्पणी : "अहीं पण आपणने हेमचन्द्रनी शास्त्रीय निर्देशनी ऊणप साले छे. सूत्रमा ज्यारे तेमणे
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'मुख्याव्यतिरिक्तः' कहुं त्यारे ज तरत तेमने समजाइ गयुं हतुं ज के मुख्यथी जुदो तो गौण अने लक्ष्य पण छे ज. तेथी व्यंग्यना लक्षणमां 'मुख्याव्यतिरिक्तः' ओवी शब्दपसंदगी पर्याप्त नथी. आथी ज वृत्तिमां तेओ 'मुख्य, गौण अने लक्ष्यथी भिन्न' अवो शब्दप्रयोग करी सूत्रनी भूल सुधारे छे. पण आपणे नोंधीशुं के ओमणे सूत्रमा ज जो 'मुख्यादिव्यतिरिक्त' ओवो प्रयोग को होत तो ते वधु समीचीन जणात.'' (पृ. १९)
वास्तवमां अत्रे सूत्रमा ज 'मुख्य, गौण अने लक्ष्य -त्रणेथी भिन्न' अर्बु सूचवनारो 'मुख्याद्यतिरिक्तः' पाठ छे. परीखसाहेबवाळा काव्यानुशासनमां पण आ ज पाठ मुद्रित थयो छे. अने त्यां पाठान्तर तरीके पण 'मुख्याव्यतिरिक्तः' पाठ निर्दिष्ट नथी. आ पाठ तो डॉ. नान्दीना बेदरकारीभर्या वांचन- ज परिणाम छे, ते अभ्यासीने सहेजे समजाय तेम छे.
हजु आगळ तेओ लखे छे : "वळी तेमणे 'प्रतीतिविषय' अवो प्रयोग को छे, ते पण मारी दृष्टिले अपूरतो छे. आचार्ये 'व्यञ्जनया प्रतीतिविषयो यः भवति' ओवी स्पष्टता करवी जरूरी हती. केमके, प्रतीयमान थता अर्थनी प्रतीति, महिमाले काव्यानुमितिथी, तो कुन्तके विचित्र अभिधाथी, तो मुकुले लक्षणाथी, तो धनंजय/धनिके तात्पर्यथी मानी छे. तेथी व्यंजना द्वारा प्रतीत थतो अवो चोख्खो आनन्दवर्धन-अभिनवगुप्त-मम्मटाचार्यनो मत जे तेमने स्वीकार्य छे तेनो स्पष्ट निर्देश थवो जरूरी हतो."
हवे, आचार्ये आना पछीना ज "मुख्याद्यास्तच्छक्तयः ॥ १.२०॥" सूत्र अने तेनी वृत्तिमां, फक्त व्यंग्य अर्थ माटे नहीं पण मुख्यादि चारे अर्थ कई रीते जणाय, ते जणावनारी शक्तिओ कई वगेरे तमाम स्पष्टता करी ज छे. पण भूमिकालेखक ते लक्षमां लेवानुं चूकी गया जणाय छे !
पण आटलेथी ज तेओ नहीं अटकतां आचार्यश्री- शास्त्रज्ञान अधूरुं हतुं तेवा आशयपूर्वक नोंधे छे : "वळी, 'व्यङ्ग्यो ध्वनिः' ओवो प्रयोग पण अशास्त्रीय छे. केमके, प्रधानरूपे व्यंग्य थतो अर्थ ज ध्वनि नाम पामे छे. अन्यथा ते गुणीभूतव्यंग्य पण बनी शके छे. आथी अहीं पण शास्त्रीय परिभाषानी चोक्साई सचवाइ नथी."
वास्तवमा अहीं आचार्यनो कोई दोष नथी. मम्मटाचार्य वगेरेना मते
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व्यंग्य अर्थ धरावतुं काव्य ज ध्वनि कहेवाय छे;* जो काव्यमांथी नीकळतो व्यंग्य अर्थ, काव्यना वाच्यार्थनी अपेक्षाओ वधारे चमत्कृतिसभर होय तो. अने जो काव्यना पोताना वाच्य अर्थ करतां व्यंग्य अर्थ नबळो होय, तो ओ व्यंग्य अर्थ 'गौण' गणाय छे. अने ओवो गौण व्यंग्य अर्थ धरावतुं काव्य 'ध्वनिकाव्य' नथी गणातुं. परन्तु जो व्यंग्यार्थ, वाच्यार्थ करतां सबळ होय, तो ओ व्यंग्यार्थ 'प्रधान' लेखाय छे, अने अर्बु प्रधानीभूत व्यंग्यार्थ धरावतुं काव्य 'ध्वनिकाव्य' कहेवाय छे. आ थइ काव्यने ज ध्वनि तरीके ओळखनारी साहित्याचार्योनी परम्पराने सम्मत व्यवस्था.
आथी जुदा पडीने, आचार्य पोते व्यंग्य अर्थने ज ध्वनि मानवाना पक्षमा छे.' आ पक्षमां व्यंग्यना मुख्य अने गौण –अवा भेद ज नथी पाडता, माटे तमाम व्यंग्यार्थ 'ध्वनि' कहेवाय छे. अने आचार्ये ते प्रमाणे ज निरूपण कर्यु छे. भूमिकालेखक नथी मम्मटाचार्यना मतना हार्दने बराबर पकडी शक्या, के नथी बे परम्परा वच्चेना भेदने पकडी शक्या अने उपरथी हेमचन्द्राचार्यने शास्त्रज्ञान नहोतुं ओम कहे छे !
आ तो अक-बे उदाहरणो दर्शाव्यां छे. समग्र भूमिकानो विगते-निरांते अभ्यास करवामां आवे तो आवां अनेक स्थळो मळी आवे के जेमां डो. नान्दीओ अयोग्य रीते हेमचन्द्राचार्यनी साहित्यशास्त्र लखवानी सज्जता सामे सवाल उठाव्या होय. समग्रपणे आ अनुवाद-ग्रन्थ विषे विचारतां अवू लागे छे के आ अनुवाद काव्यानुशासननी उपादेयता वधारवा माटे नहीं, पण आचार्यनी आ ग्रन्थ माटेनी अयोग्यताने दर्शाववा खातर ज करवामां आव्यो छे. अने आचार्यश्रीनी प्रतिभानु खण्डन करतां तेमज अनुवादनी अनेक गम्भीर भूलोथी भरेला आ ग्रन्थ माटे, ग्रन्थमाळाना प्रधान सम्पादक डो. नान्दीनो ऋणस्वीकार करे छे अने पोतानी ग्रन्थश्रेणीमा प्रकाशित करतां गौरव अनुभवे छे; तेनाथी अटलुं ज स्पष्ट थाय छे के प्रधान सम्पादके आ भूमिका अने अनुवाद- प्रकाशन करतां अगाउ तेने जोइ जवानी जवाबदारीनो निर्वाह कर्यो नथी.
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ★ इदमुत्तममतिशयिनि व्यङ्ग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधैः कथितः ॥४॥ ___ अतादृशि गुणीभूतव्यङ्ग्यं व्यङ्ग्ये तु मध्यमम् । (काव्यप्रकाश) + स च (-व्यङ्ग्योऽर्थः) ध्वन्यते-द्योत्यते इति ध्वनिरिति पूर्वाचायः सञ्जित:-का.शा.१.१९ टीका
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सन्मतितर्क - गाथा १.४१ना तात्पर्य विशे विचारणा
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण, सवियप्पो निम्वियप्पो य ॥ सन्मति. - १.४१ (एवं सप्तविकल्पो, वचनपथो भवत्यर्थपर्याये । व्यञ्जनपर्याये पुनः, सविकल्पो निर्विकल्पश्च ॥)
सन्मतितर्कमां सप्तभंगीनी प्ररूपणा पछी मूकायेली उपर्युल्लिखित गाथा, सप्तभंगीमां नयनी योजना दर्शावता शास्त्रपाठ तरीके सुप्रसिद्ध छे अने जैनन्यायने सम्बन्धित अनेक ग्रन्थोमां ओ उद्धृत थयेली जोवा मळे छे. आ गाथानो शब्दार्थ आवो थाय छे : "आ प्रमाणे (-पूर्वेनी गाथाओमां देखाड्या मुजब) सात विकल्प धरावतो वचनमार्ग अर्थपर्यायमां थाय छे. व्यंजनपर्यायमां तो सविकल्प अने निर्विकल्प वचनमार्ग छे." आम, आ गाथानो शब्दार्थ तो तद्दन सरळ छे, पण जे शब्दो पाछळनुं तात्पर्य पकडवू अटलुं ज अघरुं छे.
__ आ गाथाना तात्पर्य विशे सौप्रथम छणावट आपणने सन्मतितर्क परनी वादमहार्णव टीका (-श्रीअभयदेवसरिजीकृत)मां जोवा मळे छे. त्यार पछीनां आ गाथा परनां तमाम विवरणो प्रायः टीकाने ज अनुसरे छे. एकमात्र उपा. श्रीयशोविजयजीओ अनेकान्तव्यवस्था अने द्रव्यगुणपर्यायरासस्तबकमां आ गाथा विशे थोडीक नवी वातो रजू करी छे. अने ते उपरान्त, श्रीअभयशेखरसूरिजीओ सप्तभंगीविशिका, द्रव्यगुणपर्यायरास-विवेचन व. ग्रन्थोमां आ गाथा विशे मौलिक विचारणा दर्शावी छे. वळी, पं. श्रीसुखलालजीओ पण सन्मतितर्क-अनुवादमां आ गाथाना तात्पर्य अंगे अक नवी ज दिशा चींधी छे. अत्रे आ तमाम रजूआतो, ते पाछळना आशयो, तेओनी परस्पर भिन्नता, मूळग्रन्थना सन्दर्भे तेओनी युक्तता व. विशे विचारवानो उपक्रम छे.
आ गाथाना तात्पर्य विशे विचारवा माटे, सप्तभंगी अटले शुं? ते विशे थोडंक समजी लेवु जरूरी छे. सप्तभंगी ओ जैन पारिभाषिक शब्द छे अने तेनो अर्थ 'धर्मीमां धर्मना आपेक्षिक अस्तित्वनो परिपूर्ण बोध करावनार
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सात वाक्यो' ओवो थाय छे. भाव से छे के कोई पण धर्म ( - पर्याय), धर्मी (- द्रव्य, आत्मा जेवां मूळभूत द्रव्य के घडा जेवां आदिष्ट' द्रव्य) मां चोक्कस देश - कालादिनी अपेक्षाओ ज अस्तित्व धरावतो होय छे, ते सिवायनी अपेक्षाओ नहीं. हवे जो आपणे से अपेक्षा देखाड्या वगर ज, ते धर्मना धर्मीगत अस्तित्वनुं प्रतिपादन करीओ, तो अ प्रतिपादन अपूर्ण के विपरीत बोध जन्मावतुं होवाथी अमान्य ज गणाय. तेथी आपणे वास्तविक बोध कराववा माटे, जे अपेक्षाओ से धर्म धर्मीमां छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ते बंने जणाववा ज रह्या. धर्मना आ आपेक्षिक अस्तित्व - नास्तित्वनुं प्रतिपादन अ ज सप्तभंगीना अनुक्रमे प्रथम बे- पहेलो अने बीजो भांगा छे.
आ पहेला बे भांगानो बोध थाय ओटले तरत प्रश्न उपस्थित थाय - धर्म जे अपेक्षाओ धर्मीमां छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ओ बन्ने अपेक्षाओनुं अक साथे ग्रहण करीओ तो त्यारे धर्म विशे शुं समजवुं ? आ प्रश्नना उत्तरमां अवक्तव्य ओम ज कहेवुं पडे. कारण के, बन्ने अपेक्षाओ धर्मनुं जे अस्तित्वनास्तित्व उभयनां संमीलनरूप ओक विशिष्ट स्वरूप सर्जाय छे, तेने आपणे बुद्धिथी समजी तो शकीओ, पण शब्दथी तेने वर्णववानुं शक्य नथी ज, तेथी तेने शब्दातीत- अवक्तव्य ज कहेवुं पडे. आ अवक्तव्यनो प्रतिपादक त्रीजो भांगो छे. २
आ त्रण भांगामांथी बे-बेना संमिश्रणथी चोथाथी छठ्ठा सुधीना बीजा त्रण भांगा सर्जाय छे. आ भांगा पहेला त्रण भांगाना संयोगात्मक होवा छतां ओमनाथी कथंचिद् भिन्न पण छे. गोळ अने दहीं साथे खाईओ तो ओ बन्नेना पोतपोताना स्वाद उपरान्त जेम ओक विलक्षण स्वाद अनुभवाय छे, तेम ज
१. घडो ঔ वास्तवमां पुद्गलास्तिकायनो पर्याय छे, छतां ओनो पण द्रव्य तरीके व्यवहार थाय छे, तेथी आदिष्टद्रव्य कहेवाय छे.
२. सप्तभंगीमां त्रीजो भांगो 'स्यादस्त्येव स्यान्नाऽस्त्येव च' ओम पहेला बे भांगाना संयोजनरूप होय, अने चोथो भांगो अवक्तव्यनो होय - ओवी पण ओक परम्परा छे. पण सन्मतितर्ककार, तत्त्वार्थटीकाकार श्रीसिद्धसेनगणि व. अवक्तव्यने ज त्रीजा भांगाथी प्रतिपाद्य गणता होवाथी, अहीं बधे 'स्यादवक्तव्य एव'ने ज त्रीजो भांगो गणाव्यो छे. आ बे परम्परानी भिन्नता सकलादेश-विकलादेशनी भिन्न भिन्न विभावनाने आभारी छे, ते समजवा माटे जुओ सप्तभंगीप्रभा - पृ. ६४-७५
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अहीं पण समजवानुं छे. सातमो भांगो त्रणे मूलभूत भांगाना संयोजनरूप छे. आ साते भांगा ओकठा थाय अटले सर्जातुं महावाक्य, परिपूर्ण बोध करावतुं होवाथी, प्रमाणवाक्य गणाय छे.
उदाहरण साथे आ वात जोइओ तो– 'घडो लाल छे ?' ओम कोई पूछे अने जवाबमां फक्त हा पाडवामां आवे, तो अनाथी व्यक्तिने थतो घडामां सर्वथा रक्तत्वनो बोध अप्रामाणिक ज छे, कारण के घडो फक्त बहारथी लाल छे, अंदरथी नहीं. तेथी आम कहेवू जोइओ- घडो बहारथी लाल छे (स्याद् घटो रक्त एव, स्याद् = अपेक्षाओ, प्रस्तुत सन्दर्भमां बहारना भागे),पण अंदरथी लाल नथी (स्याद् घटोऽरक्त एव). आ ज सप्तभंगीना पहेला बे भांगा छे. पण बहारथी अने अंदरथी अकसाथे जोइओ तो घडो लाल छे पण खरो, अने नथी पण. तेथी कहेवू पडे के ते रीते घडानुं स्वरूप कहेवानुं शक्य नथी.१ (स्याद् घटोऽवक्तव्य एव) आ त्रीजा भांगा द्वारा प्रतिपादित थती अवक्तव्यता घडामां रक्तत्वना अस्तित्व-नास्तित्व उभयने आश्रित छे. आ त्रण भांगाना संयोजन द्वारा बाकीना भांगा आम सर्जाशे : स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽरक्तश्चैव, स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव, स्याद् घटोऽरक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव, स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽरक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव।
हवे आपणे वादमहार्णवटीकामां दर्शावायेला, आ गाथाना, बे अर्थो जोइशं. पण ओ जोतां पहेलां टीकाकारने सम्मत केटलाक शब्दार्थो समजी लेवा जरूरी छे. - (१) अर्थपर्याय - अर्थना ग्राहक संग्रह, व्यवहार अने ऋजुसूत्र ओ त्रण अर्थनयो. 'अर्थगताः पर्याया अस्तित्वनास्तित्वादयो विषया यस्य सोऽर्थपर्यायः' आवी कोइक 'अर्थपर्याय' शब्दनी व्युत्पत्ति तेओना मनमा होइ १. प्रश्न थाय के 'स्याद्- ओक साथे उभय अपेक्षाओ(-बहारथी अने अंदरथी) घटो- घडो रक्तोऽरक्तश्चैव- लाल छे पण अने लाल नथी पण अम केम न कहेवाय ? पण अनो जवाब ओ छे के आम कहेवामां 'बहारथी लाल छे अने लाल नहीं तेमज अंदरथी लाल छे अने लाल नहीं' ओम साबित थाय, जे अवास्तविक छे. आने बदले जो ओम कहेवा जइओ के 'घडो बहारथी लाल छे अने अंदरथी लाल नथी,' तो ओ चोथो भांगो थइ जाय छे. माटे ओक साथे उभयअपेक्षाओ घडानुं जे रक्त-अरक्त स्वरूप छे, तेने वर्णवq शक्य न होवाथी घडाने अवक्तव्य ज कहेवो पडे.
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शके. (२) व्यंजनपर्याय- साम्प्रत, समभिरूढ अने अवम्भूत ओ त्रण शब्दनयो. 'जेनाथी अर्थ व्यक्त थाय ते व्यंजन अटले शब्द. तेना पर्यायो अटले तेमां रहेली वाचकता. शब्दनयो आ वाचकता- व्यंजननिष्ठपर्यायनो विचार करता होवाथी व्यंजनपर्याय कहेवाय' आवी कोइक समजण आवो अर्थ देखाडवा पाछळ होइ शके. (३) सविकल्प- आना बे अर्थ तेओओ देखाड्या छ- १. विकल्पोनो सद्भाव अने २. सामान्य- जाति. ओक सामान्यने आश्रयीने जुदा जुदा घणा विकल्पो- विशेषो संभवी शकता होवाथी, सामान्य पण सविकल्प कहेवाय छे. (४) निर्विकल्प- आना पण बे अर्थ देखाडवामां आव्या छे. - १.विकल्पोनो अभाव अने २. विशेष. विशेषना कोई विकल्प- विशेष संभवता न होवाथी, विशेष पण निर्विकल्प गणाय छे. विशेषने निविकल्प तरीके ओळखावनारी 'सामान्यस्वरूपमांथी निर्गत विकल्प- विशिष्टपर्याय ते निर्विकल्प' आवी व्युत्पत्ति पण संभवे छे.
सविकल्प अने निर्विकल्पना अकने बदले बे अर्थ शब्दनयोना विशिष्ट स्वरूपने आभारी छे. शब्दनयोमा पहेलो साम्प्रतनय लिंग, कारक, काल वगेरे भेदे अर्थभेद माने छे, पण संज्ञाभेदे नहीं. मतलब के तेना माटे 'घटः' कहो अने 'घटम्' कहो, त्यारे अनुक्रमे कर्ताकारक अने कर्मकारक तरीके उपस्थित थती घटव्यक्ति जुदीजुदी छे; परन्तु 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो के 'कलशः' कहो, त्यारे ओ त्रणे शब्दथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज छे.१
१. अेक प्रश्न अवश्य जागे के जो साम्प्रतनयमते संज्ञा ओक ज होवा छतां, लिंग, कारक वगेरे
जेवी सामान्य बाबत पण अर्थभेदक बनती होय; तो खुद संज्ञानु ज जुदापणुं अर्थभेदक केम नहीं ? आ प्रश्ननो जवाब आपणने नयरहस्यमांथी सांपडे तेम छे. त्यां उपाध्यायजीओ साम्प्रतनयनी मान्यतानो अभिप्राय ओ जणाव्यो छे के जे धर्मोनो अभेदान्वय शक्य नथी ते धर्मोने परस्पर भिन्न ज समजवा पडे अने ओ भिन्न धर्मो पोताना धर्मीने भिन्न बनावे ज. आनो मतलब ओ समजी शकाय के जेम पुरुषत्व अने स्त्रीत्वनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने तेना धर्मीओ परस्पर भिन्न छे; तेम कर्तृत्व अने कर्मत्वनो पण ओक साथे अेक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने ते धरावनार घटव्यक्तिओ जुदी ज गणवी पडे. परन्तु घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व -आ बधा धर्मोनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य होवाथी ओ धर्मो पोताना आश्रयभूत धर्मीना भेदक बनता नथी. तेथी 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो, ओ बन्ने पदथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज रहे छे.
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बीजो समभिरूढ नय संज्ञाभेदे पण ते ते पदथी वाच्य पदार्थोने जुदा गणे छे. अर्थात् तेना मते 'घटः' अने 'कुम्भः' पदथी उपस्थित थती व्यक्ति जुदी-जुदी छे. दरेक शब्दनी व्युत्पत्ति जुदी होय छे अने पदथी थतो बोध पण जे व्युत्पत्तिने अनुसरीने जुदो-जुदो थाय छे अवो आ नयनो अभिप्राय छे.१
शब्दनयोमां त्रीजो अवम्भूत नय तो अत्यन्त सूक्ष्मग्राही होवाथी अवस्थाभेदे पण वाच्यतानो भेद गणे छे. मतलब के तेना मते तो पदार्थना वाचक तरीके जे शब्दो स्वीकृत छे, ते शब्दोथी ते पदार्थ खरेखर त्यारे ज वाच्य बने छे, ज्यारे ओ शब्दोनी व्युत्पत्तिमां जे क्रिया समायेली छे ते क्रिया ते पदार्थमां वर्तमान होय, ओ सिवाय नहीं. आनो अर्थ ओ थाय के इन्द्रने त्यारे ज 'इन्द्रः' कहेवाय के ज्यारे 'इन्द्र' शब्दनी व्युत्पत्तिमां समायेली इन्दनक्रियाऔश्वर्यनो अनुभव ओ करतो होय. ज्यारे ओ देवसभामां बिराजमान थइने पोताना औश्वर्यनो अनुभव नथी करी रह्यो, त्यारे अने अन्य कंइ पण कहो, इन्द्र तो नहीं ज कहेवाय. ढूंकमां, अेक पदार्थनी (दा.त. इन्द्र तरीके ओळखाती व्यक्तिनी) अवस्था बदलाय तेम ते पदार्थनिष्ठ वाच्यता पण बदलाय अवो आ नयनो अभिप्राय छे.२ १. आनुं तात्पर्य ओम समजाय छे के जे शब्दोने आपणे पर्यायवाची गणीओ छीओ, ते शब्दोनी
अर्थछायामां वास्तवमा सूक्ष्म तफावत होय छे ज. आ नय सूक्ष्मग्राही होवाथी आ सूक्ष्म तफावतने पण पकडे छे, अने तेथी चोक्कस सन्दर्भे चोक्कस शब्दोनो प्रयोग अने ते शब्दोथी चोक्कस पदार्थोनो बोध स्वीकारे छे. आपणे व्यवहारमा पण पर्यायवाची शब्दोने सन्दर्भ अनुसार ज प्रयोजीओ छीओ. जेमके 'नेत्र' अने 'डोळा' बंने शब्दो चक्षुवाची होवा छतां 'तारा डोळा सुन्दर छे' के 'नेत्रो केम काढे छे ?' अवां वाक्यो आपणे नथी ज बोलता. २. द्रव्यमा जे पर्याय वर्तमान होय, ओ ज पर्यायनी मुख्यताओ द्रव्यने जणावq ओ भावनिक्षेप
गणाय छे. अने से पर्यायनी अतीत के अनागत अवस्थामां पण द्रव्यनो ते पर्यायनी मुख्यताओ व्यवहार ते द्रव्यनिक्षेप छे. अवम्भूत नय अतिशुद्ध होवाथी फक्त भावनिक्षेपने ज स्वीकारे छे अने तेथी वर्तमान पर्यायनी मुख्यताओ ज द्रव्यनु कथन करवानुं तेमज शब्दथी तद्वाच्य पर्यायथी विशिष्ट द्रव्यनो ज बोध करवायूँ कहे छे. आपणे व्यवहारमा पण जोइ शकीशु के 'ओक राजा हतो' ओम सांभळीओ अटले तरत घरेणां अने वस्त्राभूषणोथी लदायेली प्रतापी व्यक्ति चित्र आपणा मनमां ऊभुं थाय छे, 'निशाळ' शब्द सांभळता साथे ज जेमा विद्यार्थीओ भणी रह्या छे, शिक्षक भणावे छे एवं मकान नजर सामे तरवा लागे छे. आ वात सूचवे छे के पदथी थता पदार्थना बोधमां
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शब्दनयोना आ स्वरूपने बराबर समजी लइओ तो सविकल्प अने निर्विकल्पना बे अर्थ करवानुं कारण आपोआप समजाशे. शब्द अने अर्थबन्ने वच्चे वाचक-वाच्यभाव सम्बन्ध छे. शब्दमां वाचकता रहे छे अने अर्थ ते वाचकताथी निरूपित वाच्यता धरावे छे. आपणे जो आ बेमांथी वाच्यताने अनुलक्षीने विचारीओ तो अेक पदार्थनिष्ठ वाच्यताना साम्प्रतनयमते अनेक विकल्पो सम्भवे छे, कारण के तेना मते पर्यायवाची शब्दोथी जणाती व्यक्ति ओक ज छे. जेमके घडामां घटपदवाच्यता पण छे अने कुम्भपदवाच्यता, कलशपदवाच्यता वगेरे पण छे. पण समभिरूढ अने ओवम्भूत नयोना मते ओक पदार्थनिष्ठ वाच्यतामां विकल्पोनो सद्भाव नथी, कारण के आ नयो संज्ञाभेदे अर्थभेद मानता होवाथी, ओ नयोना मते अेक पदार्थ बे शब्दोथी वाच्य होय ते सम्भवित ज नथी. आम, ओक पदार्थनिष्ठ वाच्यताना उपलक्ष्ये साम्प्रतनयमां सविकल्प- विकल्पोवाळो वचनमार्ग छे, ज्यारे समभिरूढ-अवम्भूतमां निर्विकल्प- विकल्पो वगरनो वचनमार्ग छे.
हवे, जो आपणे ओक-अर्थनिष्ठ वाच्यताने नहीं, पण ओक-शब्दनिष्ठ वाचकताने लक्ष्यमां राखीने विचारीओ तो, साम्प्रतनय अने समभिरूढनयना मते वाचकता सामान्यने आश्रित छे; कारण के साम्प्रतनय घटशब्दना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके घटत्वजातिने पकडे छे के जे कुम्भ, कलश वगेरे अनेक शब्दोना प्रवृत्तिनिमित्तभूत' छे अने घटनी अनेक अवस्थाओमा अनुगत छे. अ ज रीते पदार्थनी विशिष्ट अवस्था पण संकळायेली होय छे. अवम्भूत नय आ वातने मुख्य गणी पदथी थतो पदार्थनो बोध ते पदथी सूचवाती विशिष्ट अवस्था साथे ज स्वीकारे छे. आ ज वातने जुदी रीते जोइओ तो तेनो मतलब ओ थाय के विशिष्ट अवस्था धरावतो पदार्थ ज ते विशिष्ट अवस्था सूचवनार पदथी वाच्य छे. अवम्भूत नयनी शास्त्रीय प्ररूपणा आ जुदी रीते जणातां मतलबने
ज अनुसरे छे. १. अहीं प्रश्न थइ शके के कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनी प्रवृत्तिमां घटत्वजाति कई रीते निमित्त
बने ? कुम्भत्व, कलशत्व केम नहीं ? आनुं समाधान ओ ज छे के घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व वगेरे शब्दो ओक विशिष्ट स्वरूप ज सूचवे छे के जे सकल घटव्यक्तिमां वर्तमान छे. आ स्वरूप ज घट, कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनुं प्रवृत्तिनिमित्त छे. पण आ स्वरुपने बीजा कोई शब्दोथी ओळखावतुं शक्य न होवाथी; घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व वगेरे शब्दोथी ओळखाववामां आवे छे. तेमां पण घटत्व अने कुम्भत्व-कलशत्व जुदी वस्तु छे ओवो व्यामोह न थाय अटले घटत्वने ज कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनुं प्रवृत्तिनिमित्त समजाववामां आवे छे. 'व्यक्तेरभेदो जातिबाधकः' आवो जे न्यायदर्शननो नियम छे तेनुं तात्पर्य पण उपरोक्त ज छे.
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समभिरूढ पण घटशब्दना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके १जलधारणयोग्यताने ज ग्रहण करे छे के जे, पाणी धारण करवू, धारण न करवू जेवी घटनी अनेक अवस्थाओमां अनुगत होवाथी सामान्यधर्म ज छे. परन्तु अवम्भूतनयमते शब्दनिष्ठ वाचकता विशेषने आश्रित छे, कारण के ते घटपदना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके जलधारणक्रियारूप विशेषने ज पकडे छे, ते सिवाय तेना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके तेने बीजो कोई विकल्प मान्य नथी. आम, वाचकताने अनुलक्षीने साम्प्रत अने समभिरूढमां सविकल्प- सामान्याश्रित वचनव्यवहार छे, ज्यारे ओवम्भूतमां निर्विकल्प- विशेषाश्रित वचनमार्ग छे. सामान्य अनेक विकल्पोनु समावेशक होवाथी सविकल्प पण कहेवाय छे अने विशेषमां कोई विकल्प सम्भवता न होवाथी ते निविकल्प तरीके पण ओळखाय छे, ते वात आपणे अगाउ जोई गया छीओ.
आम, वाच्यता अने वाचकताने अनुलक्षीने सविकल्प-निर्विकल्पना अर्थो बदलाय छे. अने तेमां पण साम्प्रतनयनो वचनमार्ग बन्ने वखत सविकल्प, ओवम्भूतनो बन्ने वखत निर्विकल्प अने समभिरूढनो वाच्यता वखते निर्विकल्प अने वाचकता वखते सविकल्प बने छे.
हवे टीकामां देखाडेला आ गाथाना अर्थो जोइओ : टीकामां आ गाथाउत्थान ओ विचारभूमिकामांथी देखाडवामां आव्युं छे के 'सप्तभंगीना मूल आधार तो द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक नयो ज छे, मतलब के आ नयोना उत्तरभेदो ज ते ते भांगानी प्रवृत्तिमां निमित्त छे. पण कया नयोमां कया भांगा समजवा'-आ अंगेनी विचारभूमिका ओक ज होवा छतां टीकामां गाथाना बे विभिन्न अर्थो देखाडवामां आव्या छे. जोके अहीं ओक वात खास ध्यानमां राखवानी छे के बन्ने अर्थो वखते गाथाना पूर्वार्धनो अर्थ तो सरखो ज रहे छे; कारण के टीका मुजब पूर्वार्ध अर्थनयोने अनुलक्षीने छे. अने अर्थनयो तो अर्थगत धर्मोने ज लक्ष्यमां ले छे. आ अर्थगत धर्मो आपेक्षिक ज सम्भवता होवाथी, तेमनी ओ आपेक्षिकताने सूचवनारो पूर्णबोध सप्तभंगीमां ज पर्यवसित
१. समभिरूढनयमते घडो जलधारण न करतो होय त्यारे पण घटशब्दथी वाच्य बने छे. तेथी
ते जलधारणक्रियाने नहीं, पण तेवी क्रियाने करवानी क्षमताने ज प्रवृत्तिनिमित्त गणे छे तेम समजवू जोइओ.
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थाय छे. ते सिवाय तेमां कोई ज विकल्प सम्भवित न होवाथी, पूर्वार्धनो 'अर्थनयोने आश्रयीने थती विचारणामां सात विकल्पोवाळो वचनपथ रचाय छे' आ ओक ज अर्थ सम्भवे छे.
प्रश्न ओ रहे के कया अर्थनयने आश्रयी कयो भांगो सर्जाय ? टीकामां आनो खुलासो आम करवामां आव्यो छे : संग्रहनय तमाम स्थळे सत्ताअस्तित्व- ज दर्शन करे छे, माटे अस्तित्वनो प्रतिपादक प्रथम भांगो संग्रहनयने आश्रयीने रचाय छे. व्यवहारनय विशेषोनो ग्राहक छे अने कोई पण धर्मने विशेषथी- सूक्ष्मताथी जोवा जइओ तो आपेक्षिक नास्तित्व पकडाय. माटे बीजो भांगो व्यवहारनयने आधारे रचाय छे. त्रीजो अवक्तव्यभांगो ऋजुसूत्रने आभारी छे, कारण के सामान्य अने विशेष बन्नेनुं अकसाथे ग्रहण ऋजुसूत्रमा ज सम्भवे छे.१ आ त्रण भांगाना संयोजनात्मक अन्य चार भांगा पण मूळ भांगाना पोषक ते ते नयोना संयोजनथी सर्जाय छे. आम अर्थनयोने आश्रित अर्थगत धर्मोनी विचारणामां सप्तभंगी रचाती होवानुं निश्चित होवाथी आ गाथाना पूर्वार्धनो टीकामां ओक ज अर्थ देखाडवामां आव्यो छे : "एवं- पूर्वे देखाड्यो ते रीते सत्तविअप्पो- सात भांगावाळो वयणपहो- वचनमार्ग होइ- थाय छे अत्थपज्जाएअर्थनयोने आश्रित विचारणामां."
___ परन्तु, आ गाथानो उत्तरार्ध के जेने टीकाकार शब्दनयोने आश्रित विचारणापरक माने छे, तेना बे अर्थो तेओओ दर्शाव्या छे; जेमां पहेली वखते ओक अर्थमां वर्तती वाच्यता अने बीजी वखते ओक शब्दनिष्ठ वाचकताने केन्द्रमा राखवामां आवी छे. हवे, आपणे जो वाच्यताने लक्ष्यमां लइओ तो ओ पण आपेक्षिक धर्म होवाथी (जेमके घडो संस्कृत वगेरे भाषाओनी अपेक्षाओ घटपदवाच्य छे, पण अंग्रेजी वगेरे भाषाओनी अपेक्षाओ घडामां घटपदवाच्यता नथी) अमां पण उपरोक्त रीते सप्तभंगी रचावानी ज. पण टीकाकार भगवन्ते 'सविकल्प' अने 'निर्विकल्प' शब्दोने संगत करवा, शब्दनिरूपित वाच्यतामां, अनी आपेक्षिकताने अनुलक्षीने सप्तभंगी न घटावतां, बहु ज विशिष्ट रीते सप्तभंगी घटावी छे : साम्प्रतनयना मते घडो घट, कुम्भ, कलश व. घणा
१. त्रीजो भांगो ऋजुसूत्रथी ज केम रचाय ? तेना वधु खुलासा माटे जुओ अनेकान्तव्यवस्थागत
प्रस्तुत गाथार्नु विवरण. (पृ. २४७-२५०)
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शब्दोथी वाच्य छे, ज्यारे समभिरूढ अने अवम्भूतना मते फक्त घट-शब्दथी ज वाच्य छे. माटे साम्प्रतमां घडानो व्यवहार सविकल्प छे, ज्यारे बीजा बे नयो माटे कोई विकल्प सम्भवित नहीं होवाथी घडानो व्यवहार निर्विकल्प छे.आने अनुसरीने पहेला बे भांगा आम रचाशे : 'स्याद् घटो घटवाचकयावच्छब्दवाच्योऽस्त्येव, स्याद् घटो घटवाचकयावच्छब्दवाच्यो नाऽस्त्येव ।
वाच्यताने अनुलक्षीने टीकाकारना मते त्रीजो भांगो आम सर्जाशे : साम्प्रतनयमते पुंल्लिंग 'दाराः' नपुंसकलिंग 'कलत्रम्' अने स्त्रीलिंग ‘पत्नी' शब्दथी उपस्थित थती व्यक्तिओ जुदी-जुदी छे. हवे आ विभिन्न व्यक्तिओ, के जे वास्तवमां तो एक ज छे, ते व्यक्तिओनो वाचक ओक शब्द कयो ? ओम पूछवामां आवे; तो साम्प्रतनय, भिन्नलिंगक शब्दोथी सूचवाती व्यक्तिओ कदी पण अक शब्दथी न सूचवाय तेवू स्वीकारतो होवाथी, अना मते तो तेवो शब्द संभवित ज नथी बनतो. अने तेने लीधे भिन्नलिंगक शब्दोथी वाच्य ओक व्यक्ति तेना माटे शब्दातीत थइ जवाथी (अथवा वधु साचं कही तो संभवती ज न होवाथी) अवक्तव्यभांगो रचाशे. आज रीते समभिरूढना मते भिन्नसंज्ञक व्यक्तिओनो वाचक ओक शब्द न होवाथी अने अवम्भूतना मते भिन्नक्रिया धरावती व्यक्तिओने उपस्थित करनार ओक शब्द न होवाथी ओ नयोना मते पण ते वास्तविक रीते अेक व्यक्तिने विशे अवक्तव्य भांगो रचाय छे. आ त्रण मूलभांगाना संयोजनने लीधे सर्जाता अन्य ४ भांगा ते ते नयोना संयोजनने आभारी छे ते स्वयं समजी शकाय तेम छे.
उपर दर्शावेली शब्दनयोने आश्रित सप्तभंगी अर्थनिष्ठ अने शब्दनिरूपित ओवी वाच्यताने अनुलक्षीने छे, परन्तु शब्दनयने आश्रित भंगविचारणा वखते खरेखर तो शब्दनिष्ठ वाचकताने ज ध्यानमां लेवी जोइओ तेम, अर्थनय अने शब्दनयनी मूळभूत विभावनाने जोतां स्पष्ट समजाय छे. कारण के अर्थ (-द्रव्य के पर्याय)ने विषय बनावनारो वक्तानो अभिप्राय ज अर्थनयनो विषय छे. आ अभिप्राय अर्थने ज प्राधान्य आपे छे, कारण के ते स्वयं अर्थथी
१. घडो साम्प्रतनयनी अपेक्षाओ घटवाचक घट, कुम्भ वगेरे तमाम शब्दोथी वाच्य छे ज,
अवम्भूत अने समभिरूढनी अपेक्षाओ नथी ज - आवो आ भांगाओनो भावार्थ छे.
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उत्पन्न छे. शब्द तो अना माटे उत्पाद्य होवाथी गौण छे. ओथी उलटं, श्रोताने शब्दश्रवणथी जे प्रत्यय जन्मे छे ते शब्दनयनो विषय छे के जे पोताना उत्पादक शब्दने ज प्रधान गणे छे, पोतानाथी उत्पाद्य ओवा अर्थने नहीं. मतलब के श्रोताने शब्द सांभळीने जे बोध उत्पन्न थशे, ते केवो हशे ? केटली मात्रानो हशे ? ओ विशे विचारणाना प्रकारो ते शब्दनय छे. अने तेथी शब्दनयाश्रित विचारणा वखते शब्दथी थता बोधना कारणभूत शब्दनिष्ठ वाचकताने ज ध्यानमां लेवी जोइओ, नहीं के अर्थनिष्ठ वाच्यताने ते सुस्पष्ट छे.
हवे आपणे शब्दनिष्ठ वाचकताने अनुलक्षीने विचारीशुं तो तेमां (-शब्दथी जन्य बोधमां) बे ज विकल्पोनो सम्भव छे, तेथी वधारे नहीं. केमके शब्दश्रवण पछी शब्दथी सूचवाता सामान्यने पकडी ओ सामान्यधर्म धरावता पदार्थनो बोध करीओ अथवा शब्दथी दर्शावाता विशेषने पकडी ओ विशेषथी विशिष्टनो ज बोध करीओ ओम बे ज मार्ग छे. आ सिवाय त्रीजो कोई विकल्प कल्पी पण शकातो नथी.२ अने जो त्रीजो विकल्प न होय तो तेनो प्रतिपादक भंग पण न होय तेथी बे ज भांगा बने छे. आमां जे सामान्य बोध छे, ते साम्प्रत अने समभिरूढना मते सम्भवे छे, कारण के तेओ, घटत्व के जलधारणयोग्यता जेवा सामान्य धर्मोथी विशिष्ट व्यक्ति, शब्दथी सूचवाय छे, तेम माने छे.३ ज्यारे जे विशेषबोध छे, ते अवम्भूतनयने आधारित छे, कारण के ते, जलधारणक्रिया जेवा विशेषोथी विशिष्ट व्यक्तिने ज, शब्दवाच्य गणावे छे. हवे "सविकल्प१. आपणने बोध थाय ते बोध बीजाने कराववा माटे शब्द प्रयोजीओ छीओ. तेथी शब्द ओ
बोधथी उत्पाद्य- जन्माववा योग्य गणाय छे. २. अहीं सामान्य अने विशेष उभयथी विशिष्टनो बोध -अवो त्रीजो विकल्प केम न गणाव्यो?
ओवो प्रश्न थइ शके, पण अनुं समाधान ओ छे के ओवो बोध सम्भवित तमाम अपेक्षाना संग्रहात्मक होवाथी प्रमाणवाक्य ज बनी जाय छे. अने नयाधारित वाक्यो ज भांगा तरीके
गणाय छे, नहीं के ओ भांगाओना सर्वसमूहात्मक प्रमाणवाक्य. ३-४. "शब्द-समभिरूढौ सञ्जा-क्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो
वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः । एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवाऽर्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः ।" - टीकाकारना आ शब्दोनुं आq ज तात्पर्य
जणाय छे. ५. सामान्य अने विशेषने अनुक्रमे सविकल्प अने निर्विकल्प तरीके ओळखाववाना हेतुओ
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सामान्यनुं प्रतिपादक वचन पण सविकल्प कहेवाय छे अने निर्विकल्पविशेषनुं प्रतिपादक वचन पण निर्विकल्प गणाय छे. तेथी आम भांगा रचाशे : 'स्याद् वचनं सविकल्पमेव, स्याद् वचनं निर्विकल्पमेव'.
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हवे आमां ‘स्यादवचनमवक्तव्यमेव' ओवो त्रीजो भांगो केम न आवे ते जोइओ. आ भांगो त्यारे रचाय के ज्यारे वचन अवक्तव्यनुं प्रतिपादक बने. हवे वचन तो शब्दात्मक होय छे अने तेथी शब्दना विषयभूत पदार्थोनुं ज ते प्रतिपादन करी शके अने अवक्तव्य तो शब्दाभावनो विषय छे, मतलब के जेनो प्रतिपादक शब्द ज न होय अने अवक्तव्य कहेवाय छे, तो आ अवक्तव्यनुं प्रतिपादन शब्दात्मक वचन कई रीते करे ? अने जो आवा अवक्तव्यनुं प्रतिपादन अ न करी शके तो अमां अवक्तव्यभंग पण कई रीते रचाय ?
उपर जे अवक्तव्यभंगना अभावनुं कारण देखाड्यं ते टीकामां दर्शावेला तर्कने अनुसारे छे. वास्तविक रीते पण आपणे जोइओ तो घट, पट, मठ जेवा शब्दोथी ते ते सामान्य के विशिष्ट वस्तुनो ज बोध थवानो छे. अवक्तव्यना बोधनो तेमां कोई अवकाश ज नथी. अने अवक्तव्य शब्दथी पण जे अवक्तव्यसामान्य के अवक्तव्यविशेषनो बोध थशे, ते पण 'स्याद वचनं सविकल्पमेव, स्याद् वचनं निर्विकल्पमेव' अ बे भांगामां समाइ जवानो छे. माटे शब्दनिष्ठ वाचकता परत्वे त्रीजा कोई भांगानो अवकाश ज नथी रहेतो.
आ अवक्तव्यभंग केम ना संभवे ते देखाडनारां टीकाकारनां जे वचनो छे- 'अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवति ।" तेनुं तात्पर्य अ नथी के 'अवक्तव्यनो प्रतिपादक कोई शब्द मळतो न होवाथी शब्दनयाश्रित विचारणामां अ भंगने स्थान नथी.' पण तेनुं तात्पर्य से छे के 'शब्दनी वाचकताने पकडीने आपणे चालीओ तो अवक्तव्य के जे शब्दातीत वस्तु छे तेनी विचारणाने अवकाश ज नथी. अने से अवक्तव्यने जो अवक्तव्यशब्दथी वाच्य गणीओ तो ओ रीते ते वक्तव्य ज बनी जवाथी पहेला बे भांगामां ज ते समाइ जाय छे.'
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परन्तु, उपा. श्रीयशोविजयजीओ टीकाकारना शब्दोनुं अर्थघटन कर्यु छे के 'अवक्तव्यनो प्रतिपादक शब्द नथी मळतो माटे त्रीजो भांगो नथी संभवतो' अने आवा अर्थघटनने परिणाम अनेकान्तव्यवस्थामां उद्धृत प्रस्तुत गाथाना विवरणमां से प्रश्न उठाव्यो छे के "शब्दथी भावविषयक ज शाब्दबोध थाय, अभावविषयक नहीं -आवो कोई नियम तो छे नहीं. तो पछी 'अवक्तव्य' शब्दथी वक्तव्यताना अभावने विषय बनावनारो शाब्दबोध केम न थाय ? अने जो ओ थइ शकतो होय तो तेनो प्रतिपादक त्रीजो भांगो मानवामां शं वांधो?". आम व्यंजनपर्यायमां अवक्तव्यभंगना अभाव, टीकाकारे आपेलुं कारण वाजबी नथी ते दर्शावी तेनुं नवं कारण अq सूचव्युं छे के "अर्थनयाश्रित विचारणा करतां शब्दनयाश्रित विचारणामां आवतुं अवक्तव्य, मूळभूत रीते अक ज होवा छतां, शाब्दिक रीते जुदुं पडे छे. अने आ भिन्न अवक्तव्य, पहेला बे भांगानी वक्तव्यतामां ज पर्यवसित थाय छे. अने तेथी ज व्यंजनपर्यायमा स्वतन्त्र वीजा भांगानुं कथन करवानुं रहेतुं नथी." उपाध्यायजी भगवन्ते करेली आ समग्र चर्चा वास्तविकताने बदले नव्यन्यायनी जटिल परिभाषा अने तर्क पर आधारित होवाथी तेमज विस्तृत विवेचननी अपेक्षा राखती होवाथी घणी ज रसप्रद होवा छतां, अत्रे ओने दर्शाववानुं शक्य नथी.१
ढूंकमां, आ गाथाना उत्तरार्धना बे अर्थ छ : १. शब्दनिरूपित अर्थनिष्ठ वाच्यताने अनुलक्षीने- वंजणपज्जाए- शब्दनयाश्रित
विचारणामां उण- वळी सवियप्पो- विकल्पोवाळो य- अने निव्वियप्पो
विकल्पो वगरनो (वचनमार्ग छे, अने अने अनुसरीने सप्तभंगी छे.) २. शब्दनिष्ठ वाचकताने अनुलक्षीने- वंजणपज्जाए- शब्दनयाश्रित विचारणामां
(तो) सवियप्पो- सामान्यनो प्रतिपादक य- अने निव्वियप्पो- विशेषनो प्रतिपादक (अम बे) उण- ज (वचनमार्ग छे, अने अने लीधे बे ज भांगा छे.)
उपर आपणे वादमहार्णवटीकामां दर्शावेलो आ गाथानो भावार्थ विस्तृत रीते जोयो. आ भावार्थ विषयनिरूपणनी रीते चोक्कस साचो छे, पण मूळग्रन्थकार श्रीसिद्धसेनसूरिजीनो आ गाथाना उपन्यास पाछळ आवो ज आशय हशे ओम १. मूळ चर्चा माटे जुओ पृ. ११५
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मानवं मुश्केल छे. बल्के, नहीं होय अवं अनेक कारणे लागे छे – १. अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्याय शब्दो जैन शास्त्रोमां बहु जुदा अर्थमां?
प्रयोजाया छे. आ शब्दोनो अनुक्रमे अर्थनय अने शब्दनय अवो अर्थ प्रायः बीजे कशे देखातो नथी. 'पर्याय' शब्दनो 'नय' अवो अर्थ
कल्पवो ज अघरो छे. २. सप्तभंगी संग्रह, व्यवहार अने ऋजुसूत्र -अम त्रण अर्थनयोथी सर्जाय छे.
माटे 'अर्थनयोने आश्रयी थती विचारणामां' सप्तभंगी थाय छे अम जणावयूँ होय तो 'अर्थनयो'ना वाचक शब्दने बहुवचन लगाडवू पडे. ज्यारे मूळगाथामां तो 'अत्थपज्जाए'मां अकवचन छे. 'वंजणपज्जाए' अंगे पण आ ज वात समजवी. आ बन्ने ठेकाणे सप्तमी विभक्तिनो अर्थ पण 'तदाश्रित विचारणा' ओवो क्लिष्ट करवो पडे छे. आवा अर्थपरक स्थाने
बहुमान्य तो तृतीया के पंचमी छे. ३. बीजा अर्थ वखते सविकल्प अने निर्विकल्पनो अर्थ अनुक्रमे सामान्य
अने विशेष थाय छे. आ शब्दो आवा अर्थमां भाग्ये ज बीजे कशे
वपराया हशे. __ अर्थनयाश्रित विचारणामां जे सप्तभंगी सर्जाय छे तेनुं विवरण आ पूर्वेनी
५ गाथामां करवामां आव्युं छे. (१.३६-४०) अने तेना उपसंहाररूपे आ गाथानो पूर्वार्ध मूकायो छे. तो उत्तरार्धमां जेनी वात छे ते व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित सप्तभंगी के द्विभंगीनो उल्लेख के तेनुं विवरण आ पहेलानी के पछीनी गाथाओमां केम नथी मळतुं ? अर्थपर्यायना भांगा माटे ५ गाथा होय तो व्यंजनपर्याय माटे ओक पण नहीं ? आ वात ओम नथी सूचवती के आ पूर्वेनी गाथाओमांथी अन्य कोई रीते व्यंजनपर्यायने
सम्बन्धित भांगा शोधवा प्रयास करवो जोइ ? ५. टीकामां दर्शावायेलुं व्यंजनपर्यायमां सविकल्पत्व-निर्विकल्पत्व, त्रीजा
भांगानो सद्भाव-अभाव वगेरे बधुं ज कठिन तर्कजाळ पर आधारित छे. श्रीसिद्धसेनसूरिजीना समयमां तो वास्तविकता के वस्तुस्वरूपनी
विचारणा ज मुख्य बनती हती. आ रीते युक्तिजाळ पर आधारित प्रमेयोनुं १. आ अर्थ माटे जुओ पृ. १०७-१०८
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निरूपण त्यारे महदंशे नहोतुं थतुं. माटे वास्तविकतानी भूमि पर आधार राखनारो भावार्थ होवो जोइओ. सौथी महत्त्वनी वात तो ओ छे के आ गाथानो आवो अर्थ करवा माटे अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने लगतुं प्रकरण ज्यांथी शरु थाय छे ते १.३० गाथामां पण आ शब्दोनो अर्थ अनुक्रमे अर्थनय अने शब्दनय करवो पडे छे. अने अने लीधे आ प्रकरणनी अर्थसंगति केटली कठिन बने छे ते ओ ज गाथामां 'अर्थपर्याय अभिन्न छे अने व्यंजनपर्याय तो भिन्न-अभिन्न बन्ने छे' आ वातनी संगतिनो प्रयास जोतां समजाय छे.१
आ कारणोने लीधे आ गाथा- मूळकारने सम्मत तात्पर्य जुएं होवार्नु समजाय छे. ते शुं होइ शके ते आगळ विचारीशुं.
हवे आपणे द्रव्यगुणपर्यायरास-स्तबकमां उपाध्यायजी भगवन्ते आ गाथानु जे तात्पर्य देखाड्युं छे ते जोइशुं. त्यां आ गाथा- उद्धरण ओक विशिष्ट प्रश्नना सन्दर्भे थयुं छे. प्रश्न ओ छे के 'ज्यां धर्मसम्बन्धित- धर्म विषेनी अपेक्षाओ बे कोटिमां समाइ जाय (जेमके घटनिष्ठ अस्तित्व सम्बन्धे, स्वरूपादि अस्तित्वपोषक अने पररूपादि नास्तित्वपोषक) त्यां तो परिपूर्ण बोध सात भांगामां समाइ जाय छे, परन्तु ज्यां अपेक्षाओ बे करतां वधारे कोटिमां समाय छे, त्यां तो सात करतां वधारे ज भांगा थवाना. त्यारे सप्तभंगीनो नियम साचववा शुं करवू ?'
____ उपाध्यायजीओ आ बाबतने सम्बन्धित शास्त्रीयचर्चा पण उद्धृत करी छे. अत्रे आ चर्चानो भाव जोइशं.
"शिष्य : प्रदेश, प्रस्थक, वसति वगेरेना विषयमां पांच-छ नयोनी विभिन्न मान्यता छे.२ हवे तेमां अक नयनी अपेक्षाओ जे प्रदेशादि छे ते बीजा १. त्यां आ वातनी संगति आम समजाववामां आवी छे : "अर्थपर्याय अभिन्न होय छे,
कारणके ते असत्, अद्रव्य अने अतीत-अनागतथी व्यवच्छिन्न ओवा अर्थना पर्यायरूप होय छे; अने अर्थनयो आवा अभिन्न अर्थपर्यायना ग्राहक होवाथी अर्थगत विभाग अभिन्न छे. ज्यारे व्यंजनपर्याय- शब्दनय तो भिन्न-अभिन्न बन्ने छे, कारण के वस्तु तो अनेक शब्दोथी पण वाच्य होय छे (-साम्प्रतमते) अने ओक शब्दथी ज वाच्य होय तेम पण बने
छे (-समभिरूढ, अवम्भूतमते)." आ संगति परत्वे अनेक प्रश्नो सर्जाइ शके तेम छे. २. आ मान्यताओ 'नयरहस्य'मां सरस रीते देखाडवामां आवी छे.
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नयोनी अपेक्षाओ नथी. तेथी धारोके पांच नयनी भिन्न मान्यता होय तो दश भांगा तो अना ज थाय. तेमां अवक्तव्यभंग अने संयोगीभांगा उमेरो तो भंगसंख्या केटली बधी वधी जाय ? अने तो त्यां सप्तभंगीनो नियम कई रीते सचवाशे ?
__ "गुरु : त्यां ओकनयने सम्मत अर्थने मुख्य गणवो अने अन्यनय सम्मत अर्थाने गौण बनाववा. पछी जेने मुख्य बनाव्यो होय तेना आपेक्षिक अस्तित्वनो प्रतिपादक प्रथमभंग अने तेना अन्यनयोना मते निषेधनो द्वितीयभंग करवो. बधा नयोनी अपेक्षाओ अवक्तव्य भंग तो सर्जावानो ज छे अने आ त्रणना संयोगात्मक ४-७ भांगा पण आपोआप रचावाना छे. आ रीते अक सप्तभंगी थशे. पछी बीजा नयने सम्मत अर्थने ते ज रीते, मुख्य बनावी तेनी सप्तभंगी करवी. आ रीते अनुक्रमे सर्व नयोनी सप्तभंगी करवी. अटले परिपूर्ण बोध पण थइ जशे अने सप्तभंगीनो नियम पण सचवाशे."
उपा. श्रीयशोविजयजीओ आ समाधाननो निषेध तो नथी कर्यो, पण पोताना तरफथी नवं समाधान सूचव्युं छे – “शास्त्रोमां प्रमाणवाक्य, लक्षण ओ देखाडवामां आव्युं छे के 'जे वाक्यमां सकलनयो, तात्पर्य समाइ जाय छे ते प्रमाणवाक्य.' हवे, घटगत अस्तित्वादिने लगता सात विकल्पो सम्भवे छे अने तेथी ते सातेना प्रतिपादक सप्तभंग्यात्मक महावाक्यने ज प्रमाणवाक्य गणवामां आवे छे. पण अनुं तात्पर्य ओ नथी के बधे सात भांगा सर्जावा ज जोइओ. कारण के ओछा भांगे पण जो पूर्ण बोध थइ जाय तो ओटला भांगाना समूहने ज प्रमाणवाक्य कहेवामां शुं वांधो ? तेथी प्रदेशादि स्थळे जेटला नयोनुं विभिन्न मन्तव्य होय, ते सघळां मन्तव्योने स्यात्कारथी चिह्नित करी दइओ अने 'स्यात् षण्णां प्रदेशः, पञ्चानां प्रदेशः, पञ्चप्रकारः प्रदेशः....' अम तेओनो उपन्यास करी दइओ तो ओ ओक ज भांगामां सघळा नयो, मन्तव्य समाइ जवाथी आ ओक ज वाक्य प्रमाणवाक्य थइ शके छे. अने सात भांगाथी वधारे भांगा न थवानो नियम पण सचवाइ जाय छे."
हवे आ समाधाननी सामे ओ प्रश्न उपस्थित थाय छे के 'परिपूर्ण बोध सप्तभंगीथी ज थाय' ओ नियमनो अर्थ फक्त ओ ज नथी के 'सातथी वधु भांगा न थाय', परन्तु अ पण छे के 'परिपूर्ण बोध माटे सात भांगा होवा
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अनिवार्य छे.' अने तमे तो अकभांगे ज परिपूर्ण बोध देखाडो छो. तो तेमां विरोध नथी ?
उपाध्यायजीओ आनुं समाधान ओम दर्शाव्युं छे के सातथी ओछा भांगे पण परिपूर्ण बोध मान्य ज छे. आनी साबितीमां तेओओ सन्मतितर्कनी प्रस्तुत गाथा उद्धृत करी छे. अने तेमां व्यंजनपर्यायमां बे भांगे पण पूर्ण बोध देखाडायो छे ओम सूचव्युं छे.
हवे आपणे तेओओ त्यां आ गाथा- जे विवरण कर्यु छे ते जोइशुं :
अर्थपर्याय अटले अस्तित्व-नास्तित्व वगेरे अर्थनिष्ठ धर्मो अने व्यंजनपर्याय अटले अर्थनिष्ठ घटकुम्भादिशब्दनिरूपित वाच्यता. 'सप्तभंगीरूप वचनमार्ग अर्थपर्यायने विषे थाय छे.' अवो पूर्वार्धनो ओक ज अर्थ छे. ज्यारे उत्तरार्धना बे अर्थ छे : ओक तो, वाच्यता पण आपेक्षिक धर्म छे, अटले तद्विषयक विचारणामां पण तेना आपेक्षिक अस्तित्व-नास्तित्वना प्रतिपादक पहेला बे भांगा मळे- १. सविकल्प- विधिरूप', २. निर्विकल्प- निषेधरूप. भांगानो आकार आवो थशे- 'स्याद् घटो घटपदवाच्य एव, स्याद् घटो घटपदावाच्य एव'. त्यारबाद त्रीजो अवक्तव्य भांगो नहीं मळे, कारण के अवक्तव्यने शब्दना विषयभूत कहीओ तो विरोध थाय.२
अथवा अन्य रीते पण घटादिपदवाच्यतारूप व्यंजनपर्यायमां त्रीजा भंगनो अभाव घटे छे. ते आ रीते- साम्प्रत अने समभिरूढना मते आ वाच्यता सामान्यने आश्रित छे, तेथी आ बे नयोना मते सविकल्प वचनमार्ग छे, अने तत्प्रतिपादक प्रथमभंग छे. अने ओवम्भूतना मते आ वाच्यता विशेषने आश्रित छे, तेथी ते मने निविकल्प वचनमार्ग छे, अने तत्प्रतिपादक द्वितीयभंग छे. हवे, आ सिवाय शब्दवाच्यताने जोनारो अन्य कोई नय तो छे नहीं अने १. सविकल्पनो अर्थ 'विधि' केवी रीते करवो ते समजवू मुश्केल छे. ओ ज रीते निर्विकल्पनो
अर्थ 'निषेध' समजवो पण मुश्केल छे. २. अवक्तव्य अटले शब्दाभाव- विषयत्व. माटे अवक्तव्यने जो शब्दनो विषय कही तो विरोध अवश्य थाय. पण 'स्यादवक्तव्यो घटः' ओम घटशब्दवाच्यताना अस्तित्व-नास्तित्वने आश्रित अवक्तव्यतानुं घटमां प्रतिपादन करवामां आ विरोध कई रीते लागु पडे ते समजवू मुश्केल छे. कदाच शब्दवाच्यताने आश्रित विचारणामां शब्दाभावना विषयरूप अवक्तव्यतानो समावेश करवो विरुद्ध छे अवो भाव अत्रे होइ शके.
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शब्दवाच्यताने जोनारा नयोनी वात पहेला बे भंगमां समाइ जाय छे. तेथी व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भंग सर्जातो नथी. अने बे भांगे पण शब्दनयाश्रित विचारणाने लगतो पूर्ण बोध थइ जाय छे. ओटले अज रीते प्रदेशादि स्थळे पण ओक भांगे पूर्ण बोध मानी लइओ तो वांधो नथी.
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स्तबकगत आ विवरण कया कया मुद्दे वादमहार्णवटीकाथी भिन्नता धरावे छे ते तपासीओ
वादमहार्णव
१. अर्थपर्याय- अर्थनय
२. व्यंजनपर्याय- शब्दनय
३. सविकल्प - सामान्य/विकल्पोनो सद्भाव
४. निर्विकल्प - विशेष/विकल्पोनो
अभाव
५. व्यंजनपर्यायमां सप्तभंगी अने द्विभंगी बन्ने शक्य छे. ६. उत्तरार्धमां अनुक्रमे अर्थनिष्ठ वाच्यता अने शब्दनिष्ठ वाचकता पर विचार करवामां आव्यो छे. ७. अवक्तव्यना शब्दविषय बनवानी आपत्ति शब्दनिष्ठ वाचकताना विचार वखते लागु पडे छे.
द्रव्यगुणपर्यायरास- स्तबक
१. अर्थपर्याय- अर्थगत अस्तित्वनास्तित्वादि धर्मो. २. व्यंजनपर्याय
घटकुम्भादिशब्दवाच्यता ३. सविकल्प - विधि
४. निर्विकल्प - निषेध
५. व्यंजनपर्यायमां द्विभंगी ज शक्य छे.
६. उत्तरार्धमां अनुक्रमे अर्थनिष्ठ वाच्यता अने शब्दाश्रित नयमार्ग पर विचार करवामां आव्यो छे.
७. आ आपत्ति अर्थनिष्ठ वाच्यतानी विचारणामां लागु पडे छे.
वादमहार्णवगत आ गाथानो भावार्थ मूळकारना आशयथी भिन्न होइ शके ते समजवा जे कारणो देखाड्यां छे (पृ. ९५), तेमांथी बीजा क्रमांकना कारण सिवाय बीजां बधां आ स्तबकगत विवरण माटे पण लागु पडे छे. अने तेथी लागे छे के श्रीसिद्धसेनसूरिजीने सम्मत आ गाथानो भावार्थ प्रस्तुत विवरण करतां जुदो ज होवो जोइओ.
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हवे आपणे सप्तभंगीविंशिका (-अभयशेखरसूरिजीकृत) गाथा १५-१९ (सविवेचन)मां दर्शावायेलो आ गाथानो भावार्थ तपासीशं. आ भावार्थ आम तो द्रव्यगुणपर्यायरास-स्तबकगत विवरणमांना प्रथम अर्थने ज अनुसरे छे, छतां त्यां ओक नवी वात ओ छे के तेमां व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भंग केम न आवे तेनी अतिविस्तृत चर्चा करवामां आवी छे, के जे मुख्यत्वे वास्तविकताने बदले कल्पना पर आधारित छे. आ चर्चाने तपासवा माटे तेनुं सम्पूर्ण उद्धरण तो शक्य नथी, माटे आपणे तेना मुख्य मुद्दाओ ज जोइशं. आ मुद्दाओ तारवती वखते चर्चाना हार्दने हानि न पहोंचे तेनुं पूरतुं ध्यान राखवामां आव्युं छे.
"अर्थपर्याय अटले वस्तुमां जेने लीधे कोइक क्रिया करवानुं सामर्थ्य आवे ते धर्मो- मृन्मयत्व, वृत्ताकार, रक्तवर्ण वगेरे अने व्यंजनपर्याय अटले ते ते पदार्थमां रहेली ते ते शब्दथी निरूपित वाच्यता. आ बन्ने पर्यायो घणा बधा कारणे परस्पर अत्यन्त भिन्न छे. अर्थपर्यायमां सप्तभंगी सर्जाय छे अने व्यंजनपर्यायमां विधिरूप अने निषेधरूप अम बे भांगा ज थाय छे.
"हवे आ व्यंजनपर्यायोमां त्रीजो भांगो केम न आवे तेनां त्रण कारणो छे : १. सप्तभंगी हमेशां विशदबुद्धि श्रोतानी अपेक्षाओ ज प्रतिपादित थाय छे, मन्दबुद्धिनी अपेक्षाओ नहीं. हवे विशदबुद्धि श्रोता पोतानी मेधाथी ज स्वयं अटलुं समजी ले छे के 'घडो काळो होय तो लाल न होय, चोरस होय तो गोळ न होय.' आथी वस्तुस्वरुपना अंशभूत ओक धर्मना बे विकल्पो' विशे तेने संशय थतो नथी. पण बे धर्मना बे विकल्पो विशे तेने संशय थई शके छे. मतलब के 'घडो लाल अने काळो छ ?, घडो चोरस अने गोळ छे ?' आवा संशयो तेने न थाय, पण 'घडो लाल अने चोरस छे ? घडो काळो अने गोळ छे ?' आवा ज संशयो तेने संभवे. आ संशयमां जो बन्ने विकल्पो स्वरूप (-घटनिष्ठ) होय तो जवाबमां 'स्यादस्त्येव' भांगो आवे. जो बन्ने पररूप होय तो 'स्यान्नाऽस्त्येव' भांगो आवे. जो ओक स्वरुप होय अने ओक
१. संस्थान, वर्ण, क्षेत्रजन्यत्व, उपादानद्रव्य वगेरे ओक वस्तुना मूळभूत अंशो छे. अने चोरस
गोळ, लाल-काळो, अमदावादी-खंभाती, माटीनो-सोनानो वगेरे ते ओक ओक अंशना विकल्परूप छे. आ विकल्पोमांथी अक साथे ओक वस्तुमां ओक ओक अंशनो ओक ज विकल्प संभवे - आवी व्यवस्था अत्रे स्वीकारवामां आवी छे.
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पररूप होय तो 'स्यादस्त्येव स्यान्नाऽस्त्येव च' भांगो आवे. अने आवा बे विकल्पो के जेमां ओक स्वरूप होय अने ओक पररूप होय अने से बे विकल्पोने सांकळीने ओक विकल्प जेवो बनावी प्रश्न पूछवामां आवे, जेमके काळा अने गोळ घडाने उद्देशीने 'घडो लालगोळ छे ?', तो ओ ओक विकल्प फक्त स्वरूप पण नहीं होवाथी अने फक्त पररुप पण नहीं होवाथी 'स्यादवक्तव्यमेव' भांगो जवाबमां आवे ट्रंकमां, सप्तभंगीना ३-७ भांगा माटे विविध अंशो होवा अनिवार्य छे.
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“हवे, अर्थपर्यायो तो अनेक अंशात्मक होय छे (जेमके संस्थान, वर्ण, रस, क्षेत्रजन्यत्व व.) अने तेथी तेमां आ भांगा सम्भवे. पण व्यंजनपर्याय तो वाच्यतारूप ओक ज अंशात्मक होवाथी, अने बे विकल्पोवाळा प्रश्न माटे बे अंश जरूरी होवाथी तेमां बे विकल्पोवाळो प्रश्न ज संभवतो नथी (जेमके घडो घटपदवाच्य अने पटपदवाच्य छे ? ) अने जो अ न संभवे तो जेना माटे बे अंशोना बे विकल्पोवाळो प्रश्न होवो अनिवार्य छे ओवो अवक्तव्यभंग पण त्यां केवी रीते रचाय ?
“२. अर्थपर्यायो जे विविध अंशोमां समाय छे ते विविध अंशोमांथी कोई बे के तेथी वधु अंशोना विशिष्ट विकल्पो साथेना पदार्थनी जरूर पडे म बने छे. जेमके कोइक प्रयोजन काळा ( - वर्णधर्मनो विकल्प ) अने गोळ (-संस्थानधर्मनो विकल्प) घडाथी ज सरे तेम होय. अने माटे आपणे प्रश्न पण पूछवानो थाय के 'घडो गोळकाळो छे ?' अने घडो लालगोळ होय तो जवाब आपवानो थाय के 'स्यादवक्तव्यमेव'. पण व्यंजनपर्याय तो स्वयं अक ज अंशरूप छे. तेथी तेमां कोई दिवस बे विकल्पोनुं प्रयोजन ज ऊभुं नथी थतुं. अने जो अ न थाय तो बे विकल्पोवाळा प्रश्नना अभावे अवक्तव्यभांगो पण कई रीते रचावानो ?
“३. व्यंजनपर्यायमां तमाम प्रश्नो अने उत्तरो वाच्यतामां पर्यवसान पामे छे. तेथी 'घटोऽस्ति न वा ?' अ प्रश्ननो व्यंजनपर्यायसम्बन्धे मतलब थाय ‘घटपदवाच्योऽस्ति न वा ?'. अने भांगा पण आम रचाय : ' स्यादस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यान्नाऽस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यादवक्तव्य एव घटपदवाच्यः...' आमां अवक्तव्य भांगामां अक बाजु घटपदवाच्य कहेवुं अने बीजी बाजु
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अवक्तव्य कहेवं - आमां स्पष्ट विरोध छे. उपाध्यायजी महाराज 'अवक्तव्य शब्दविषय कहीइं तो विरोध थाइ' आ पंक्तिथी आवो ज भाव सूचवे छे. माटे आवो विरोध आवतो होवाथी पण व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भांगो न थाय."
__ आ समग्र चर्चा प्राथमिक दृष्टिले आपणने प्रभावित करी दे तेम छे. छतां आपणे सूक्ष्मताथी विचारीशुं तो अमां आपणने ठेकठेकाणे त्रुटि देखाया वगर नहीं रहे. जेमके अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय ओटले दीर्घकालीन पर्याय -आवी सर्वत्र प्रसिद्धि छे. तो शा माटे अनाथी जुदा पडीने 'अर्थक्रियाकारित्वना निमित्तभूत पर्यायो ते अर्थपर्यायो' अने 'वाच्यताओ? अटले व्यंजनपर्यायो' ओवी व्याख्या बांधवी जोइ ? आम करवामां कयो तर्क ? आ रीते व्याख्या बांधवामां सत्त्व, ज्ञेयत्व व. पर्यायो के जे अर्थगत विशिष्ट अर्थक्रियाना जनक पण नथी अने वाच्यतारूप पण नथी, ते बन्ने कोटिमांथी बहार नीकळी जाय छे. तो आ पर्यायोमां भंगव्यवस्था कई रीते समजवी ? ओ भंगव्यवस्था जे पण होय ते, सन्मतितर्कमां तो अनुं निरूपण नथी अर्बु ज आना परथी सिद्ध थाय, तो अने सन्मतितर्कनी त्रुटि गणवी ? वळी, अस्तित्व, रक्तत्व वगेरे पर्यायोनी अपेक्षाओ, वाच्यतानी जेम ज्ञेयता वगेरे पण अनेक-अनेक भिन्नताओ धरावे ज छे. तो शा माटे ओवा पर्यायोथी वाच्यताने ज अलग करवी जोइओ अने अमां खास भंगव्यवस्था देखाडवी जोइओ ? ज्ञेयता वगेरेने अंगे केम नहीं ? धारोके, आ बधी चर्चा न करीओ तो पण, अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायनो उपरोक्त अर्थ कर्या पछी, 'अर्थपर्याय अभिन्न होय छे अने व्यंजनपर्याय भिन्न-अभिन्न बन्ने होय छे.'२ आवा सन्मतितर्कना वचननी संगति करवी शक्य खरी ?
आ चर्चानी सौथी मोटी त्रुटि तो ओ छे के अमां करायेलुं सप्तभंगीनुं निरूपण सप्तभंगीनी शास्त्रीय अने सर्वमान्य विभावनाथी सदन्तर विपरीत छे. सप्तभंगीनुं प्रणयन शा माटे थाय, कई रीते थाय, अमां धर्म, धर्मी अने अपेक्षाओनी व्यवस्था कई होय ? - आ बधुं प्रमाणनयतत्त्वालोकथी मांडीने
१. उपाध्यायजी भगवन्ते केटलाक स्थळे व्यंजनपर्यायनो अर्थ शब्दनिरूपितवाच्यता देखाड्यो
छे तेनुं वास्तविक तात्पर्य शुं छे ते माटे जुओ पृ. १०९ २. अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणवियप्पो – सन्मति १.३०
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सप्तभंगीप्रभा जेवा अनेक-अनेक ग्रन्थोमां बहु ज सूक्ष्मताथी निरूपायुं छे. पण आ ग्रन्थो जाणे दुनियामां छे ज नहीं ले रीते सप्तभंगीविंशिकामां सप्तभंगीनुं निरूपण थयुं छे. आ निरूपण अवश्य परीक्षणीय छे, पण विस्तारना भयथी अत्रे ते न करतां फक्त अवक्तव्यभंगना अभावनां जे त्रण कारणो दर्शाव्यां छे तेनी ज विचारणा करीशुं.
११. सप्तभंगीना प्रणयन माटे दरेक वखते प्रश्न जरूरी नथी होता. कारण के प्रश्न संशय होय तो ज संभवे छे, ज्यारे सप्तभंगी तो संशयनी जेम अज्ञान अने विपर्ययना निरास माटे पण रचाय छे.२ माटे प्रश्न न संभववा मात्रथी त्रीजा भंगनो अभाव मानवो शक्य नथी.
तो पण धारो के मानी लइ के प्रश्न संभवे तो ज तेना जवाबरूप भांगो संभवे. तो पण ओ रीते तो घटपदवाच्यता जेवा धर्मोमां त्रीजा भांगानो अभाव नथी ज घटवानो. कारण के अवक्तव्यभांगा माटे संभवती जिज्ञासाथी जन्य प्रश्नमां बे विकल्पोनो उल्लेख होतो ज नथी; परन्तु अेक धर्मीगत ओक धर्मना अस्तित्व अने नास्तित्व बन्नेनी पोषक ओक ओक अपेक्षानो उल्लेख होय छे. जेमके, कोई व्यक्तिविशेषने उद्देशीने अर्बु कथन करवामां आवे के 'ते आ जन्मनी अपेक्षाओ मनुष्य छे, पण गया जन्मनी अपेक्षाओ अमनुष्य (-देवादि) छे.' तो प्रश्न थशे के बन्ने जन्मनी अकसाथे अपेक्षा राखीओ तो ते मनुष्य गणाय के न गणाय ? आमां जोइ शकाशे के धर्मी- व्यक्ति ओक ज छे, संशयनो विषयभूत धर्म- मनुष्यत्व पण अक ज छे, फक्त अपेक्षा ज बे छेआ जन्म अने गयो जन्म. हवे, आ जन्मनी अपेक्षाओ ते मनुष्य पण छे अने गया जन्मनी अपेक्षाओ अमनुष्य पण छे, तेथी बन्ने जन्मनी अपेक्षाओ ते व्यक्ति जे छे तेने जणावनार कोई शब्द न होवाथी अवक्तव्य ज कहेवू पडे. अने ते ज त्रीजो भांगो छे. आमां जोइ शकाशे के त्रीजा भांगा माटे प्रश्नमा मात्र धर्मना अस्तित्व अने नास्तित्व बनेने सम्बन्धित अलग-अलग अपेक्षाओनो उल्लेख १. पृष्ठ १००-१०१ परनां कारणोनो आ क्रमांक छे. २. किञ्च वाक्यस्य परार्थाधिगमफलकत्वेन यथा परस्य संशयनिवृत्त्यर्थं प्रयोक्तव्यत्वं तथा परस्या
ऽज्ञाननिवृत्त्यर्थमपि... तत्र वादिनां विप्रतिपत्तयोऽपि सप्त, तन्निवर्त्तकवाक्यान्यपि सप्तेत्येवंरीत्याऽपि सप्तभङ्गी सूपपादा - सप्तभङ्गीप्रभा-पृ. ६
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जरूरी छे; तेथी चोक्कस समूहोमां धर्मोने गोठववा, तेमांथी अेक समूहगत ओक ज धर्मनो अने कुल बे धर्मो-जेमां ओक स्वरुप होय अने अेक पररूप-नो उल्लेख प्रश्नमां जरूरी मानवो वगेरे व्यर्थ कल्पना ज छे.
उपर दर्शावेली रीते जोइओ तो वाच्यतामां पण त्रीजो भांगो घटे ज छे. जेमके घडो घटपदवाच्य त्यारे ज बने छे के ज्यारे अने 'घट' पदथी ओळखवो अq नक्की कर्यु होय,' ओ सिवाय नहीं, माटे ज अंग्रेजी भाषानी अपेक्षाओ घडो घटपदवाच्य नथी. तो जे अपेक्षाओ घडामां घटपदवाच्यता छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ते बन्ने अपेक्षाओ अकसाथे जोइओ तो आ वाच्यताने आश्रित अवक्तव्यता आववानी ज, अने तत्प्रतिपादक त्रीजो भांगो मळवानो ज. ढूंकमां, शब्दनिरूपितवाच्यताने जो धर्म तरीके लइने विचारीओ तो अमां सप्तभंगी ज रचाय छे. माटे ओ रीते व्यंजनपर्यायमां बे ज भांगा घटाववा सम्भवित नथी.
२. अज्ञानादि दूर करवा ओ ज सप्तभंगीनुं प्रयोजन छे. तेनी प्ररूपणामां 'चोरस अने काळा घडानी जरूर पडवी' अवा व्यावहारिक प्रयोजनोनी अपेक्षा ज नथी होती. वास्तवमां सप्तभंगीना प्रणयनमां आवां व्यावहारिक प्रयोजनोनी अपेक्षा राखवामां 'सप्तभंगी, क्रमशः आ ज रीते निरूपण थाय, अने निरूपण साते सात भांगानुं थाय' आवा केटलाक नियमो ज नथी सचवाता. कारण के व्यवहारमा तो जेवा घडानी जरूर पडी तेवा घडा माटे पूछ्युं अने जेवो घडो हतो तेवो जवाब आपी दीधो अटले वात पूरी थइ जाय छे. सप्तभंगी- खरेखर प्रयोजन जो वास्तविक बोध गणीओ तो ज आ बधी प्ररूपणा करवानी रहे छे. माटे, व्यावहारिक प्रयोजनना अभावे वाच्यतामां त्रीजा भंगनो अभाव घटाववो बिल्कुल वाजबी नथी.
३. 'घटपदवाच्योऽस्ति न वा ?' जेवा प्रश्नोने वाच्यताविषयक गणी ज केवी रीते शकाय? कारण के अमां घटपदवाच्य धर्मीमां अस्तित्वनी शंका छे. वाच्यताने संशयनो विषय बनावतो प्रश्न तो आम निरूपाय : 'अयं घटपदवाच्यो न वा ?' अने आ प्रश्नने अनुलक्षीने सप्तभंगी पण आम रचायः 'स्यादयं घटपदवाच्य एव, स्यादयं घटपदावाच्य एव, स्यादयमवक्तव्य एव...' १. वधु साची रीते कहेवू होय तो अम कहेवाय के घडामां घटपदनो संकेतग्रह को होय.
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हवे आमां जेने घटपदथी वाच्य बनावीओ छे तेने त्यारे ज अवक्तव्य कहेवानी वात ज क्यां आवी ?
वास्तवमां व्यंजनपर्यायने लगती आचार्य भगवन्तने सम्मत भंगप्रणालीमां पण 'स्यादस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यान्नाऽस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यादवक्तव्य एव घटपदवाच्यः....' अर्बु कथन करवामां त्रीजा भांगामां जेने घटपदवाच्य कहीओ तेने ज अवक्तव्य कहेवामां वांधो शुं? जेम भिन्नतानी सप्तभंगीमां अवक्तव्यत्व भिन्नताना अस्तित्व-नास्तित्वने आश्रित छे, ओकत्वनी सप्तभंगीमां ओकत्वना अस्तित्व-नास्तित्वने आश्रित छे, तेम प्रस्तुत स्थळे अस्तित्वना अस्तित्वनास्तित्वने आश्रित छे. तो जेमां स्वनिष्ठ अने घटपदथी निरूपित वाच्यतानुं कथन करीओ तेमां ज अस्तित्वने आश्रित अवक्तव्यतानुं कथन करीओ तो तेमां विरोध क्यां आव्यो ? ढूंकमां, आ रीते पण व्यंजनपर्यायमां त्रीजा भांगानो अभाव घटाववो सम्भवित नथी.
आम, आ गाथानो अभयशेखरसूरिजीओ कल्पेलो भावार्थ वास्तविकताथी घणो दूर छे ते समजी शकाय तेवं छे..
हवे आ गाथाना तात्पर्यनी विचारणा माटेना उपलब्ध साधनोमांथी ओक ज वस्तु आपणे जोवानी बाकी रहे छे अने ते छे पं. श्रीसुखलालजी कृत सन्मतितर्क-विवेचन. आम तो नयोपदेश (-उपा. श्रीयशोविजयजी) सप्तभंगीप्रभा (-श्रीविजयनेमिसूरिजी) जेवा ग्रन्थोमां पण आ गाथा- विवरण मळे ज छे. पण ते टीकानां वचनोनो अनुवादमात्र होवाथी टीकानी चर्चामां ज तेनी चर्चा पण समाइ जाय छे. जो के पं. श्रीसुखलालजीओ करेलुं आ गाथार्नु विवेचन पण टीकाने ज अनुसरे छे, तेथी ते विशे विशेषथी चर्चा आवश्यक नथी ज. पण आ विवेचनमां (पृ. २२३) बे वातो बहु महत्त्वनी छ :
१. आ गाथा- विवेचन लख्या पछी तेना पर तेओओ टिप्पणी करी छे - "अहीं प्रस्तुत गाथानो जे भाव लख्यो छे ते ज ग्रन्थकारने विवक्षित छे के नहि मे घणुं विचार्या छतां नक्की करी शकायुं नथी. टीकाकार श्रीअभयदेवसूरिओ अने श्रीयशोविजयजी उपाध्याये पण आ गाथानो अर्थ चोक्कस नथी लख्यो. तेमणे पण मात्र कल्पनाओ दोडावी छे. माटे विचारकोओ परम्परा जाणवा प्रयत्नशील थq."
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२. सविकल्प अने निर्विकल्पनी ओक नवी ज विभावना तेओओ रज़ करी छे. आ विभावना स्पष्टतः अर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित आ समग्र प्रकरणने, अर्थपर्याय अटले अर्थनय अने व्यंजनपर्याय ओटले शब्दनय -ओम टीकासम्मत अर्थने बदले, अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय अटले दीर्घकालीन पर्याय -ओवा प्रचलित अर्थना सन्दर्भ मूलववाने आभारी छे. आ विभावना छे – “पुरुषशब्दनो व्यंजनपर्याय' पुरुषत्व अने घटशब्दनो घटत्व ओ बन्ने सदृशपर्यायप्रवाहरूपे ओक ओक होवाथी निविकल्पसामान्यरूप छ; अने दर क्षणे नवा नवा उत्पन्न थता पर्याय द्वारा भिन्न थता होवाथी सविकल्प- विशेषरूप पण छे.३"
आ विभावनाने आधारे जो आपणे थोडोक वधु विचार करीओ तो कदाच श्रीसिद्धसेनसूरिजीना आ गाथा रचवा पाछळना हार्दने पामी शकीओ
पर्याय बे प्रकारना संभवे छे. ओक तो द्रव्य, अने तेना मूळभूत गुणोनी परावृत्तिमां निमित्त बननारी परिणामपरम्परानो जे अन्तिम अविभाज्य अंश होय १. वास्तवमां व्यंजनपर्याय अर्थनो- अर्थनिष्ठ ज होय छे, शब्दनो नहीं. शब्दथी तो ओ निरूपित __थाय छे. २. वास्तवमा निर्विकल्पनो अर्थ विशेष अने सविकल्पनो अर्थ सामान्य थाय छे. वादमहार्णवमां
पण ओम ज छे. ३. आ पछी तेओओ व्यंजनपर्यायमां अवक्तव्यभांगो केम न आवे तेनुं कारण आवं दर्शाव्यु छ –
"ओ बन्ने पर्यायो (-पुरुषत्व अने घटत्व) सविकल्प-निर्विकल्परूप होवा छतां अवक्तव्य नथी. कारण के ते पर्यायो अनुक्रमे पुरुष अने घटशब्द द्वारा कहेवाता होवाथी वक्तव्य छे. परन्तु दर क्षणे उत्पाद अने विनाश पामता अवा जे शब्दनिरपेक्ष अर्थपर्यायो छे, तेमां तो अवक्तव्य आदि भंगो पण घटावी शकाय." अर्थपर्यायो, अस्तित्व शब्दसापेक्ष नथी, तेथी तेमने शब्दथी अवाच्य कहीओ तो वांधो न आवे. पण व्यंजनपर्यायोगें अस्तित्व शब्दसापेक्ष होवाथी तेमने जो अवक्तव्यशब्दथी अवाच्य कहीओ तो तेमां स्पष्ट विरोध छे - अवो आ विधाननो भाव छे. पण आ कारण अटले उपेक्षणीय बने छे के अवक्तव्यभंगमां जे धर्म विशे आपणे विचारणा करी रह्या छीओ ते धर्मनुं अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थतुं ज नथी, पण ओ धर्मनुं ओना अस्तित्व-नास्तित्व बन्नेनी पोषक अपेक्षाओने आश्रये, जे स्वरूप रचाय छे, ओ स्वरूप, अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थाय छे. अने भंगरचनामां प्रणालीने अनुसरी धर्मीने धर्मना स्वरूपथी उपरक्त करी रजू करवामां आवतो होवाथी (जेमके रक्तत्वना अस्तित्वना प्रतिपादन वखते – 'स्याद् घटो रक्तः', नास्तित्वना - 'स्याद् घटोऽरक्तः') धर्मीनो ज अवक्तव्य तरीके उपन्यास थाय छे. (जेमके रक्तत्वना अवक्तव्यस्वरूप वखते – 'स्याद् घटोऽवक्तव्यः').
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छे ते, वास्तविक पर्याय छे. आ पर्यायो अक क्षणमां ज वर्तनारा होय छे अने अतिसूक्ष्म होय छे. तेथी छद्मस्थ जीवो माटे ते प्रत्यक्षज्ञान के व्यवहारना विषय बनता नथी.१ आ पर्यायोने शास्त्रीय परिभाषा मुजब 'अर्थपर्याय' कहेवामां आवे छे. जे पर्यायो अर्थभूत- वास्तविक छे तेवा पर्यायो ते अर्थपर्याय अथवा अर्थवस्तु पर आधारित पर्यायो ते अर्थपर्याय - आवो भाव अत्रे संभवी शके. अल्पकालीन पर्याय ते अर्थपर्याय' के भूत-भविष्यना संस्पर्शथी रहित पर्याय ते अर्थपर्याय के ऋजुसूत्रनयना विषयभूत पर्याय ते अर्थपर्याय आवी अर्थपर्यायनी व्याख्याओ उपरनो ज भाव दर्शावे छे. आ उपरान्त, व्यंजनपर्याय के जेनी ओळखाण आगळ करावाशे, तेवा ओक व्यंजनपर्याय अन्तर्गत संभवता व्यंजनपर्यायोने पण अर्थपर्याय कहेवाय छे. ५ अ ज रीते कोई पण व्यंजनपर्यायने आपणे अर्थनिष्ठ पर्याय तरीके जोइओ तो अमां पण अर्थपर्याय शब्दनो व्यपदेश थाय छे.
आ अनन्त अर्थपर्यायोनी परम्परामां जे पर्यायो परस्पर अत्यधिक समानता धरावता होय अने ओक द्रव्यना कोइ ओक ज परिणाम (जेमके आत्माना गतिपरिणाम, स्थितिपरिणाम व.) के ओक ज गुणनी (जेमके आत्माना ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगेरे) परिणतिधारामां समाविष्ट थता होय; ते पर्यायोनो समूह अक स्वतन्त्रपर्यायरूपे व्यक्त थाय छे तेमज ते रूपे छद्मस्थजीवना प्रत्यक्षनो विषय अने शब्दथी व्यवहार्य पण बने छे. आवा पर्यायसमूहात्मक पर्यायो ‘व्यंजनपर्याय' गणाय छे. आपणे ओक उदाहरण जोइओ. यौवन अ ६ पुरुषद्रव्यनो पर्याय छे. आ यौवन ओटले शुं ? बीजुं कशुं नहीं, ओक व्यक्तिनी १. ‘ते क्षणमां वर्ततुं रूप' अवां वचनो द्वारा आ अर्थपर्यायोनो पण व्यवहार थइ शके छे, पण मुख्यतः आपणे जेओनो पर्याय तरीके व्यवहार करीओ छीओ ते आ अर्थपर्यायो नथी होता ओटले अहीं अर्थपर्यायो व्यवहारनो विषय नथी बनता ओम लख्युं छे.
२. सूक्ष्मवर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय, जिम घटनइं तत्तत्क्षणवर्ती पर्याय - द्रव्य.रा.स्त. - १४.१ ३. भूतभविष्यतत्त्वसंस्पर्शरहितं वर्तमानकालावच्छिन्नं वस्तुस्वरूपं चाऽर्थपर्यायः - जैनतर्कभाषा
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पृ. २२ ।
४. ऋजुसूत्रादेशइं क्षणपरिणत जे अभ्यन्तर पर्याय ते अर्थपर्याय ५. जे जेहथी अल्पकालवर्ती पर्याय, ते तेहथी अल्पत्वविवक्षाई अशुद्ध अर्थपर्याय कहवा.
शुद्ध
द्रव्य. रा. स्त. - १४.५
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द्रव्य. रा. स्त. - १४.५ ६. वास्तवमां पुरुष ने आत्मद्रव्यनो व्यंजनपर्याय छे, छतां पण तेमां द्रव्यत्वनो उपचार करीने तेने
द्रव्य कहेवामां आवे छे. जुओ पृ. ८४ - टि. १. कोई पण व्यंजनपर्याय द्रव्य तरीकेउपचरित थइ शके छे.
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लगभग २० थी ४५ वर्ष सुधीनी विविध अवस्थाओनो समूह ज यौवन छे. आ अवस्थाओ वास्तवमां परस्पर भिन्न छे, छतां पण महदंशे समानता धरावती होवाथी अने अेक व्यक्तिनी वयःपरिणामनी सन्ततिमां समाविष्ट थती होवाथी, तेओनो समूह रचाय छे. आ समूहने आपणे स्वतन्त्र ओक अवस्था तरीके कल्पी 'यौवन' अq नाम आपीओ छीओ. आम यौवन व्यंजनपर्याय छे.
___आवा पर्यायो 'व्यंजनपर्याय' केम कहेवाय ते 'यौवन' पर्यायना आधारे ज समजीओ. आ पर्याय जेटली अवस्थाओना समूहरूप छे, ओ सघळी अवस्थाओमां वर्ततुं सादृश्य आ अवस्थाओनो समूह रचवामां भले निमित्त बनतुं होय, पण ओ तमाम अवस्थाओने ओक दोरे परोवनार- ओमने सांकळनार तो आ तमाम अवस्थाओमां थतो यौवन-शब्दनो व्यवहार ज छे. मतलब के आवा समान पर्यायोना जूथनो ओक स्वतन्त्र पर्याय तरीके बोध-व्यवहार थाय, तेमां शब्द ज मुख्य भाग भजवे छे. माटे आवा व्यंजन- शब्द पर आश्रित पर्यायो व्यंजनपर्याय कहेवाय छे. ढूंकमां, अनन्तपर्यायोनी परम्परामां जेटलो सदृशपरिणामप्रवाह ओक शब्द के समानार्थी शब्दोनो वाच्य बनी व्यवहार्य थाय छे, तेटलो परिणामप्रवाह ज व्यंजनपर्याय कहेवाय छे. आपणे जेने पर्याय तरीके ओळखीओ छीओ ते पुरुषत्व, घटत्व व. सामान्यतः व्यंजनपर्यायो ज होय छे.
शास्त्रोमां 'अर्थक्रियाकारक पर्याय ते व्यंजनपर्याय, त्रैकालिक पर्याय ते व्यंजनपर्याय, सदृश पर्याय ते व्यंजनपर्याय' आवी जे व्यंजनपर्यायनी व्याख्याओ मळे छे, ते उपरनो ज भाव दर्शावे छे. परन्तु उपाध्यायजी भगवन्ते व्यंजनपर्यायनी ओळखाण ‘घटकुम्भादिशब्दवाच्यता'५ तरीके आपी छे ते सम्बन्धे शुं समजवू ते प्रश्न छे. कारण के शब्दनिरूपितवाच्यता अने सदृशपरिणामप्रवाह बे बहु जुदी वस्तु छे, तो बन्नेने व्यंजनपर्याय समजवा ? १. ओक व्यंजनपर्यायनी अन्तर्गत नाना-नाना घणा व्यंजनपर्यायो समायेला होय तेवू पण बने.
जेमके मनुष्यत्वनी अन्तर्गत बालत्व, युवत्व, वृद्धत्व व. बालत्वनी अन्तर्गत स्तनन्धयत्व,
उपनयनसंस्कारयोग्यत्व व. २. प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनार्थक्रियाकारित्वोपलक्षितो व्यञ्जनपर्यायः - जैनतर्कभाषा पृ. २२ । ३. जे जेहनो त्रिकालस्पर्शी पर्याय ते तेहनो व्यंजनपर्याय - द्रव्य.रा.स्त.- १४.१ ४. येऽपि सदृशपर्यायास्तेऽपि सद्रव्यपृथिव्यादिवचनप्रतिपाद्या व्यञ्जनपर्यायाः - अनेकान्तव्यवस्था ५. व्यंजनपर्याय जे घटकुम्भादिशब्दवाच्यता - द्रव्य.रा.स्त.- ४.१३
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आनुं समाधान आम विचारी शकाय : नव्यन्यायमां घटभेदना अभावने घटत्वरूप गणवामां आवे छे. कारण के घटथी भिन्नता- घटभेद, घट सिवायना तमाम पदार्थोमां रहे छे. तेथी आ भेदनो अभाव फक्त घटमां ज मळे. अने त्यां ज घटत्व पण रहे छे. आम घटभेदाभाव अने घटत्व -बे समनियत धर्मो छे. अर्थात् ज्यां घटत्व छे त्यां ज घटभेदाभाव छे अने ज्यां घटत्व नथी त्यां घटभेदाभाव पण नथी. हवे, नव्यन्यायमां बे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवामां आवे छे.१ अने ते वास्तविक पण छे, कारण के जो ओ बन्ने ओक ज न होय तो अक सिवाय पण बीजी देखावी जोइओ, पण अq तो देखातुं नथी. माटे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवी जोइओ.२ हवे, आ ज वात प्रस्तुत सन्दर्भमां विचारीओ तो ज्यां मनुष्य शब्दथी व्यवहार्य अवो सदृशपरिणामप्रवाह छे त्यां ज मनुष्यशब्दनिरूपित वाच्यता छे अने ज्यां अवो परिणामप्रवाह नथी त्यां ओवी वाच्यता पण नथी. तो आ बन्ने ओक ज थया. अने तेथी सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्यायने शब्दवाच्यता तरीके ओळखावीओ तो कोई दोष नथी. बाकी आ रीते न विचारीओ अने व्यंजनपर्यायने वाच्यतारूप ज गणीओ तो अमां 'व्यंजनपर्याय भिन्न-अभिन्न बन्ने स्वरूप धरावे छे' ओ सन्मतिवचननी संगति करवी अशक्य छे. सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्याय स्वतन्त्र पर्यायरूपे अभिन्न (ओक) पण छे अने पर्यायोना समूहरूप होवाथी भाज्य (-अनेक) पण छे. तेथी तेमां ज सन्मतिवचननी संगति बराबर थाय छे.
हवे आवा अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने अनुलक्षीने प्रस्तुत गाथानो भावार्थ जोइओ३ : कोई पण अर्थपर्याय तेना धर्मीमां चोक्कस द्रव्य-क्षेत्र-काल अने भावनी अपेक्षाओ ज अस्तित्व धरावतो होय छे. तेना आ आपेक्षिक अस्तित्वनो १. द्वौ नौ प्रकृतमर्थं गमयतः, मतुबन्ताद् विहितो भावः प्रकृति बोधयति-आवी व्याकरणनी
परिभाषाओ पण आ ज भाव धरावे छे. २. आत्माना ज्ञान, दर्शन, चरित्र वगेरे पण समनियत धर्मो छे. तो तेने पण ओक ज गणवा ?
आवो प्रश्न थवो संभवित छे. पण अनुं समाधान ओ ज छे के आ धर्मो अकबीजाथी स्वतन्त्र
उत्कर्ष-अपकर्ष अने शक्तिओ धरावे छे तेथी तेमने अेक गणी शकाय नहीं. ३. सन्मतिकारने खुदने अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायना उपरोक्त अर्थ ज सम्मत छे ते दर्शावनारो
शास्त्रपाठ : "जेम पुरुषशब्दवाच्य जे जन्मादिमरणकालपर्यन्त ओक अनुगत पर्याय ते पुरुषनो व्यंजनपर्याय, सम्मतिग्रन्थइ कहिओ छइ. तथा बालतरुणादि पर्याय ते अर्थपर्याय कहिआ. तिम सर्वत्र फलावी लेवू. अत्र गाथा-पुरिसम्मि पुरिससद्दो० (सन्मति १.३२)"-द्रव्य.रा.स्त.-१४.६
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पूर्ण बोध सप्तभंगीमां पर्यवसित थाय छे. अने आ साते भांगामां धर्म तरीके तो ते अर्थपर्याय मोजूद होय ज छे. माटे आ अर्थपर्यायनी प्ररूपणा आपणे सात विकल्पे करी शकीओ. आ ज वात आ गाथाना पूर्वार्धमां कहेवाई छे– 'अत्थपज्जाएअर्थपर्यायमां (-तेने लगती प्ररूपणामां) एवं- उपर दर्शावेली रीते सत्तविअप्पोसात प्रकारनो वयणपहो- वचनमार्ग होइ- रचाय छे.'
सदृशपर्यायप्रवाहरूप व्यंजनपर्याय स्वयं शब्दवाच्य समूहरूपे अक (-निर्विकल्प') पण छे अने अनेक पर्यायोना समूहरूप होवाथी अनेक (-सविकल्प) पण छे. तेथी आपणे तेनी प्ररूपणा पण बे रीते करी शकीओ : १. व्यंजनपर्यायने तेना सामान्यस्वरूपे ज प्ररूपीओ, तेना भेदो न वर्णवीओ. आ वखते व्यंजनपर्याय-विषयक वचनमार्ग निर्विकल्प बने छे. २. व्यंजनपर्यायने तेना अन्तर्गत आवेला पर्यायात्मक विकल्पो साथे वर्णवीओ. जेमके, पुरुषपर्यायनी प्ररूपणा बाल, युवान, वृद्ध वगेरे भेदो साथे करीओ. तो ते वखते व्यंजनपर्यायविषयक वचनमार्ग सविकल्प बने छे. आ व्यवस्थाने अनुसरीने भांगा आम रचाय : 'स्यादेक एव पुरुषः, स्यादनेक एव पुरुषः' अत्रे व्यंजनपर्यायविषयक प्ररूपणामां सविकल्प प्ररूपणा के निर्विकल्प प्ररूपणा ओम बे ज विकल्पो संभवित छे. त्रीजो कोई मार्ग ज नथी.२ तेथी तेमां आपोआप त्रीजो भांगो रचातो नथी.३ आ ज वात आ गाथाना उत्तरार्धमां कहेवाइ छ : 'वंजणपज्जाए- व्यंजनपर्यायमां (-तद्विषयक प्ररूपणामां), उण- वळी, सवियप्पो- विकल्पो सहित य- अने णिव्वियप्पो- विकल्पोथी रहित (वचनमार्ग छे.)' मतलब के व्यंजनपर्यायनी प्ररूपणा स्वतन्त्र पर्यायरूपे पण करी शकाय अथवा तेने पर्यायसमूहरूपे पण वर्णवी शकाय. अत्रे वर्णवी तेवी सविकल्पत्व-निर्विकल्पत्वनी प्ररूपणा आ पूर्वे १.३२ थी १.३५ गाथामां वर्णवाइ छे ते आ भावार्थनी वास्तविकतानो सबळ पुरावो छे. वळी, १. निर्विकल्प = निर्भेद. गाथा १.३२मां विकल्प शब्द भेद अर्थमां वपरायो छे. २. सविकल्प अने निर्विकल्प उभयनी प्ररूपणा तो प्रमाणवाक्य बनी जाय के जेने भंग न
कहेवाय. तेथी त्रीजो विकल्प नथी ओम जणाव्युं छे. ३. अर्थपर्यायमां जे रीते पहेला बे भांगा छे, ते रीते व्यंजनपर्यायमा करवाना ज नथी. माटे
अर्थपर्यायनी सप्तभंगीगत त्रीजो अवक्तव्यनो भांगो, व्यंजनपर्यायमां थाय के न थाय ते विचारवानी जरूर नथी.
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आ प्रमाणे विचारवामां तर्कजाळथी दूर रहीने वास्तविकता सुधी पहोंची शकाय छे ते पण ध्यानार्ह छे.
अन्ते, पूर्व महर्षिओ अने तेओनां वचनो प्रत्ये अपार आदरभाव होवा छतां अत्रे ओमनां वचनोनी जे विचारणा करी छे तेमां ओक ज समज मुख्य रही छे के सप्तभंगी हेतुवाद अन्तर्गत आवे छे अने हेतुवादमां चर्चानां द्वार हमेशां खुल्लां ज रहे छे. आ समग्र लखाण विचारणात्मक छे. आ आम ज होय, आम नहीं ज ओवो कोई आग्रह नथी. बनी शके के पूर्वमहर्षिओनां वचनोनुं अर्थघटन दर्शावेली रीत करता जुदी रीते करवा- होय. तेथी आ समग्र विचारणामां रहेली क्षतिओ जो विद्वज्जनो सूचवशे अने जे वातो योग्य जणाय ते परत्वे पोतानी सम्मति जणावशे तो तेओओ फक्त मारा पर ज नहीं, पण नयवादना सर्व जिज्ञासुओ पर उपकार को गणाशे.
सन्दर्भसूचि सन्मतितर्क - वादमहार्णव-टीका साथे- गाथा १.३०-४१, कर्ता- श्रीसिद्धसेन
दिवाकर, टीका- श्रीअभयदेवसूरि, सं.- पं. श्रीसुखलालजी, पं.
श्रीबेचरदास दोशी, प्र.- RENSEN Book Co., Tokyo. सन्मतितर्कविवेचन- पृ. २२२-२२३, कर्ता- पं. श्रीसुखलालजी, पं. श्रीबेचरदास
दोशी, प्र.- गूजरात विद्यापीठ, अमदावाद. अनेकान्तव्यवस्था (सटीक)-भाग-२ पृ. २४६-२५६, कर्ता- उपा. श्रीयशोविजयजी,
टीका- श्रीविजयलावण्यसूरिजी, प्र.- लावण्यसूरि ज्ञानमन्दिर, बोटाद. द्रव्यगुणपर्यायरास-सस्तबक - गाथा ४.१३, १४.१-९, कर्ता- उपा. श्रीयशो
विजयजी जैनतर्कभाषा (सटीक) - पृ. २२, कर्ता- उपा. श्रीयशोविजयजी, टीका- पं.
श्रीसुखलालजी, प्र.- सरस्वती पुस्तक भण्डार, अमदावाद. नयरहस्य - कर्ता- उपा. श्रीयशोविजयजी । सप्तभङ्गीप्रभा- कर्ता- श्रीविजयनेमिसूरिजी, सं.- कीर्तित्रयी, प्र.- जैनग्रन्थप्रकाशन
समिति, खंभात. सप्तभङ्गीविंशिका (सविवेचन) गाथा १५-१९, कर्ता- श्रीअभयशेखरसूरिजी,
प्र.- दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोळका.
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सन्मतितर्कनी प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित मूळगाथाओ
दव्वट्ठियवत्तव्वं, सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं । आरद्धो य विभागो, पज्जववत्तव्वमग्गो य ॥१.२९॥ सो उण समासओ च्चिय, वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य । अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणविअप्पो ॥१.३०॥ एगदवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वा वि । तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥१.३१।। पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपज्जंतो । तस्स उ बालाईया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ॥१.३२।। अत्थि त्ति णिव्वियप्पं, पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि । सो बालाइवियप्पं, न लहइ तुल्लं व पावेज्जा ॥१.३३।। वंजणपज्जायस्स उ पुरिसो, पुरिसो त्ति णिच्चमवियप्पो । बालाइवियप्पं पुण, पासइ से अत्थपज्जाओ ॥१.३४।। सवियप्प-णिव्वियप्पं, इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं । सवियप्पमेव वा णि-च्छएण ण स निच्छिओ समए ॥१.३५।। अत्यंतरभूएहि य, णियएहि य दोहि समयमाईहिं । वयणविसेसाईयं, दव्वमवत्तव्वयं पडइ ॥१.३६।। अह देसो सब्भावे, देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ । नं दवियमत्थि णत्थि य, आएसविसेसियं जम्हा ॥१.३७।। सब्भावे आइट्ठो, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं अत्थि अवत्तव्वं, च होइ दविअं वियप्पवसा ॥१.३८।। आइट्ठोऽसब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं णत्थि अवत्तव्वं, च होइ दविअं वियप्पवसा ॥१.३९॥ सब्भावासब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं अत्थि णत्थि अवत्त-व्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥१.४०॥ एवं सत्तवियप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण, सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥१.४१।।
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वादमहार्णव-टीकागत प्रस्तुत गाथा- विवरण
अन्योन्यापरित्यागव्यवस्थितस्वरूपवाक्यनयानां शुद्ध्यशुद्धिविभागेन संग्रहादिव्यपदेशमासादयतां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावेव मूलाधार इति प्रदर्शनार्थमाह
एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए ।
वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥४१॥ एवं इत्यन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदः वचनमार्गो वचनपथः भवत्यर्थपर्याये अर्थनये सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रलक्षणे सप्ताऽप्यनन्तरोक्ता भङ्गका भवन्ति । तत्र प्रथमः सङ्ग्रहे सामान्यग्राहिणि, 'नास्ति' इत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः सङ्ग्रह-व्यवहारयोः, पञ्चमः सङ्ग्रहऋजुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहार-ऋजुसूत्रयोः, सप्तमः सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेषु । व्यञ्जनपर्याये शब्दनये सविकल्पः प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् । द्वितीय-तृतीययोनिर्विकल्पः द्रव्यार्थात् सामान्यलक्षणान्निर्गतपर्यायाभिधायकत्वात् समभिरूढस्य पर्यायभेदभिन्नार्थत्वात् एवम्भूतस्याऽपि विवक्षितक्रियाकालार्थत्वात् । लिङ्ग-संज्ञा-क्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दावाच्यत्वात् शब्दादिषु तृतीयः । प्रथम-द्वितीयसंयोगे चतुर्थः, तेष्वेव चाऽनभिधेयसंयोगे पञ्चम-षष्ठ-सप्तमा वचनमार्गा भवन्ति ।
अथवा प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेष्वेवाऽर्थनयेषु भवतीत्याह- एवं सत्तवियप्पो इत्यादिगाथाम् । अस्यास्तात्पर्यार्थः
____ अर्थनय एव सप्त भङ्गाः, शब्दादिषु तु त्रिषु नयेषु प्रथम-द्वितीयावेव भङ्गौ । यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तृस्थः सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राख्यः प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः, अर्थवशेन तदुत्पत्तेः, अर्थं प्रधानतयासौ व्यवस्थापयतीति कृत्वा, शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि तच्छब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्द-समभिरूढ-एवंभूताख्यः प्रत्ययस्तस्य शब्दः प्रधानं, तद्वशेन तदुत्पत्तेः, अर्थस्तूपसर्जनं, तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात्, स शब्दनय उच्यते । तत्र च वचनमार्गः सविकल्प-निर्विकल्पतया द्विविधः- सविकल्पं सामान्यं, निर्विकल्पः पर्यायः, तदभिधानाद् वचनमपि तथा व्यपदिश्यते । तत्र
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अनुसन्धान-५५
शब्द-समभिरूढौ सञ्जा-क्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः । एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवाऽर्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निविकल्पो द्वितीयभङ्ककरूपस्तद्वचनमार्गः । अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गकः व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्प-निर्विकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येण, 'तु'शब्दस्य गाथायामेवकारार्थत्वात् ॥४१॥
द्रव्यगुणरास-स्तबकगत प्रस्तुत गाथा- विवरण
शिष्य पूछइ छइ- "जिहां २ ज नयना विषयनी विचारणा होइ, तिहां ओक ओक गौण-मुख्यभावई सप्तभंगी थाओ. पणि जिहां प्रदेश-प्रस्थकादि विचारइं सात छ पांच प्रमुख नयना, भिन्न भिन्न विचार होइ, तिहां अधिक भंग थाइ, तिवारइं सप्तभंगीनो नियम किम रहइ ?"
___ गुरु कहइ छइ- "तिहां पणि ओक नयार्थनो मुख्यपणइं विधि, बीजा सर्वनो निषेध, इम लेइ प्रत्येकिं अनेक सप्तभंगी कीजइ".
अम्हे तो इम जाणुं छ. "सकलनयार्थ-प्रतिपादकतात्पर्यादधिकरणवाक्यं प्रमाणवाक्यम्" ओ लक्षण लेइनइं, तेहवे ठामे- स्यात्कारलांछित सकलनयार्थसमुहालंबन ओक भंगइ पणि निषेध नथी. जे माटि व्यंजनपर्यायनइ ठामि २ भंगइं पणि अर्थसिद्धि सम्मतिनइं विषई देखाडी छइ. तथा च तद्गाथा
एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए ।
वंजणपज्जाए पुण, सविअप्पो णिव्विअप्पो य ॥ १.४१ ॥
अहनो अर्थ- एवं- पूर्वोक्त प्रकारइ, सप्तविकल्प- सप्तप्रकार वचनपथसप्तभंगीरूप वचनमार्ग ते अर्थपर्याय, अस्तित्व-नास्तित्वादिकनई विषइ होइ. व्यंजन पर्याय जे घटकुम्भादिशब्दवाच्यता, तेहनइं विषई सविकल्प- विधिरूप, निर्विकल्प- निषेधरूप मे २ ज भांगा होइ, पणि अवक्तव्यादि भंग न होइ,
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जे माटि अवक्तव्य शब्दविषय कहिइं तो विरोध थाइ.
अथवा सविकल्प शब्द-समभिरूढ नयमतइं, अनइं निर्विकल्प अवम्भूतनयमतइं, इम २ भंग जाणवा, अर्थनय प्रथम ४ तो व्यंजनपर्याय मानइ नहीं. ते माटई ते नयनी इहां प्रवृत्ति नथी. अधिकुं अनेकान्तव्यवस्थाथी जाणवू.
तदेवमेकत्र विषये प्रतिस्वमनेकनयप्रतिपत्तिस्थले स्यात्कारलाञ्छिततावन्नयार्थप्रकारकसमूहालम्बनबोधजनक एक एव भङ्ग एष्टव्यः, व्यञ्जनपर्यायस्थले भङ्गद्वयवद् । यदि च सर्वत्र सप्तभङ्गीनियम एव आश्वासः, तदा-चालनीयन्यायेन तावन्नयार्थनिषेधबोधको द्वितीयोऽपि भङ्गः तन्मूलकाश्चाऽन्येऽपि तावत्कोटिकाः पञ्च भङ्गाश्च कल्पनीयाः, इत्थमेव निराकाङ्क्षसकलभङ्गनिर्वाहाद्, इति युक्तं पश्यामः ।
ओ विचार स्याद्वादपंडितइं सूक्ष्मबुद्धिं चित्तमांहि धारवो ॥४.१३।।
शब्दनयोमां अवक्तव्यभङ्ग केम ना मळे तेनी
अनेकान्तव्यवस्थागत चर्चा अवक्तव्यभङ्गस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता 'व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्पक-निर्विकल्पौ' प्रथम-द्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येणेति टीकाकृतो व्याचक्षते ।
___ अत्र वक्तरि यत् सप्तभङ्ग्यर्थज्ञानं तन्मानसोत्प्रेक्षोपनीतपदार्थसंसर्गभानरूपं, श्रोतरि तु शाब्दमेव तत् सम्भवति, अवक्तव्यं तु न शब्दविषयः किन्तु शब्दाभावविषय इति यद् व्यञ्जननयतात्पर्यमुन्नीतं तत् कथं सङ्गच्छते ?, शब्दाभावस्याऽप्रमाणत्वेन कस्याऽप्यर्थस्य तदविषयत्वात्, कथञ्चिन्मते शब्दानुपलब्धेः शब्दाभावविषयप्रमाणत्वेऽपि तां विना तद्विषयं विलक्षणं ज्ञानं मा जनि, अवक्तव्यपदाद् वक्तव्यत्वाभावविषयशाब्दबोधोत्पत्तौ किं बाधकम् ? नहि भावविषयक एव शाब्दबोधो भवति, न त्वभावविषयक इत्यत्र प्रमाणमस्ति,
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पदज्ञानादिकार्यतावच्छेदककोटौ भावशाब्दत्वप्रवेशे गौरवात्, 'घटो नास्ति' इत्यादेर्घटाभावादिबोधस्य सार्वजनीनत्वाच्च ।
तत्रापि नञ उपसर्गवद् द्योतकतया तात्पर्यग्राहकत्वमात्रमेव, घटपदस्य घटप्रतियोगिके लक्षणाध्रौव्येऽभावान्तर्भावेनैव तस्या युक्तत्वादिति चेत् ? न- 'न न घट:' इत्यत्रैकस्माद् घटपदाद् घटत्व - घटाभावाभावत्वाभ्यामेकदा शक्तिलक्षणाभ्यां बोधासम्भवेन नञः पृथक्शक्तिकल्पनावश्यकत्वाद्; द्योतकत्वपक्षेऽपि 'घटो नास्ति' इत्यादिवाक्यरीत्यैव 'स्यादवक्तव्यो घटः' इत्यतोऽवक्तव्यत्वबोधाप्रतिरोधाच्च । तस्मान्नाऽयं प्राञ्जलः पन्थाः ।
किन्तु कथञ्चिदवक्तव्यत्वमिह 'एकपदजन्यप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधाविषयत्वम्' । तद्बोधनं त्वर्थनये मानसोत्प्रेक्षोपस्थित-खण्डशःप्रसिद्धपदार्थासंसर्गाग्रहमात्रात् कथञ्चित्संसर्गग्रहाद् वा सम्भवति । व्यञ्जननये तु तन्न सम्भवति, ‘असतो णत्थि णिसेहो' इत्यादि भाष्यकृद्वचनादुक्तविशिष्टप्रतियोगिनोऽसिद्ध्या तदभावस्याऽप्यसिद्धत्वात् पदार्थमर्यादया वाक्यार्थमर्यादया वा बोधयितुमशक्यत्वात् ।
न च स्यात्पदसमभिव्याहृतावक्तव्यपदात् प्रकृते खण्डशः शक्त्या बोधः सम्भवति, एकपदार्थयोः परस्परमन्वयबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वात्, अन्यथा हरिपदादुपस्थितयोः सिंह-कृष्णयोराधाराधेयभावसम्बन्धेनाऽन्वयबोधप्रसङ्गादिति सूक्ष्मेक्षिकामनुसरता व्यञ्जनननयेन प्रकृते नञ्व्यत्यासादेकपदाजनितप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधविषयत्वं स्यादवक्तव्यत्वं वाच्यं तच्च भङ्गद्वयार्थमादाय पर्यवस्यतीति व्यञ्जननये द्वावेव भङ्गाविति व्याख्यातृतात्पर्यं सुष्ठु घटामटाट्यते । देशकृतश्चतुर्थभङ्गस्तु व्यञ्जननयेन शुद्धेन देश्यतिरिक्त– देशाभावादेव नोद्भावनार्ह इति विभावनीयं सुधीभिः ॥
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भारतीय हस्तपतोनां सूचिपत्रो : औतिहासिक परिप्रेक्ष्यमां विवेचनात्मक अभ्यास
मणिभाई प्रजापति
१. प्रस्तावना :
प्राचीन-मध्यकालीन हस्तप्रतोनी संख्यानी दृष्टि भारतनी विश्वना सौथी समृद्ध देशोमां गणना करवामां आवे छे. आ हस्तप्रतो भारतनी सांस्कृतिक धरोहर छे, के जेमां प्राचीन - मध्यकालीन युगमां भारते साहित्य, धर्म-दर्शन, विज्ञान, कला वगेरे क्षेत्रे मेळवेल सिद्धिओनुं दर्शन थाय छे. बिस्वास अने प्रजापतिना सर्वेक्षण अनुसार भारतमां ५० लाखथी अधिक हस्तप्रतो प्राप्त छे. आ पैकी अंदाजित ६७% संस्कृत, प्राकृत, पालि, २५% आधुनिक भारतीय भाषाओनी अने ८% अरेबिक, पर्शियन वगेरे हस्तप्रतो छे. आ बधी हस्तप्रतो ज्ञानविश्वना विविध विषयोमां भारतनी विविध प्राचीन अने आधुनिक भाषाओ जेम के संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी, बंगाळी, गुजराती, उडिया, मराठी, कन्नड, तमिल, मलयालम, तेलुगु, पंजाबी, काश्मिरी, उर्दू वगेरेमां अने विविध लिपिओमां उदा. तरीके देवनागरी, शारदा, बंगाळी, ग्रन्थ, गुरुमुखी, गुजराती, कन्नड, मलयालम वगेरेमां अने विविध माध्यमोमां जेम के भोजपत्र, ताडपत्र, कागळ, कापड वगेरे उपर लखायेली छे. आ बधी हस्तप्रतो विविध प्रकारनी सार्वजनिक, सरकारी, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओ अने अंगत मालिकीना संग्रहोमां संगृहीत छे. भारतीय हस्तप्रतो भारत उपरान्त विदेशोनां विविध प्रकारनां ग्रन्थालयोमां पण संगृहीत छे. आ पैकी अंदाजित ६०,००० जेटली हस्तप्रतो युरोप अने अमेरिकामां अने १,५०,००० जेटली हस्तप्रतो पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाळ, श्रीलंका, तिबेट, चीन, जापान वगेरे देशोमां संग्रहायेली छे. १ २. हस्तप्रत सूचिकरणनी विभावना :
सामान्यत: सूचिकरण (Cataloguing )नो मूळभूत हेतु कोई अक ग्रन्थालयमां कोई ओक कर्ता के कोई ओक शीर्षक के कोई ओक विषय ठळनुं पुस्तक प्राप्य छे के केम ते जाणवानो रह्यो छे. हस्तप्रत संग्रह कक्षमां
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अनुसन्धान-५५
उपभोक्ताने प्रवेशनी अनुमति आपवामां आवती न होवाथी रुबरुमां आवनाराओओ तेमज दूरना उपभोक्ताओओ इच्छित हस्तप्रतनी पसंदगी करवा माटे सूचिपत्रनो आधार लेवानो होवाथी विविध प्रकारना उपभोक्ताओनी मांग संतोषी शके ते रीते तैयार करवू जरुरी बनी रहे छे. मुद्रित पुस्तकनी तुलनामे हस्तप्रतनी केटलीक आगवी खासियतो छे के जे कोई हस्तप्रतनी शोध माटे महत्त्वपूर्ण घटक तरीकेनी भूमिका अदा करता होवाथी हस्तप्रतोनुं सूचिकरण करतां प्रत्येक घटकने ध्याने लेवो जरूरी बनी रहे छे. कोई अंक हस्तप्रतना कर्ता, शीर्षक के विषय उपरान्त टीकाकार, भाषा, हस्तप्रत लेखन- माध्यम, हस्तप्रतनुं माप, लेखन-समय, पूर्ण के अपूर्ण, हस्तप्रतनी स्थिति, लिपि, लिपिकर्ता, आदि-अन्त अने प्रशस्ति वगेरे बाबतोनो हस्तप्रतना सूचिकरणमा समावेश करवो जोइओ. Ricci अने Wilsonओ हस्तप्रत सूचिकरणना हेतुओ दर्शावतां Frezje To "To provide descriptions complete enough to identify each manuscript for all time, avoiding thereby all possible confusion with others copies of the same text, and providing adequate data for serch if the manuscript be lost or stolen.”R
संक्षेपमा प्रत्येक हस्तप्रतनी आगवी विशेषताओने ध्याने लेतां सूचिकारे ओक ज कर्तानी एक ज कृतिनी अकथी वधु नकलोनू सूचिकरण करतां प्रत्येक नकल ओक बीजाथी अलग रीते ओळखी शकाय ते रीते हस्तप्रत सम्बन्धी विविध विगतोनो समावेश करी तेनी नोंध करवी जोइओ. मुद्रित पुस्तकना किस्सामां कोई ओक ज कर्तानी कोई ओक कृतिनी कोई अक आवृत्तिनी बधी नकलो समान होय छे, परन्तु हस्तप्रतना किस्सामां आ बाबत शक्य नथी. ओक ज कृतिनी नकलो लिपि, लेखनकला, लिपिकार, लेखनसमय, लेखन-माध्यम, सचित्रता, क्षेपक, होशियामां नोंधो, हस्तप्रतना स्थानान्तरणोनो इतिहास, लहियानी प्रशस्ति वगेरेनी द्रष्टिो ओक बीजाथी स्वाभाविक रीते ज भिन्न होय छे, जे ध्याने लेवू रह्यु.
__सामान्यतः हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो (Catalogue) कृति ओळखनाराओने ध्याने लइने तैयार करवामां आवे छे. अर्थात् कृति खोळनाराओनी जरूरियातो पूरी पाडे तेवां होय छे. परंतु ते ध्याने लेवू रह्यु के हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो
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चित्रकारो, चित्रकलाना इतिहासकारो, लिपिवेत्ताओ, लेखनकलाना माध्यममां रस धरावनाराओ वगेरेने पण खपमा लागी शके छे. आ बधाओनी जरूरियातो संतोषे ते रीते तैयार करवां जोइओ. अर्थात् हस्तप्रतना सूचिपत्रमां कोई हस्तप्रतमां चित्रो आपवामां आव्यां होय तो तेमां वापरवामां आवेला रंगो, चित्रनुं माप, चित्रनो विषय, चित्रकार, नाम, लिपिकलानी द्रष्टिले हस्तप्रत महत्त्वपूर्ण होय तो तेनी नोंध, अकथी वधु लहियाओ द्वारा लखवामां आवी होय तो तेनी विगतो, बांधणी वगेरे बाबतोनी नोंध करवी जोइओ२. ३. हस्तप्रत सूचिकरण अने सूचिपत्रोनो उद्भव अने विकास : भारतीय अने वैश्विक परिप्रेक्ष्यमां :
सूचिपत्रोनो उद्भव तपासतां पूर्वे भारतमां लेखनकलानो विकास अने ग्रन्थालयोनी स्थापना क्यारथी शरु थई ते तरफ दृष्टिपात करवो जरूरी बनी रहे छे. भारतमा सिन्धु संस्कृति ई.स.पूर्वे ३२००-२८००ना समयगाळामां विकसी हशे तेम मानवामां आवे छे. आ समयगाळा दरम्यान लेखनकळानो विकास केटला अंशे थयो हशे ते अंगे आज सुधी खास आधारो प्राप्त थया नथी. चित्रात्मक लेखननी छापो के मुद्राओ प्राप्त थई छे, जे ४१७ जेटलां चिह्नो धरावे छे.४ आ लिपि पण उकेली शकाई नथी. बीजी बाजु ई.स.पूर्वे पांचमी शताब्दी अने त्यारबाद रचायेला विविध ग्रन्थो जेमके अष्टाध्यायी, कौटिल्य अर्थशास्त्र, ललितविस्तर, विनयपिटक वगेरेमा लेखनकला अने प्रचलित लिपिओ विशेना उल्लेखो जोवा मळे छे. भारतमा प्रवर्तमान समयमा प्राचीनतम ज्ञात लेखनकलानो नमूनो अटले अशोकना शिलालेखो (ई.स.पूर्वे २७३-२३२). जोके आ शिलालेखो पूर्वे भारतमा प्रचलित लेखनकलाना केटलाक अवशेषो प्राप्त थया छे, जेमके ई.स.पूर्वे ४८७-४८३नो पिप्रहवामांथी माटीना वासण उपरनो अभिलेख, ई.स.पूर्वे ४थी सदीनो ओरान सिक्को तथा सोहगौर (जि. गोरखपुर)- ताम्रपत्र. प्रो. घोषालकर शास्त्री वगेरे विद्वानो भारतमां लेखनकळानो उद्भव ईस.पूर्व ८मी शताब्दी माने छे. भारतमां लेखनकलानो विकास खूब मोडो थवा पाछळनां मुख्य कारणो पैकी मुखस्थ शिक्षण प्रणाली, धर्मग्रन्थोनुं लेखन न करवानी प्रथा वगेरे कारणो जवाबदार गणावी शकाय. ज्यारे इजिप्तनी संस्कृतिमां ई.स.पूर्व १८०० के ते पूर्वेना लेखनकळाना नमूनाओ प्राप्त छे.५
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लेखनकलाना प्रारम्भ अंगे कोई आधारभूत माहिती प्राप्त नथी तेवा संजोगोमां पहेलुं पुस्तक कयुं लखायुं हशे अने त्यारबाद प्रथम ग्रन्थालय क्यां शरु करवामां आव्युं हशे ते सम्बन्धी आपणी पासे कोई ज माहिती आजे उपलब्ध नथी. ग्रन्थालय के ग्रन्थालयो शरु थया पछी पण ते ग्रन्थालयोनां सूचिपत्रो (Catalogues) केवा स्वरूपमां तैयार करवामां आव्यां हशे ते पण ओक शोधनो विषय बनी रहे छे. कारण के प्राचीनतम ज्ञात उपलब्ध सूचिपत्र ओ कोई अज्ञात सूचिकर्ता द्वारा सम्पादित "बृहटिप्पनिकानामप्राचीनजैनग्रन्थसूचि" छे के जेनो रचनाकाळ ई.स. १३८३ छे. आ सूचिपत्रमा वणित ६५३ हस्तप्रतो विषयानुसार गोठववामां आवी छे अने प्रत्येक कृतिना कर्ता, लेखक, लेखनसमय अने पत्रसंख्या सम्बन्धी माहिती आपवामां आवी छे. आ सूचिपत्र पण कोई ओक भण्डारनी प्रतोतुं नथी. परंतु तेमां पाटण, खंभात अने भरुचना भण्डारोनी प्रतोनी माहिती आपवामां आवी छे. आ सूचिपत्र- सम्पादन मुनि जिनविजयजी द्वारा करवामां आव्युं छे, जे 'जैन साहित्य संशोधक'ना पुस्तक १ अंक २मां मुद्रित करवामां आव्युं छे. आ ज सूचिपत्र, स्वतन्त्र पुनःमुद्रण ताजेतरमां ज मुनि प्रद्युम्नविजयजीओ कराव्युं छे. प्राचीन भारतमां तक्षशीला, वलभी, नालंदा, विक्रमशीला वगेरे विश्वविद्यालयो अने तेनां ग्रन्थालयो सम्बन्धी भारतीय अने विदेशी स्रोतोमा उल्लेखो जोवा मळे छे. परंतु, आ ग्रन्थालयोनां सूचिपत्रो के तेना व्यवस्थापन सम्बन्धी कोई ज माहिती प्राप्त नथी. भारत हस्तप्रतोनी दृष्टिले सौथी धनिक देश, परन्तु हस्तप्रतविद्या विशे ओक पण स्वतन्त्र ग्रन्थ रचायो होय तेवू जाणमां नथी. हा, लहियाओनी पुष्पिकाओमां हस्तप्रत संरक्षण सम्बन्धी केटलीक माहिती आपवामां आवी छे अने केटलाक टीकाकारो ओ पाठसम्पादन विशे थोडीक चर्चाओ करी छे. उदा. तरीके महाभारतना टीकाकार नीलकण्ठ चतुर्धरे पोतानी भावदीप टीकाना प्रारम्भमां ज आ सम्बन्धी ठीक ठीक चर्चा करी छे. आ उपरान्त आनन्दतीर्थे 'महाभारततात्पर्यनिर्णय' मां, निरुक्तव्याख्याकार देवराज वगेरेओ आ सम्बन्धी प्रसंगोचित उल्लेखो कर्या छे.६ जो के लेख, दस्तावेज वगेरे लखवा सम्बन्धी ग्रन्थो 'लेखपद्धति' (संपा. सी.डी.दलाल, गायकवाड ओरिओन्टल सिरिझ) अने 'लेखपंचाशिका' ग्रन्थो प्राप्त छे. सूचिपत्रो अने सूचिकरण सम्बन्धी ग्रन्थोनी प्राप्तिनो अभाव तेमज ते सम्बन्धी उल्लेखोनो अभाव ध्याने लेतां सहज प्रश्न उद्भवे के प्राचीन भारतमां आ कलानो विकास
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थयो हशे के केम ? कारण के १४मी सदी बादनी पण जे सूचिओ उपलब्ध छे ते सरळ यादीओ समान छे. उदा. तरीके १७मी सदीना बनारसना पण्डित सर्वविद्यानिधान कविन्द्राचार्यनुं सूचिपत्र (संपा. आर.ओ. शास्त्री, गा. ओ. सि. १७, १९२१), मुनि पुण्यविजयजीओ शोधेल जेसलमेरना ज्ञानभण्डारनी ई.स. १७५२नी टीप- सूचि, डॉ. के.वी. शर्मा (अडियार) अ तेमना लेख 'Manuscripts Repositories in Kerala' मां मध्यकालीन समयनां हस्तप्रतोनां केटलांक सूचिपत्रो केराला युनिवर्सिटी मेन्युस्क्रिप्ट्स लाईब्रेरीमां उपलब्ध छे तेनी विगतो साथे चर्चा करी छे.
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भारतमां पाचीन-मध्ययुगीन समयनां नहिवत मात्रामां प्राप्त सूचिपत्रोना आधारे मल्लिनाथी सूत्र ‘नाऽमूलं लिख्यते किञ्चित्'ने ध्याने लई नोंधवुं रह्युं के भारते आ समय दरम्यान हस्तप्रतोना सूचिकरण क्षेत्रे कोइ नोंधपात्र प्रगति करी नहीं होय तेम प्रतीत थाय छे. आम छतां, प्रस्तुत विषय सन्दर्भे मुनि भगवन्त पुण्यविजयजी महाराज साहेबनो आशावाद द्रष्टव्य बनी रहे छे : “प्राचीन समयमां ज्ञानभण्डारोनी टीपो ओटले के पुस्तकनी यादी केवा रूपमां थती हशे अ जाणवानुं आपणी पासे खास कशुं ज साधन नथी; तेम छतां लगभग बसो-त्रणसो वर्ष पहेलांनी जे प्राचीन टीपो जोवामां आवी छे से उपरथी ओटलुं अनुमान थई शके छे के आजकाल जेवी विशद टीपो थाय छे - अर्थात् अमां जेम दाबडानो नंबर, प्रतनो नंबर, ग्रन्थनाम, पत्रसंख्या, भाषा, कर्ता, रचनासंवत, लेखनसंवत, विषय, ग्रन्थनी लंबाई - पहोळाई वगेरेनी माहिती आपवामां आवे छे - तेवी नहोती ज थती. ओ टीपोमां मात्र दाबडो, प्रतनो नंबर, ग्रन्थनाम, पत्रसंख्या अने कोई कोई वार ग्रन्थकारनुं नाम ओटलुं ज नोंधवामां आवतुं. अहीं ओक वात स्पष्ट करवी उचित जणाय छे के आजकाल जेवी विशद टीपो थाय छे तेवी टीपो जूना जमानामां नहि ज थती होय अथवा आ जानो कोईने सर्वथा ख्याल सरखोये नहि होय ओम मानवाने कशुं ज कारण नथी.
७
आपणे सौ जाणीओ छीओ के भारत विश्वनी प्राचीनतम ५ संस्कृतिओ पैकीनो ओक देश छे. अन्य प्राचीन संस्कृतिओमां अने त्यारबाद युरोपमां प्रस्तुत विषय सन्दर्भे थयेल विकास अने उपलब्ध प्रमाणोना आधारे भारतमां सूचिकरण
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क्षेत्रे नहिवत प्रगति सन्दर्भे आगळ उपर नोंधेल विधान करवा बाध्य थर्बु पडे छे. उदा. तरीके विश्वनुं ई.स. पूर्वे २०००- प्राचीनतम ज्ञात सूचिपत्र Nipper मांथी मळी आव्युं छे. आ सूचिपत्र ईंटो उपर उत्कीर्ण छे, के जेमां ६२ कृतिओनी यादी आपवामां आवी छे. आ पैकी २४ कृतिओ साहित्यनी छे. ईजिप्तमां Nineveh शहेरमांथी ई.स.पूर्वे ६५० आसपासना समयनी माटीनी ईंटो उपर उत्कीर्ण केटलीक सचिओ मळी आवेल छे, जेमां शीर्षक, कतिनी ईंटोनी संख्या, लहियानुं नाम, राजानी मुद्रा, प्रशस्ति वगेरे सम्बन्धी माहिती वर्णवेल छे. ईजिप्तना EDFUना मन्दिरनी दिवालो उपर ई.स.पूर्वे ३००-२००मां उत्कीर्ण सूचिपत्र मळी आव्युं छे. एलेक्झान्ड्रिया लाईब्रेरीना विख्यात सूचिकार Callimachus (250B.C.) द्वारा १२० ग्रन्थोमां प्रमुख विषयोमां विभाजित विस्तृत सूचिपत्र तैयार करवामां आव्युं हतुं तेना आजे केटलाक अवशेषो ज उपलब्ध छे. युरोपमां ५ थी १५मी सदी दरम्यान धार्मिक मठो शिक्षणनां केन्द्रो उपरान्त हस्तप्रतोना उत्पादन अने संरक्षणनां केन्द्रो हतां. केटलांक मठोनां उपलब्ध सूचिपत्रो पैकी १०मी सदीनुं Carolingian Monastery, Lorsch नुं सूचिपत्र आजे प्राप्य छे के जे 'Not only the most comprehensive but also the most detailed catalog' गणवामां आवे छे.१० आ सूचिपत्रमा ६०० हस्तप्रतोने प्रमुख विषयो हेठळ विभाजित करीने प्रत्येक कृतिनुं शीर्षक, अज्ञात शीर्षकवाळी कृतिना प्रारम्भना शब्दो, पूर्ण के अपूर्ण वगेरे झीणी झीणी विगतो ध्यानथी नोंधवामां आवी छे. Theodor Gottlieb द्वारा ९मी सदीनां २४, १०मी सदीनां १७, ११मी सदीनां ३० अने १२मी सदीनां ६२ सूचिपत्रोनी यादी तैयार करवामां आवी छे.११ आम, आ बधां उपलब्ध प्रमाणोना आधारे स्पष्ट प्रतीत थाय छे के आ बधा देशोओ लेखनकला अने सूचिकला क्षेत्रे भारतनी तुलनाओ घणो सारो विकास साध्यो हतो. ४. हस्तप्रतोना सूचिकरणनी समस्याओ : ४.१ अज्ञातकर्तृत्व अने समाननामधारी कर्ताओनी रचनाओ :
___ संस्कृत-प्राकृत-पालिमां रचायेला आर्षग्रन्थो अने अन्य केटलीक साहित्यिक कृतिओ अज्ञात-कर्तृत्ववाळी जोवा मळे छे. विश्वविख्यात तत्त्वचिन्तक डॉ. राधाकृष्णने नोंध्युं छे के भगवद्गीतानो लेखक कोण छे ते अमे जाणता
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नथी. मध्यकालीन समयमां गुजरातीमां रचायेल 'वसन्तविलास' पण अज्ञातकर्तृत्ववाळी कृति छे. आ प्रकारनी असंख्य कृतिओना कर्तृत्वनो प्रश्न आजे पण उकेली शकायो नथी. आ ज रीते केटलाक कर्ताओ कृतिमां कर्ता तरीके पोतानुं नाम दर्शावे छे, परंतु नाम सिवाय अन्य कोई माहिती आपता नथी. परिणामे समाननामधारी कर्ताओनी कृतिओनुं सूचिकरण करतां कया कर्ताना नामे आ कृति नोंधवी ते अक मोटो प्रश्न बनी रहे छे. कर्ता पोताना मातापिता, जन्मस्थळ, समय, पोताना गुरु के आश्रयदाता राजा वगेरेनो उल्लेख करे तो ते कर्ताने सरळताथी अन्य समाननामधारी कर्ताओथी अलग तारवी शकाय. प्राचीन भारतीय सर्जकोमां आ प्रकारना औतिहासिक अभिगमना अभावना कारणे केटलाक पाश्चात्त्य अने भारतीय विद्वानो ' भारतीयोमां औतिहासिक दृष्टिनो अभाव छे' तेवां म्हेणां मारतां खचकाता नथी. आ सम्बन्धी Theodor Aufrecht से ‘Catalogus Catalogorum'ना प्रथम खण्डमां नोंध्युं छे के Lack of interest in historical truth in India is so great, that difficulties meet the enquirer at every stage.
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४.२ आरोपित कृतित्व :
अर्थात् attributed authorship से पण ओक मोटी समस्या छे उदा. तरीके महर्षि वेदव्यासना नामे असंख्य कृतिओनुं कर्तृत्व आरोपित छे. आ बधी कृतिओनो साचो कर्ता कोण ? अन्यना नामे पोतानी कृति चढाववा पाछळनी घेलछा पाछळ बे मुख्य कारणो जवाबदार छे : प्रथम तो प्रसिद्ध कर्ताना नामे पोतानी कृति प्रसिद्धि पामशे अने बीजुं न्योछावर भावना.
४. ३ भाषा अने लिपिनी वैविध्यता :
भारतीय हस्तप्रतो अनेकविध भाषाओ अने लिपिओमां लखायेली छे. आ बधी हस्तप्रतो भाषाना सीमाडाओ बहारना संग्रहोमां पण संगृहीत होवाथी परप्रान्तीय भाषाज्ञान के लिपिज्ञानना अभावे आ प्रकारनी हस्तप्रतो सूचि थया वगर पडी रहे छे. सूचिकार बधी ज भाषाओ के लिपिओ न पण जाणतो होय त्यारे स्वाभाविक छे के आ प्रकारनी हस्तप्रतोनुं सूचिकरण करवुं कठिन बने छे. उदा. तरीके पाटणना हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरमां दक्षिण भारतीय लिपिओनी केटलीक प्रतोनी सूचि थई शकी नथी.
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४.४ गुटका अने मिश्र कृतिओ :
घणीवार ओक ज पोथीमां सळंग अनेक कर्तानी नानी-मोटी रचनाओ लखवामां आवती होय छे. आवा किस्सामा हस्तप्रतनुं ध्यानथी निरीक्षण कर्या सिवाय फक्त प्रारम्भनी कृतिनुं सूचिकरण करीने अन्य पानां छोडी देवामां आवे तो अनेक कृतिओ सूचि थया विनानी पडी रहे ते शक्यता नकारी शकाय नहीं. परिणामे सूचिकारे हस्तप्रतना रचनाविधानथी परिचित रहेवू जोइओ. 'गुटका'मां अकथी अधिक कर्ताओनी अकथी अधिक कृतिओ होय छे. 'गुटका' सिवायनी अन्य हस्तप्रतोमां पण कवचित ओक के ओकथी वधु कर्ताओनी कृतिओनुं लेखन थयेलुं जोवा मळे छे.. ४.५ ग्रन्थनाम पृष्ठनो अभाव :
____ मुद्रित पुस्तकनी जेम हस्तप्रतना किस्सामां ग्रन्थनाम पृष्ठनो अभाव होय छे. परिणामे कृतिनुं शीर्षक, कर्ता, लेखन वगेरेनी माहिती हस्तप्रतमांथी शोधीने लखवानी रहे छे. सामान्य रीते ग्रन्थान्तेनी प्रशस्तिमां आ प्रकारनी विगतो आपवामां आवे छे. क्वचित ग्रन्थारम्भे पण आ माहितीनो निर्देश करवामां आवे छे. अर्थात् मुद्रित पुस्तकमां आ माहिती तैयार मळी रहे छे, ज्यारे हस्तप्रतना किस्सामा सूचिकरण माटे जरूरी विगतो शोधवानी रहे छे. ४.६ शीर्षकनो अभाव अने समाननामधारी कृतिओ अथवा अक कृतिनां
अनेकनाम :
क्वचित घणी हस्तप्रतोमां तेना शीर्षकनो निर्देश जोवा मळतो नथी, तो क्वचित समाननामधारी कृतिओनी बहुलता के अक कृतिनां अनेकनामोनी समस्या सूचिकरण माटे प्रश्नो पेदा करे छे. उदाहरण तरीके ब्रह्मसूत्र विविध नामोथी ओळखाय छे, जेमके वेदान्तसूत्र, व्याससूत्र, ब्रह्ममीमांसा, शारीरिक मीमांसा, उत्तरमीमांसा वगेरे. ४.७ क्षेपको :
कर्तानी मूळ कृतिओमां अन्यो द्वारा करवामां आवतां उमेरणो - interpolation - थी मूळ पाठ शोधवो कठिन कार्य बनी जाय छे. उदा. तरीके महाभारत, पुराणो वगेरे कोई ओक कर्ताना कृतित्ववाळी रचनाओ रही ज नथी.
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४.८ लेखनशैली :
सूचिकार हस्तप्रत-लेखनशैलीथी अनभिज्ञ होय तो पण अनेकविध समस्याओ पेदा करी शके छे. उदा. तरीके हस्तप्रत लखवानी पद्धतिओ जेम के द्विपाठ, त्रिपाठ, पंचपाठ वगेरे. अटले के मूळ पाठ कयो अने टीका कई छे तेनो भेद पारखतां आवडवू जोइओ. क्वचित पृष्ठ संख्या आंकडामां न दर्शावतां संज्ञात्मक अक्षरोमां दर्शाववामां आवे छे. उदा. तरीके स्व ०=१०, स्ति o=२०, ओक o=४०, स्व ० ०=१००, स्व स्व ल=११५, अक ० ०=४०० वगेरे. ध्याने लेवू के आ अक्षरांको सीधी लीटीमां नही परंतु उपर नीचे लखवामां आवे छे. ग्रन्थनी समाप्ति थये 'भले मीडां' अने अन्य चिह्नोनो प्रयोग, ग्रन्थारम्भनां चिह्नो, लेखनवर्ष के रचनावर्ष दर्शाववा शब्दांकोनो प्रयोग वगेरेथी सूचिकार सुपरिचित होवो जोईओ. अन्यथा सूचि भूल भरेली बनी रहे छे. आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजीओ 'भारतीय जैन श्रमणसंस्कृति अने लेखनकळा'मां लेखनशैली विशे विगते समजूति आपी छे. अहीं नोंधेल उदाहरणो प्रस्तुत ग्रन्थना आधारे आपेलां छे. उदा. तरीके बोस्टन म्युझियममां संगृहीत अक प्रतमां 'चंद्रगजरसधरा' शब्दांकोना माध्यमथी वि.सं. १६८१नो निर्देश करवामां आव्यो छे. ४.९ छूटां पानां :
प्रायः हस्तप्रतोनी बांधणी करवामां आवती न होवाथी ते छूटां पान स्वरूपे जोवा मळे छे. परिणामे कवचित केटलांक पान ओक-बीजामां भळी जवाथी के छूटां पडी जवाथी मूळ कृति साथे मेळ बेसाडवामां प्रश्नो पेदा थाय छे. घणां भण्डारोमां आवां छूटां पाननी समस्या जोवा मळे छे. ४.१० सूचिकार माटे आवश्यक साधनिक स्रोतोनो अभाव :
सूचिकरण माटे विविध प्रकारना सन्दर्भग्रन्थो जेमके विश्वकोशो, वाङ्मयसूचिओ, शब्दकोशो, लेखककोश, निर्देशिकाओ, विवरणात्मक सूचिपत्रो वगेरे अनिवार्य बनी रहे छे. जेनो उपयोग ओछो थतो जोवा मळे छे. संस्कृत हस्तप्रतोना सूचिकरण माटे 'New Catalogus Catalogorum' अेक महत्त्वपूर्ण आधार स्रोत छे. परंतु ते पूरेपूरो तैयार थयो नथी, तेमज बीजी मोटी समस्या ओ के मोटा ग्रन्थालयोमां पण तेना केटला खण्डो उपलब्ध हशे ते शोधq
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रह्यं. आ उपरान्त अंग्रेजी लेखको माटे मेयर्स अन्ड मेयर्सना लेखककोश जेवो संस्कृतना लेखको माटेना Comprehensive and exhaustive कोशनो अभाव छे. ५. भारतीय हस्तप्रतोनुं सर्वेक्षण अने सूचिपत्रो : औतिहासिक परिप्रेक्ष्यमां विश्लेषण :
भारतमां पोर्टगीझ पादरीओओ सौ प्रथम गोवामां ई.स. १५५६मां प्रिन्टींग प्रेसनी स्थापना करी हती. परंतु प्रायः १८मी सदी सुधी तेनो खास प्रभाव जोवा मळतो नथी. गुजराती भाषानुं प्रथम ज्ञात पुस्तक छेक १८०८मां प्रगट थयुं हतुं. हस्तप्रतोना सर्वेक्षण अने सूचिपत्रोना प्रकाशन प्रवृत्तिने नीचे दर्शाव्या मुजब मुख्य ४ तबक्काओमां वहेंची शकाय.
१. प्रारम्भिककाळ (१७३९ थी १८६८) २. सुवर्णयुग (१८६९ थी १९००) ३. राष्ट्रीय जागृतिकाळ (१९०१ थी १९४७)
४. स्वातन्त्र्योत्तरकाळ (१९४७ थी आज दिन सुधी) ५.१ प्रारम्भिककाळ (१७३९ थी १८६८)
भारतमां प्राचीन समयथी राजा-महाराजाओ, धार्मिक संस्थाओ, विद्यालयो अने पण्डितवर्ग पोतपोताना अंगत हस्तप्रत संग्रहो धरावता हता अने तेनी सामान्य सूचिओ पण तैयार करवामां आवती हती, जेनां प्रमाणो आजे पण उपलब्ध छे. प्रस्तुत अभ्यासमां मात्र प्रकाशित हस्तप्रत सूचिपत्रो अने अहेवालोने ध्यानमां लेवामां आव्यां छे. २८७ भारतीय हस्तप्रतो वर्णवतुं प्रथम सूचिपत्र पेरिसमांथी १७३९मां प्रगट थयुं हतुं, जे आ अभ्यासतुं प्रारम्भ बिन्दु छे. आ समयगाळानी सौथी मोटी अँतिहासिक घटना भारतमा प्रारम्भमां ईस्ट इन्डिया कंपनी, अने त्यारबाद इंग्लेन्डनी राणी, शासन स्थपायु. परिणामे राजकीय अने अन्य परिवर्तनो उपरान्त प्रस्तुत अभ्यास साथे प्रत्यक्ष या परोक्ष रीते प्रभावक परिबळ ते पाश्चात्त्य ढबे अंग्रेजी शिक्षण प्रणालीनो प्रारम्भ थवो. ब्रिटिश सनदी अधिकारीओओ भारतीय भाषा-साहित्यमां रस लइने तेनो सघन अभ्यास करी पाश्चात्त्य विद्याजगतने भारतीय विद्यानी समृद्धिनो परिचय कराव्यो. बंगाळानी सुप्रिम कोर्टना न्यायाधीश अने प्रखर पौर्वात्यविद सर विलियम
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जोन्सओ ई.स. १७८४मां ओशियाटिक सोसायटीनी कलकत्तामा स्थापना करीने भारतीय विद्याना अभ्यास अने हस्तप्रतोना संग्रह माटे ओक नवी दिशा ज खोली आपी. अने तेमणे ज 'शाकुन्तल'नो १७८९मां अंग्रेजी अनुवाद आपीने संस्कृत साहित्यना अभ्यासनो पायो नाख्यो. आ ज कोर्टना न्यायाधिश सर रोबर्ट चेम्बर्स के जे 'a distinguished scholar of great and versatile culture' तरीके ख्यातिप्राप्त हता तेमना द्वारा ८०० जेटली हस्तप्रतो अकठी करवामां आवी हती, जेनुं सूचिपत्र P. Rosan द्वारा तैयार थयु. आ हस्तप्रतो बादमां बर्लिन स्टेट लाईब्रेरी द्वारा खरीदवामां आवी हती. ८००० जेटली हस्तप्रतो, नकशा, अभिलेखो वगेरेनो सौथी मोटो संग्रह मद्रास प्रेसेडेन्सीना सर्वेयर जनरल Colin Mackenzie (१७९६-१८०६) द्वारा करवामां आव्यो हतो, आ पैकीनी मोटा भागनी हस्तप्रतो वगेरे इन्डिया ओफिस लाईब्रेरी अन्ड रेकर्डस, लंडन अने थोडीक मद्रास युनिवर्सिटीमां संगृहीत छे. सर विलियम जोन्स द्वारा पण ५९ हस्तप्रतोनो संग्रह करवामां आव्यो हतो. जेम्स फ्रेशर द्वारा १७३०-४० दरम्यान गुजरातना प्रवास दरम्यान १६५ अरेबिक, पशियन, संस्कृत वगेरेनी हस्तप्रतो खरीदवामां आवी हती, जेनी सरळ यादी तेमणे पोतानी कृति History of Nadir Shah (1742) मां प्रगट करी हती. सम्भवतः भारतमांथी युरोपमां लइ जवामां आवेलो आ प्रथम हस्तप्रत संग्रह हशे तेम मानवामां आवे छे.
समग्रतया आ समयगाळा दरम्यान ४६ सूचिपत्रो (५१ खण्डो) प्रगट थयां हतां. आ पैकी भारतमाथी ११ (१५ खण्डो) अने विदेशोमांथी ३५ (३६ खण्डो) सूचिपत्रो प्रगट थयां हतां. आ समयगाळानुं सौथी वधु नोंधपात्र अने शास्त्रीय सूचिपत्र बलिननी इम्पिरियल लाईब्रेरीनी १४०३ संस्कृत-प्राकृत हस्तप्रतोनुं सूचिपत्र A. Weber (१८५३) द्वारा सम्पादित करवामां आव्युं हतुं, जे हस्तप्रतोना भौतिक वर्णन उपरान्त, आदि-अन्त, टिप्पण, केटलीक कृतिओना विस्तृत उताराओ अने ९ सूचिओ सहित तैयार करवामां आवेलुं छे. केटलांक उत्तम सूचिपत्रो पैकी- आ ओक छे. आ ज प्रकारचें बीजुं ओक उत्तम सूचिपत्र Theodor Aufrecht (1859) द्वारा Bodleian Library (Oxford University)नुं तैयार करवामां आव्युं हतुं. भारतमांथी प्रगट थयेलां सूचिपत्रो पैकी सौथी प्रथम मेकेन्झी संग्रहनी १५६८ हस्तप्रतोतुं वर्गीकृत सूचिपत्र H.H. Wilsonओ तैयार
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करेल जे १८२८मां कलकत्ताथी प्रगट थयुं हतुं. आ ज संग्रहनी १६० तमिलतेलुगु हस्तप्रतोनुं William Taylorनुं सूचिपत्र १८३५मां मद्रासमांथी बे खण्डोमां प्रगट थयुं हतुं. त्यार बाद अशियाटिक सोसायटी द्वारा ३००० संस्कृत अने १०७ आधुनिक भारतीय भाषाओनी हस्तप्रतोनुं संक्षेपमां वर्णन करतुं वर्गीकृत अने कोठाओमां विभाजित सूचिपत्र १८३८मां प्रकाशित करवामां आव्युं. आ 'सूचिपुस्तकम्' मां फोर्ट विलियम कॉलेज, अशियाटिक सोसायटी अने काशी संस्कृत विद्यामन्दिरनी हस्तप्रतो समाविष्ट छे. आ सूचिपत्रमां कोई प्रकारनी सूचि (Index) आपवामां आवी नथी ते तेनी मोटी मर्यादा छे. अन्य ओक महत्त्वपूर्ण सूचिपत्र विस्तृत नोंध अने सूचिओ सहितनुं GOML, Madras नुं ५५१५ हस्तप्रतो वर्णवतुं १८५७ - ६२ दरम्यान ३ खण्डोमां प्रकाशित करवामां आव्युं हतुं.
५. २ सुवर्णयुग (१८६९ थी १९०० )
अंग्रेजोनुं भारतमां सांस्कृतिक क्षेत्रे सौथी मोटुं मूल्यवान प्रदान भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभागनी स्थापना करी कला - स्थापत्योना संरक्षणनुं अने भारतीय हस्तप्रतोना सर्वेक्षणनुं काम हाथ धरी वेर - विखेर हस्तप्रतोना संग्रह, सर्वेक्षण अने सूचिपत्रो/अहेवालो तैयार करवा क्षेत्रे रह्युं छे. लाहोर दरबारना पूर्व मुख्य पडित राधाकृष्णना हस्तप्रतोना सर्वेक्षण अने सूचिकरण सम्बन्धी सूचनने ध्यान लई तत्कालीन गवर्नर जनरले आ प्रस्तावनो ता. ३ नवेम्बर, १८६८ना रोज स्वीकार करीने आ हेतुसर रु. २४००० /- अने Mr. Stokes (Secretary of Legislative Council) से तैयार करेल हस्तप्रतोना संग्रह अने सूचिकरणनी योजना मंजुर करी हती. आम छतां Mr. Stokes मन्तव्य धरावता हता के सूचित केलोग इंग्लेन्डमां ज संतोषकारक रीते सम्पादित थई शके कारण के “no native scholar possessed of the requisite learning, accuracy and persistent energy” अने वधुमां, “no European scholar in India possessed of the requisite time, or who might not be more usefully employed in making original researches.”१२ ३२ वर्षनो आ समयगाळो ओक सुवर्णयुग समान अटला माटे गणवामां आवे छे के समग्र भारतवर्षमां संस्कृत-प्राकृत भाषा साहित्यना पाश्चात्त्य तथा भारतीय प्रतिभासम्पन्न
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विद्वानो आ प्रवृत्तिमां जोडाया अने देशना खूणे खूणेथी फरी फरीने खानगी अने संस्थागत संग्रहो रुबरुमां तपासीने अहेवालो तैयार कर्या. तेमना अभ्यासप्रवास दरम्यान प्राप्त थयेल महत्त्वपूर्ण हस्तप्रतोनी विगतो अकठी करी, जे ते प्रेसिडेन्सीओ माटे हस्तप्रतोनी खरीदी करी, कवचित सूचनात्मक तो कवचित विस्तृत सूचिपत्रो तैयार कर्यां.
आ समयगाळा दरम्यान प्रगट थयेल सूचिपत्रो/अहेवालो पैकी बंगाळ प्रेसिडेन्सीना राजा राजेन्द्रलाल मित्राओ २४० खानगी के संस्थागत संग्रहो रुबरुमां तपासीने ४२६५ संस्कृत हस्तप्रतो वर्णवतुं ११ खण्डोनुं सूचिपत्र Notices of Sanskrit Manuscripts (१८७०-१८९५) तैयार कर्यु. आ पैकीना पाछळना २ खण्डो तेमना अवसान बाद महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीले सम्पादित करेला छे. हस्तप्रतोना सूचिकरण क्षेत्रनुं आ ओक सीमास्तम्भ समान सूचिपत्र छे. आ उपरान्त मित्राजीओ अन्य महत्त्वपूर्ण सूचिपत्रो पैकी बिकानेरना महाराजाना अंगत संग्रहनी १५४७ हस्तप्रतो, १८८०मां तथा ओशियाटिक सोसायटीनुं १८७७मां तैयार कर्यां हतां. बंगाळ उपरान्त पंजाब- काशीनाथ कुन्ते (१८७८८२), नोर्थ-वेस्ट प्रोविन्सिस (१८७४-८६, ४४०० हस्तप्रतो), अवधनुं जहोन नेसफिल्ड (१८७५-७९), अने कोलिन ब्राउनिंग (१८७२-९३, ५२०० हस्तप्रतो), मैसूर अने कूर्गनुं लेविस राइस (१८८४, २९४४ हस्तप्रतो), दक्षिण भारतनां खानगी संग्रहो, गुस्ताव ऑपर्ट (१८८०-८५, १८७०७ हस्तप्रतो) अने सेन्ट्रल प्रोविन्सनुं ओफ. कीलहोर्न (१८७४, ३८०० हस्तप्रतो) अने बोम्बे प्रेसिडेन्सीनुं ज्योर्ज बुहलर, ओफ. कीलहोर्न, पीटर पीटरसन (१८८२-९८), प्रो. भण्डारकर (१८७९-९१), काथवटे (१८९१-९५) वगेरे द्वारा सर्वेक्षण हाथ धरवामां आव्यु. नोंधq घटे के मुंबइ सरकारे प्रस्तुत योजना पूर्वे १८६६ थी डॉ. ज्योर्ज बुहलर अने डॉ. मार्टिन हग द्वारा संस्कृत हस्तप्रतो, सर्वेक्षण अने प्राप्ति, कार्य शरु कर्यु हतुं. अन्य प्रेसिडेन्सीओनी तुलनाओ बोम्बे प्रेसिडेन्सी- कार्य वधु व्यापक अने गहन रडुं छे. भण्डारकर ओरिओन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूनानो विद्वत संग्रह आ सर्वेक्षणने आभारी छे. डॉ. बुहलरओ गुजरात उपरान्त बोम्बे प्रेसिडेन्सी उपरान्त राजपुताना, लाहोर, दिल्ही, बनारस, उज्जैन, काश्मीर वगेरे प्रदेशोमां हस्तप्रत खोज-प्रवास कर्या हता. डॉ. बुहलरना अहेवालो ‘has
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become almost a classic with Sanskritists, and has served as model for subsequent work in the field of the recovery of Sanskrit manuscripts and the presentation of the results in proper light.' गणवामां आव्या हता.१३ १० वर्ष बाद भारतना समग्र सर्वेक्षण कार्यनी समीक्षा करवामां आवी त्यारे बोम्बे प्रेसिडेन्सीना कार्यने 'most satisfactory' 'highest satisfaction at what had already been effected, especially by Dr. Buhler and Dr. Keilhorn of Bombay.' तरीके नवाजवामां आवेल. ज्यारे समग्र भारतीय स्तरनां सर्वेक्षण परिणामोने 'such as to warrant the prosecution of the search १४ तरीके ओळखावेल. मुंबइ सरकार द्वारा खरीदवामां आवेली हस्तप्रतो पाश्चात्त्य अने भारतीय विद्वानो जेमके Prof. Whitney (New Haven), Prof. Foucaux (Paris), Rajendralal Mitra (Calcutta) वगेरेने तेमना उपयोग अर्थे पण पूरी पाडवामां आवी हती. अर्थात् हस्तप्रतोनो मात्र संग्रह न करतां तेनो उपयोग थाय तेवो अभिगम अपनाववामां आव्यो. आ उपरान्त त्रिवेन्द्रमना महाराजानी पेलेस लाईब्रेरी, तांजोर संग्रह, बनारस संस्कृत कॉलेज, महाराजा अलवरनो संग्रह, गवर्मेन्ट लाईब्रेरी, मद्रास वगेरेनां सूचिपत्रो तैयार करवामां आव्यां. आ बधां सर्वेक्षणोथी घणी बधी अलभ्य कृतिओ प्रकाशमां आवी. परिणामस्वरूपे पाश्चात्त्य विद्वानो भारतीय साहित्यनी उपलब्धिओथी प्रभावित थया अने भारतीयविद्यानो सघन अभ्यास करवा प्रेराया.
आ समयगाळा दरम्यान प्रकाशित कुल १५४ सूचिपत्रो पैकी ८३ विदेशोमांथी अने ७१ भारतमाथी प्रगट करवामां आव्यां हतां. विदेशोमां प्रकाशित सूचिपत्रो पैकी इन्डिया ऑफिस लाइब्रेरी एन्ड रेकर्डस, लंडनना प्रथम खण्डना ६ भाग १८८७ थी १८९९ दरम्यान प्रगट थया, जे- सम्पादन Julius Eggeling द्वारा करवामां आव्युं हतुं. प्रत्येक हस्तप्रतना कर्ता, शीर्षक, टीकाकार वगेरे भौतिक माहिती उपरान्त हस्तप्रतना पाठना केटलाक अंशो, आदि-अन्त अने विवेचनात्मक नोंध धरावतुं आ सूचिपत्र हस्तप्रतोनी प्राचीनता, अलभ्यता तथा शास्त्रीय सूचिकरणनी दृष्टिले अति मूल्यवान अने नमूनेदार छे.
___ Theodor Aufrecht द्वारा ३० वर्षनी महेनतना अन्ते ९८ सूचिपत्रोना आधारे तैयार करवामां आवेल 'Catalogus Catalogorum : An Alphabeti
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cal Register of Sanskrit Works and Authors, (Vol. I 1891, Vol. II 1896 and Vol. III 1903) हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो अने भारतीयविद्या क्षेत्रनी ओक शकवर्ती घटना छे. आ केटलोगना माध्यमथी कई कृति भारत के भारत बहार संगृहीत छे ते उजागर थयु. आ केटलोग भारतीय साहित्यनो आयनो बनी रह्यं अने खूब ज उपयोगी पुरवार थयु. ५.३ राष्ट्रीय जागृतिकाळ (१९०१ थी १९४७)
साहित्य, समाज, राजकारण वगेरे क्षेत्रे आ काळ भारतमां राष्ट्रीय चेतनानी जागृतिना समय तरीके अभिधानित करवामां आवे छे. आ समय दरम्यान राष्ट्रिय स्वातन्त्र्यनी चळवळे जोर पकडतां अंग्रेजोले अन्ततः १९४७नी १५मी ओगस्टे भारतने आझादी आपवी पडी. राष्ट्रीय शाळाओनी स्थापनानी जेम ज भारतना विविध प्रदेशोमां भारतीयविद्यानां संशोधन संस्थाओनी स्थापना करवामां आवी. आ संस्थाओओ संशोधन प्रवृत्तिओने वेग आपवा उपरान्त हस्तप्रतसंग्रह माटे पण विशेष ध्यान आप्युं, तेमज वर्णनात्मक सूचिपत्रोनां प्रकाशनो पण कराव्यां. संस्कृत-प्राकृत-पालि उपरान्त आधुनिक भारतीय भाषाओनी हस्तप्रतोनां सूचिपत्रोनुं प्रकाशन पण करवामां आव्युं. भारतीयविद्या संस्थाओ पैकी भण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना (१९१९), प्राच्यविद्या मन्दिर, वडोदरा (१९२७) सिंधिया ओरिओन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट (उज्जैन) वगेरे उल्लेखनीय छे. वडोदराना महाराजा सर सयाजीराव गायकवाडे श्री आर.ओ.शास्त्रीनी निमणूक हस्तप्रतोनी खरीदी करवा माटे करतां तेणे देशमांथी फरी फरीने १०००० जेटली प्रतो प्राच्यविद्या मन्दिर माटे अकठी करी हती. श्री शास्त्रीओ हस्तप्रतोनी प्राप्ति सन्दर्भे ओक डायरी तैयार करी हती, जे हालमां मद्रास युनिवर्सिटीना संस्कृत विभागमां सचवायेली छे. आ समयगाळामां कुल २५६ (५५९ खण्डो) सूचिपत्रो प्रगट थयां हतां. भारतीय विद्वानो पैकी हरप्रसाद शास्त्री, गोपीनाथ कविराज, कुप्पुस्वामी शास्त्री, ओस. के. बेलवलकर, हीरालाल कापडिया, अस. अम. कत्रे, पी.पी. सुब्रह्मण्य शास्त्री, पी.पी. अस शास्त्री, मणिन्द्र मोहन बसु, मोतीलाल मेनारीया वगेरे अने पाश्चात्त्य विद्वानो पैकी A.B. Keith, James Blumhardt, J. D. Pearson वगेरेओ सूचिपत्रोना सम्पादनमां नोंधपात्र फाळो आप्यो छे आ बधां सूचिपत्रो विद्वानो द्वारा सम्पादित
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थयां होवाथी विद्वत प्रस्तावनाओ तथा कृतिओना विस्तृत वर्णननी दृष्टिले खास ध्यानपात्र बनी रहे छे. Theodor Aufrechtना केटलोगोरमनी उपयोगिताथी प्रभावित थईने पंजाब युनिवसिटीना तत्कालीन कुलपति A.C. Woolner (१९३०)ना सूचनने ध्याने लइ 'New Catalogus Catalogorum' तैयार करवानुं कार्य मद्रास युनिवसिटीना संस्कृत विभागे शरु कयें, परंतु तेना फळ १९४९थी मळवां शरु थयां. आ हेतुसर संस्कृत विभागे प्रथम तबक्के सूचिपत्रो ओकठां करवानुं शरु कर्यु. जे संस्थाओनां सूचिपत्रो प्रकाशित न हता त्यांनी हाथयादीओ अकठी करी. ५.४ स्वातन्त्र्योत्तरकाळ (१९४७ थी आजदिन सुधी)
__ आझादी बाद डॉ. राधाकृष्णनना चेरमेन पदे युनिवर्सिटी एज्युकेशन कमिशन (१९४९), डॉ. सुनीतिकुमार चेटरजीना चेरमेन पदे संस्कृत कमिशन (१९५६) अने युजीसीओ डॉ. राघवनना चेरमेन पदे मेन्युस्क्रिप्ट कमिटि (१९५९)नी रचना करी हती. आ कमिशन-कमिटिओओ संस्कृत हस्तप्रतोना संग्रह, संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन तथा सूचिपत्रो प्रकाशन करवा माटे नोंधपात्र भलामणो करी हती. भारत सरकारे पुनः प्रो. के.ओ.अन. शास्त्रीना चेरमेन पदे इन्डोलोजी कमिटि (१९६०)नी रचना करी. आ इन्डोलोजी कमिटिओ हस्तप्रतोना सम्पादन, प्रकाशन अंगे भलामणो करवा उपरान्त सूचिपत्रो कया स्वरूपे तैयार करी प्रकाशित करवां ते अंगे पण महत्त्वपूर्ण भलामणो करी हती. हस्तप्रतोना प्रकाशन माटे अनुदान मेळवती संस्थाओ पोतानां सूचिपत्रो आ साथे नीचे दर्शाव्या मुजब तैयार करवानुं भारत सरकारे ठरावतां १९६१ पछीनां बधां ज सूचिपत्रो प्रायः समान धोरणे प्रकाशित करवामां आवे छे : 1. Serial no. and subject 2. Library accession or Collection number, if any 3. Time of work 4. Name of author 5. Name of commentator 6. Material or Substance 7. Script 8. Size, number of folios or leaves; Lines per page and no. of letters per line 9. Extent 10. Conditation and age, and 11. Additional particulars. आ उपरान्त जे ते संग्रहनी अलभ्य हस्तप्रतोनी सूचनाओ कोलम १मां 'E' संज्ञा वापरीने दर्शाववी. 'E' संज्ञावाळी अलभ्य अने महत्त्वपूर्ण हस्तप्रतोनां आदि-अन्त-प्रशस्ति तथा कृतिना केटलाक अंशो परिशिष्टमां दर्शाववा. आ उपरान्त सूचिपत्रमा वणित हस्तप्रतोनी
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शीर्षक, कर्ता अने अन्य महत्त्वपूर्ण सूचिओ तैयार करीने आपवी. भारतीय भाषाओना आदि - अन्त वगेरे जे ते भाषानी लिपिमां नोंधवा, परन्तु संस्कृत हस्तप्रतोना आदि-अन्त वगेरे देवनागरी लिपिमां नोंधवा. १५
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१९४७ थी १९९० सुधी भारतीय हस्तप्रतोनां कुल ३९२ सूचिपत्रो अने तेना कुल ८४८ खण्डो प्रकाशित थया छे. ओक अंदाज अनुसार १९९१ थी २०११ सुधी अंदाजित ५०० जेटला खण्डो प्रकाशित थया हशे . आ सूचिपत्रो अने १९४७ पूर्वेनां सूचिपत्रो वच्चे मुख्य तफावत से जोवा मळे छे के जे केटलाक अपवादो बाद करतां विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनानो अभाव तथा महत्त्वनी हस्तप्रतो के अप्रकाशित कृतिओ विशे कवचित ज उल्लेखो जोवा मळे छे. जर्मनीना विविध ग्रन्थालयोमां संगृहीत पौर्वात्य हस्तप्रतोना विवरणात्मक अने विस्तृत सूचिपत्रोना प्रकाशननो प्रोजेक्ट १९६२ थी चाली रह्यो छे, जेना ३२ खण्डो प्रकाशित थई चूक्या छे, तथा ब्रिटिश लाईब्रेरी अने इन्डिया ऑफिस लाईब्रेरीना संग्रहनी भारतीय भाषाओनां १५ थी अधिक विवरणात्मक सूचिपत्रो आ समयगाळामां प्रकाशित थयां छे. आ कार्यकाळ दरम्यान जेमणे पाटण, जेसलमेर, खंभात, एल.डी. इन्डोलोजी वगेरेनां सूचिपत्रो तैयार कर्या तेवा प्रखर जैनाचार्य आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी अने प्राच्यविद्याविद् मुनि जिनविजयजीनुं हस्तप्रतोनां सूचिपत्रोना सम्पादन उपरान्त महत्त्वपूर्ण कृतिओना सम्पादन - प्रकाशन क्षेत्रे यशस्वी योगदान रह्युं छे. ओक अन्य मुनि भगवन्त श्रीपद्मसागरजीने पण याद करवा रह्या के जेमणे श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर अन्तर्गत आचार्य श्री कैलाशसागरजी जैन ज्ञानमन्दिरमां बे लाख जेटली हस्तप्रतो अकठी करी अने ८ खण्डोमां अंदाजित ३५००० जेटली हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो प्रगट कर्यां छे. राजस्था प्राच्यविद्या मन्दिर, जोधपुर, वेंकटेश्वर ओरिओन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, तिरूपति, बी. एल. इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी, दिल्ही, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नवी दिल्ही, केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठो वगेरे जेवी मोटी विद्वत संस्थाओनी स्थापना आ समयमां थइ अने आ संस्थाओनां सूचिपत्रोना प्रकाशननुं कार्य पण नोंधपात्र रह्युं छे. आ समयनी सौथी मोटी औतिहासिक घटना ए के जेनुं बीज १८६८मां रोपायुं हतुं ते 'नेशनल मिशन फॉर मेन्युस्क्रिप्टस' (२००३) अने इन्दिरा गांधी नेशनल सेन्टर फॉर
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आर्ट्स (१९८६)नी नवी दिल्हीमां भारत सरकार द्वारा स्थापना करवामां आवी. आ बने संस्थाओ आ विषयक्षेत्रना उज्ज्वळ भविष्य अर्थे कार्यरत छे. अनओमओम ओ टूंका गाळामां ज प्रथम तबक्कानी हस्तप्रत सर्वेक्षणनी कामगीरी पूर्ण करी अने हवे हस्तप्रतोनां विस्तृत विवरणो मेळववानुं शरु कर्तुं छे. आ उपरान्त मोटी उपलब्धि ओ के ओनलाइन द्वारा १० लाख हस्तप्रतोनुं विवरण सुलभ करी आप्युं अने हस्तप्रतोना संरक्षण, सम्पादन- प्रकाशन, सूचिकरण, डिजिटलाईझेशन वगेरे सम्बन्धी प्रवृत्तिओ सुपेरे सम्पन्न करवा कृतनिश्चयी छे. ६. हस्तप्रत सूचिपत्रोना प्रकार :
प्रस्तुत शोधपत्रमां प्रारम्भमां हस्तप्रत सूचिपत्रोना उद्भव अने विकासना विविध तबक्काओनी विस्तृत चर्चा करतां तेना नीचे दर्शाव्या मुजबना प्रकारो उपसी आवे छे.
६. १ हस्तप्रतोनी हस्तसूचि ( Handlist of Manuscripts)
हस्तप्रतोनी अमुद्रित यादी. आ ओक सरळ शीर्षक सूचि छे. हस्तप्रतोनी नोंधणीना क्रमानुसार यादी. 'Catalogus Catalogorum' के ‘New Catalogus Catalogorum' तैयार करवा माटे जे संग्रहोनां सूचिपत्रो प्रकाशित न हतां तेवा संग्रहोनी हस्तसूचिओ मेळवीने तेनो उपयोग करवामां आव्यो हतो. आ प्रकारनी सूचिओमां प्रायः कृतिनुं शीर्षक अथवा कृति अने तेना कर्ताना नामनो उल्लेख करवामां आवे छे.
६. २ हस्तप्रत खोज अहेवाल (Manuscript Search Reports ) कोइ ओक प्रदेशना खानगी के संस्थागत संग्रहोमां कई कई हस्तप्रतो संगृहीत छे तेनी सरळ यादी. कवचित महत्त्वपूर्ण हस्तप्रतोनुं विस्तृत वर्णन, कया संग्रहमां हस्तप्रतो प्राप्य छे तेनी विगत, सरकार माटे जो कोई हस्तप्रतो खरीदवामां आवी होय तो तेनी यादी, खोज - प्रवास अने तेनां संस्मरणो वगेरे सम्बन्धी माहितीनो खोज अहेवालमां समावेश करवामां आवे छे. ब्रिटिश शासन दरम्यान १८६८मां हस्तप्रत सर्वेक्षणनी योजना अमलीकृत करवामां आवी हती त्यारे आ प्रकारना सरकारी अहेवालो १८६८ थी १९०० सुधी घणी मोटी संख्यामां प्रकाशित थया छे. आ प्रकारना अहेवालोमां हस्तप्रतोना वर्णननी क्यांय ओकरूपता जोवा मळती नथी. अर्थात क्यांक अति विस्तृत तो क्यांक
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सूचनात्मक माहिती नोंधवामां आवी छे. उदा. तरीके राजा राजेन्द्रलाल मित्राओ तैयार करेल अहेवाल Notices of Sanskrit Manuscripts (११ खण्ड) वर्णनात्मक सूचिकरणनो उत्तम नमूनो पूरो पाडे छे, ज्यारे तेमनो ज ओक अन्य अहेवाल A report on on Sanskrit mss. in native libraries (1875) के जेमां ढाका, बर्दवान, नडिया, हुगली अने २४ परगणाना जिल्लाओना सर्वेक्षणनो समावेश करवामां आव्यो छे, तेमां सरकार माटे खरीदवामां आवेल ६५६ हस्तप्रतोनी सरळ वर्गीकृत यादी तथा हस्तप्रतविद्या अने खोज अहेवाल सम्बन्धी संक्षेपमा माहिती आपवामां आवी छे. हस्तप्रतोना वर्णननी दृष्टिले आ बंने अहेवालो वच्चे मोटी खाई छे. आ बधा खोज अहेवालोनं जैतिहासिक महत्त्व ओ छे के कोई हस्तप्रत ओक समये अमुक संग्रहमां अस्तित्वमा हती, ते हवे छे के स्थानान्तरित थइ गइ ? आ नष्टप्राय थइ गइ ? उदा. तरीके पीटर पीटरसनना अहेवालमां पाटणमां फोफळियाना पाडाना भण्डारनी हस्तप्रतोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. आ अहेवालमा उल्लिखित पैकीनी केटलीक हस्तप्रतो आजे प्राप्य नथी. आ प्रकारनी स्थिति घणी जग्याओ जोवा मळे छे. ६.३. सरळ सूचि (Simple List)
हस्तप्रतने ओळखवा माटे आवश्यक विगतो जेम के कर्ता, शीर्षक, टीकाकार, लिपि, लहियानुं नाम, लेखन समय वगेरेनो समावेश न करतां फक्त शीर्षक सूचि के कृतिना कर्ताना नाम साथेनी विषयोना वर्णानुक्रममां के नोंधणी क्रमानुसारनी सूचि. उदा. तरीके (१) Selective list of Sanskrit Manuscripts in Ahmednager College Library. In : Ahmednager College Library Quarterly 1952, p. 13-20 (2). List of Pali Manuscripts in the Copenhagen Royal Library. JPTS. 1883 p. 147-149. ६.४ वर्णानुक्रम सूचि ( Alphabetical Catalogue)
हस्तप्रतोनां शीर्षकोना वर्णानुक्रममां तैयार करवामां आवेली सूचि. आ प्रकारनी सूचिमां प्रत्येक हस्तप्रतनी मुख्य मुख्य विगतो जेमां शीर्षक, कर्ता, टीकाकार, लिपि, समय, पूर्ण के अपूर्ण, फोलियो संख्या वगेरे कोठाओमां विभाजित करीने आपवामां आवे छे. उदा. तरीके (1) An Alphabetical Index of Sanskrit Manuscripts in the Government Oriental Manu
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script Library, Madras. 3 Vols. 1938-1942. कवचित कर्ताओना वर्णानुक्रममां पण सूचिओ तैयार करवामां आवे छे. आ प्रकारनी सूचिओमां जे ते कर्ताना नामनी साथे तेनी कृतिओनी यादी आपवामां आवे छे. उदा. cetats Author Index of Tamil Manuscripts in the GOML, Madras 1936. ६.५ सामान्य सूचनात्मक सूचिपत्र (General Informative Catalogue)
सामान्यतः प्रमुख विषयो हेठळ विभाजित करीने शीर्षकना वर्णानुक्रममां अथवा नोंधणी क्रमांक अनुसार प्रत्येक हस्तप्रतनी केटलीक मुख्य विगतो कोठाओमां विभाजित करीने आपवामां आवे छे. अन्त भागमा सामान्यतः कोई सूचि पण आपवामां आवती नथी. उदा. तरीके १. श्री फार्बस गुजराती सभाना हस्तलिखित ग्रन्थोनी नामावलि/सम्पा. अंबालाल बुलाखीराम जानी १९५६. आ सूचिपत्रमां कोई सूचि पण आपी नथी. २. श्रीजैनग्रन्थावली (१९०९). ६.६ कोठागत वर्णनात्मक सूचिपत्र (Descriptive Catalogue in Tabular Form)
१९६१ थी प्रगट थतां सूचिपत्रो आगळ उपर हस्तप्रतोना सर्वेक्षण अने सूचिपत्रो अन्तर्गत स्वतन्त्र्योत्तरकाळमां दर्शाव्या अनुसार भारत सरकारनी योजना अनुसार प्रगट करवामां आवी रह्यां छे. ओरिओन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, मैसूरनां १९७८ थी प्रगट थतां सूचिपत्रो आ प्रकारर्नु उत्तम उदाहरण छे. केटलीक संस्थाओनां सूचिपत्रोमां कोठामां वर्गीकृत माहिती उपरान्तनी बधी ज माहिती पूरी पाडवा तरफ खास ध्यान आपवामां आवतुं नथी. उदा. तरीके Descriptive Catalogue of Manuscripts in L. D. Institute of Indology Vol. 5 and 6 मां पसंदगीनी प्रतोना आदि-अन्त आपवामां आव्या नथी. घणां सूचिपत्रोमां क्वचित मात्र शीर्षक सूचि तो क्वचित मात्र कर्ता सूचि आपवामां आवेली छे. ६.७ विवरणात्मक सूचिपत्र (Descriptive Catalogue)
प्रत्येक हस्तप्रतनी उपरना प्रकारमां दर्शाव्या अनुसारनी भौतिक माहिती उपरान्त हस्तप्रतोनो आदि-अन्त-प्रशस्ति, कृतिना महत्त्वपूर्ण अंशो, कर्ता विशे
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नोंध, कृति प्रकाशित के अप्रकाशित, वैविध्य सूचिओ वगेरे सम्बन्धी विस्तृत माहिती वर्णनात्मक स्वरूपमां आपवामां आवे छे. उदा. तरीके India Office Library के जर्मन स्टेट लाईब्रेरीनुं अ. वेबर (१८५३) द्वारा तैयार करेल केटलोग आ प्रकारनां उत्तम उदाहरणो छे. युरोपनां बधां ज सूचिपत्रो तथा ओशियाटिक सोसायटी, भण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना, प्राच्यविद्या मन्दिर, वडोदरा वगेरेनां सूचिपत्रो आ प्रकारनां उदाहरणो छे. सूचिपत्रना अन्तमां विविध सूचिओ पण आपवामां आवे छे.
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६.८ संघसूचि (General Register of works and Authors)
कोई क कृति के कर्तानी कृतिओनी हस्तप्रतो क्यां क्यां (अंगत के संस्थागत संग्रहोमां) संगृहीत छे तेनी माहिती दर्शावतुं सूचिपत्र ते संघसूचि. सौ प्रथम Theodor Aufrecht नुं Catalogus Catalogorum (1891-1903) आपणने मळे छे. त्यारबाद के . का. शास्त्री सम्पादित गुजराती हाथप्रतोनी संकलित सूचि (१९३९), ओच. वेलणकर कृत जिनरत्नकोश (१९४४), वी. राघवन वगेरे द्वारा संपा. New Catalogus Catalogorum (1949 - ....), Catalogus Catalogrorum of Bengali Manuscripts (1978) वगेरे आ प्रकारनां उत्तम उदाहरणो छे. कोई कृतिनी चिकित्सक आवृति तैयार करवा माटे ते कृति क्यां क्यां संगृहीत छे ते जाणवा माटेनो आ ओक उत्तम स्रोत छे. साथे साथे तेनी प्रकाशित आवृत्तिओनी माहिती पूरी पाडवामां आवती होवाथी संशोधको माटे आ ओक महत्त्वपूर्ण स्रोत बनी रहे छे. आ प्रकारनी सूचिमां कृति अने कर्ताना वर्णानुक्रममां अधिकरणो गोठववामां आवे छे तेमज कृति के कर्ता विशे आवश्यकतानुसार माहिती पण आपवामां आवे छे.
७. उपलब्ध सूचिपत्रोनी वास्तविकताओ :
७.१ हस्तप्रत सूचिकरण माटेनी नियमावलि के चोक्कस मार्गदर्शन के सूचिपत्रो विविध प्रकारना उपभोक्ताओने उपयोगी थई शके तेवी दुरंदेशितापूर्ण दृष्टिना अभावना कारणे जे ते समयनी परिस्थिति अने आवश्यकताने ध्याने लई सूचिपत्रो अस्तित्वमां आव्यां छे. आ विचार साथे सुसंगत तेमज भारतीय अने विदेशीओ द्वारा तैयार करवामां आवेलां सूचिपत्रो वच्चे मोटा तफावतना सम्भवित कारण सम्बन्धी जर्मन पौर्वात्यविद् K. L. Janert नुं सुचिन्तनीय
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अवलोकन ध्यानार्ह बनी रहे छ : “Since there has never been a continuous development in Cataloguing the manuscript collections with all the complex problems that they offer catalogues compiled at one and the same period often present the greatest variety of individual attitude and methods... The reason for the extreme variety between catalogues as in the basic assumptions of even contemporary editors can certainly be in part explained by the peculiar nature of the problem. In India, for example, the different manuscript collections could be catalogued only by means of team-work organized by one or two principal or compilers. With regard to the relatively smaller European collections, on the other hand, successive scholars were frequently expected to master a collection anew, so that the end-product rarely reflected the personal transmission and continuity of technical experiences previously acquired."१६ ७.२ भारत सरकारे १९६१मां हस्तप्रतोना सूचिकरण माटे अपनावेल नीतिनो चुस्त रीते अमल जोवा मळतो नथी. अटले के कोठागत माहिती सिवाय अलभ्य, महत्त्वपूर्ण के अप्रकाशित हस्तप्रतो माटे आदि-अन्त-प्रशस्ति, कृतिना केटलाक अंशो, टीकात्मक नोंध के वैविध्यपूर्ण सूचिओनो समावेश बहु ओछो जोवा मळे छे. ७.३ सूचिपत्रमा हस्तप्रतना पूर्व व्यक्ति के संस्था मालिक सम्बन्धी विगतोनो प्रायः अभाव होय छे अर्थात् हस्तप्रतना स्थानान्तरणनो यथासम्भव इतिहास दर्शाववो जोइओ. ७.४ सूचिकारो समक्ष सूचिपत्रोनो मुख्य उपभोक्तावर्ग कृतिना खोजकर्ताओ के जेमने फक्त कृतिमां रस छे ते रह्यो छे. आ प्रकारना उपभोक्ताओ कृति शोधवा माटे जे जे आलम्बनोनो सहारो ले ते आधारे सूचिओ बनावी छे. आ सूचिओमां चित्रकार, चित्रकलाना इतिहासकार, लिपिविदने खपमा लागे तेवी रीते हस्तप्रतोनां विवरण आपवामां आव्यां नथी. आ ओक सौथी मोटी उणप छे. ७.५ सूचिपत्रोनुं महत्त्व ध्याने लेतां भारतीयविद्यानी संस्थाओ, संस्कृत युनिवर्सिटीओ, देशनी प्रमुख युनिवर्सिटीओनां ग्रन्थालयो, राष्ट्रीय ग्रन्थालय वगेरेमां भारतीय हस्तप्रतोनां बधां ज सूचिपत्रो संगृहीत होवां जोइओ. परन्तु आजे
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देशमां अक पण ग्रन्थालय नथी के जेमां कुल प्रकाशित सूचिपत्रोनां ६०% सूचिपत्रो प्राप्य होय. सूचिपत्रोनी दृष्टिले समग्र देशमां Central Secretariat Library, New Delhi सौथी वधु समृद्ध संग्रह धरावे छे. अेक ग्रन्थालयी तरीके अनुभव्युं छे के अध्यापको सूचि खरीदीमां भाग्ये ज रस दर्शावे छे. ७.६ १९४७ पूर्वे भारतीयविद्याना प्रतिभासम्पन्न विद्वानोओ सूचिओ तैयार करी हती, ज्यारे स्वतन्त्रता बाद मुनि पुण्यविजयजी, मुनि जिनविजयजी, मुनि जंबुविजयजी जेवा थोडाक अपवादो बाद करतां प्रायः व्यवसायी सूचिकारोओ सूचिओ बनावी छे. संस्थाओना वडाओ प्रत्यक्ष रीते आ कार्यथी प्रायः अळगा रह्या छे. आम छतां, वास्तविक सूचिकर्ताओनां नाम सूचिपत्रोनां शीर्षकपृष्ठ उपर भाग्ये ज जोवा मळे छे. ७.७ पाश्चात्त्य पौर्वात्यविदोनुं हस्तप्रत सर्वेक्षण, सम्पादन अने सूचिनिर्माणमां घणुं मोटु प्रदान रह्यं छे. ८. भारतीय हस्तप्रतोनां सूचिपत्रो : आंकडाकीय परिप्रेक्ष्यमां :
केन्द्रिय सचिवालय ग्रन्थालय, नवी दिल्हीमां मारा कार्यकाळ (१९७९१९९१) दरम्यान आ लेखक अने ग्रन्थालयना तत्कालीन डायरेक्टर श्री एस.सी.बिस्वास द्वारा भारतीय हस्तप्रतोना वाङ्मयसूचिगत सर्वेक्षणनो प्रोजेक्ट INTACH ना आर्थिक सहयोगथी वर्ष १९८४ थी १९९० दरम्यान हाथ धरवामां आव्यो हतो. आ प्रोजेक्टना उपक्रमे अमारा द्वारा “Bibliographic Survey of Indian Manuscript Catalogues : Being a Union List of Manuscript Catalogues' तैयार करवामां आव्युं, जेनुं प्रकाशन Eastern Book Linkers, New Delhi द्वारा १९९८मां करवामां आव्युं हतुं. आ प्रोजेक्ट अन्वये अमे ६९ थी अधिक भारतीयविद्या संस्थाओ, युनिवसिटीओ, राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठो, राष्ट्रिय ग्रन्थालय वगेरेनां ग्रन्थालयोनी रुबरु मुलाकात लइने भारतीय हस्तप्रतोनां केटलोग्सनी सटिप्पण (annotated) वाडमयसूचि अने संघसूचि तैयार करी. प्रस्तुत सूचिना आधारे भारतीय हस्तप्रतोनां सूचिपत्रोनी रसप्रद आंकडाकीय विगतो नीचे मुजब छे. - प्रथम ज्ञात प्रकाशित सूचिपत्रना वर्ष १७३९ थी १९९० सुधी प्रकाशित
भारतीय हस्तप्रतोनां सूचिपत्रोनी कुल संख्या : ८४८ (कुल खण्ड १७०८)
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- अप्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या : २५६ । कुल मुद्रित पृष्ठ संख्या : अंदाजिक ३.५० लाख - ८४८ प्रकाशित सूचिपत्रो पैकी विदेशोमां प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या : ३२५ - विदेशोमां प्रकाशित सूचिपत्रो पैकी भारतमां अनुपलब्ध : ८८ - प्रकाशित सूचिपत्रो पैकी जर्नल्समां प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या : ११०
विविध ग्रन्थमाळाओ (Series) हेठळ प्रकाशित सूचिपत्रोना खण्डो : ८७ । प्रस्तुत वाडमयसूचिमां समाविष्ट ११०४ सूचिपत्रो पैकी जेमनी प्रत्यक्ष चकासणी
थई शकी नथी तेवां अर्थात् अन्य स्रोतोना आधारे नोंधेल सूचिपत्रोनी संख्या : १८७ - New Catalogus Catalogorum तैयार करवा माटे उपयोगमा लेवामां
आवेल सूचिपत्रोनी संख्या प्रकाशित सूचिपत्रो : २३० अप्रकाशित हस्तसूचिओ : १६८
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। सौथी वधु हस्तप्रतोनां विवरणात्मक सूचिपत्रो प्रकाशित करनार केटलीक
संस्थाओ : - राजस्थान प्राच्य विद्यामन्दिर, जोधपुर सूचिकरण करेल संस्कृत-प्राकृत
हस्तप्रतो ५३००० प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या २४ सूचिकरण करेल हिन्दी, राजस्थानी २५००० प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या १३ वगेरे
७८००० ओरिमेन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, मैसूर सूचिकरण करेल संस्कृत हस्तप्रतो ५२३१९ प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या १७ - सरस्वती भण्डार, सम्पूर्णानन्द संस्कृत युनिवर्सिटी, बनारस
सूचिकरण करेल संस्कृत हस्तप्रतो ४६६११ प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या १२
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- गवर्मेन्ट ओरिओन्टल लाईब्रेरी, मद्रास
सूचिकरण करेल संस्कृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड, मराठी अने उडिया हस्तप्रतोनी संख्या : ४६३७२
हस्तप्रतोनां प्रकाशित सूचिपत्रोनी संख्या : १४९ । भारतीय हस्तप्रतोनुं ज्ञात प्राचीनतम मुद्रित सूचिपत्र
Catalogus codicum manuscriptorum Bibliothecase regiae. Tomus primus, secundus, tertius, quartus. Paris : Typographia regia, 1739-1744. (Tome 1 : Appendix prior pp. 434-448 : Codices indici with
short discriptions of 287 mss. by Stephan Fourmont). । भारतीय हस्तप्रतोनुं प्राचीनतम ज्ञात अमुद्रित सूचिपत्र
Brhattippanikanamapracinajainagranthasuci. In : Jaina Sahitya Samsodhaka Parisista, 1(2), 1-16. Classified list of 653 mss., with date and number of folios. । कालक्रम प्रमाणे सूचिपत्रोनुं विभाजन वर्ष
शीर्षक
कुल खण्डो वर्ष १७३९ थी १८६८ ४६
५१ वर्ष १८६९ थी १९०० १५३ वर्ष १९०१ थी १९४७
२५६
५५९ वर्ष १९४७ थी १९९०
८४८
२५०
३९२
८४८
१७०८
। भाषा प्रमाणे विभाजन : ११०४ सूचिपत्रोमां वर्णित हस्तप्रतोनी भाषावार संख्या
- संस्कृत, प्राकृत हस्तप्रतो : ८२९६५३ - पालि : २०५० - आधुनिक भारतीय भाषाओनी हस्तप्रतो : २२१०२०
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अनुसन्धान- ५५
(हिन्दी, राजस्थानी वगेरे ८७४१२, तमिल ३९६६६, गुजराती १६१२१, कन्नड १३८१८, मलयालम ११८१५, उर्दू, हिन्दुस्तानी १००२९, मराठी ६५५२, बंगाळी ४९१५, तेलुगु ९२१६, असमिया ७७८, सिंधि ३१, पंजाबी ४१०७, उडिया १८२६ अने कश्मीरी १२)
तिबेटन-१३६४, सिंहाली - १३१७, अरबी - ७७८, पर्शियन- १४७२२, अंग्रेजी-७, बर्मि- ' - ४४, तुर्की - २०.
सन्दर्भसूचि
1. Biswas, S.C. and M. K. Prajapati 'Preface', Bibliographic Survey of Indian Manuscript Catalogues, New Delhi: Eastern Book Linkers, 1998.
2. Quoted by Dorothy K. Coveney, 'The Cataloguing of Literary Manuscripts.' The Journal of Documentation VI ( 3 ), Sept. 1950: 125-139.
3. Covney, Dorothy K. ‘The Cataloguing of Literary Manuscripts' The Journal of Documentation. VI (3), Sept. 1950 : 125-139.
4. राही, ईश्वरचन्द, लेखनकलाका इतिहास, खण्ड - १ : १९८३, ७४.
5. Jackson, Sidney L. Libraries and Librarianship in the West, 1972. 2. 6. Sarma, K. V. ‘New Lights on Manuscriptology. Ed. Siniruddha Dash. Adyar, Chennai : SSESRC, 2077.233-234.
7. पुण्यविजयजी मुनि. भारतीय जैन श्रमणसंस्कृति अने लेखनकला. अमदावाद : श्रुतरत्नाकर, २०१० (पुन: मुद्रण). १०१
8. Singh, S. P. Library Cataloguing and Classification. New Delhi : Omega, 2008.1
9. Hanson Eugene R. and Jay E. Daily. ‘Catalogs and Cataloguing : History'. Encyclopedia of Library and Information Sciences. 3rd Ed.
2010. 820.
10. Quated by Beth M. Russell. 'Cataloguing in Medieval Libraries.' Encyclopedia of Library and Information Sciences Vol. 69 Ed. Allen Kent. New York: Marcel Dekkar, 2001. 29.
11. Quoted by Eugene R. Hanson and Jay E. Daily. Ref. 9.821
12. Belvalkar, S. K. ‘Foreword.' Descriptive Catalogue of the Government
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Collections of Manuscripts Deposited at the Deccan College, Poona,
Vol. I Bombay: Government of Bombay, 1917. XIII-XIV. 13. Ibid. 17 14. Ibid. 19 15. Raghavan, V. Manuscripts, Catalgoues, Editions, Madras : Bharati
Vijayam Press [Printer), 1963. 99-102 16. Janert, K. L. 'Intoduction', An Annotated Bibliography of the
Catalgoues of Indian Manuscripts, Part I, Wiesbaden : Franz Steiner
Verglag, 1963. 9-10 (राष्ट्रीय हस्तप्रत मिशन, नवी दिल्हीना उपक्रमे संस्कृत सेवा समिति द्वारा श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर अने संस्कृत अने भारतीय विद्या विभाग, हेमचन्द्राचार्य उत्तर गुजरात युनिवर्सिटी, पाटणना सहयोगमां ता. २९ मार्च, २०११ना रोज आयोजित 'तत्त्वबोध व्याख्यान' माळा हेठळ आपेल वक्तव्य.)
डायरेक्टर ऑफ पब्लिकेशन कडी सर्व विश्वविद्यालय,
गांधीनगर
आवरणचित्र-परिचय ४०० वर्ष पुराणा काष्ठ-चित्रपटना एक अंशनी आ छबी छे. आ चित्रमा शालिभद्र अने धन्नाजीना जीवनप्रसङ्गोनुं आलेखन थयुं छे. सम्भवतः राजस्थानी शैलीनुं चित्राङ्कन छे. एक स्थाने कचरापट्टीमां तूटीफूटी हालतमां पडेल आ काष्ठफलक, हाल तीथल (वलसाड)ना 'श्रीआदिनाथ जैन कलामन्दिर'मां प्रस्थापित छे.
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नवां प्रकाशनो
Elements of Jaina Geography लेखक : Frank Van Den Bossche - Ghent Uni. प्रकाशक : Motilal Banarasidass - Delhi, 2007
श्रीहरिभद्रसूरिविरचित जम्बूद्वीपसंग्रहणी (अपरनाम- लघुसंग्रहणी) जैनमान्यता अनुसार भूगोळनुं ज्ञान मेळववा माटे उत्तम साधन गणाय छे. आ प्रकरणमा ३० कारिकामां जम्बूद्वीपने लगती अलग-अलग १० बाबतो निरूपवामां आवी छे. प्रभानन्दसूरिजीओ आ प्रकरण पर सरळ भाषामां विस्तृत टीका रची छे, जेमां मूळ ग्रन्थमां निरूपायेली बाबतोना स्पष्टीकरण साथे बृहत्क्षेत्रसमास वगेरेना आधारे केटलुक उमेरण, विविध मतोनुं निदर्शन वगेरे करवामां आव्यु छे. प्रस्तुत पुस्तकमां मूळ ग्रन्थनी सम्पादित अने अनूदित वाचना तेमज रोमन लिप्यन्तर अने अंग्रेजी अनुवाद साथे टीका आपवामां आव्यां छे. विद्यार्थीओनी सगवड माटे परिशिष्टो अने चित्रो पण मूकवामां आव्यां छे.
__ आम तो आ ग्रन्थमां आना लेखकनी महेनत, विद्वत्ता, चोकसाई वगेरे तरत जणाइ आवे छे; छतांय परम्परानी अनभिज्ञता अने योग्य मार्गदर्शनना अभावने लीधे पाश्चात्त्य संशोधकोनां विद्याकार्यो सामे घणी समस्याओ सामान्यतः सर्जाती होय छे अने तेवू आमां पण बनवा पाम्युं छे. जेमके लेखके प्रारम्भमां जम्बूद्वीपसंग्रहणीना रचयिता हरिभद्रसूरि कोण होइ शके ते विशे जे ऊहापोह कर्यो छे, तेमां 'भवविरहांक' अने 'याकिनीमहत्तरासूनु' ओ बे हरिभद्रसूरिने जुदा दर्शाव्या छे अने तेओनो सत्ताकाळ पण जुदो जुदो नोध्यो छे. जैन परम्पराथी तो आ बंने हरिभद्रसूरि अक ज छे ते सिद्ध छे. पण ते विशे लेखके नथी नोंध लीधी के नथी बनेने जुदां गणवानां कारणो दर्शाव्यां. अस्तु.
___ पाश्चात्त्यदेशोमां पण जैनविद्यानो प्रसार थतो जाय छे तेनुं आ पुस्तक सूचकचिह्न छे. अने ओ रीते ओ चोक्कस आवकारपात्र छे.
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विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र प्रचण्ड मेधा-मनीषाना स्वामी श्रीहेमचन्द्राचार्ये विद्याजगतमां पुष्कळ प्रदान तो कर्यु ज हतुं, एमणे केटलीक मौलिक शरुआतो पण करी हती : प्राकृत भाषाओने संस्कृत जेटलुं ज महत्त्व आप्यु, अपभ्रंश अने प्राचीन गुजरातीने प्रतिष्ठा आपी, गुजरात राष्ट्रना घडतरमां रस लीधो, पुरातत्त्वनी शोधखोळ अर्थे प्रथम उत्खनन माटेनी प्रेरणा आपी, सोमनाथना जीर्णोद्धारमां प्रेरक बन्या अने यात्रामां पण जोडाया, राजसभामां सर्व मत-पन्थना विद्वानो साथे बेठा अने चर्चा-विचारणामां भाग लीधो. आ बधुं तेमनी मौलिक चिन्तनशैली, संशोधक दृष्टि, ज्ञानपूत अभिगम अने प्रखर मेधा परिणाम हतुं. आ प्रज्ञापुरुषनी स्मृतिमां प्रकाशित थती 'अनुसंधान' संशोधन पत्रिका तेमनी आचार्यपद नवम शताब्दी प्रसंगे विशेषांक प्रगट करे ए तेना उद्देशने अनुरूप ज छे. विशेषांकने सुन्दर प्रतिसाद मळ्यो छे. सम्पादित कृतिओ तथा संशोधनलेखो सारा प्रमाणमां अने स्तरीय प्रकारना मळ्या छे. बे भागमा प्रकाशित थयेल आ विशेषांक सीमाचिह्नरूप बन्यो छे.
हेमचन्द्राचार्य अने तेमना साहित्य साथे सम्बन्ध धरावता १३ जेटला लेखो अने बीजा संशोधन लेखोमां प्रस्तुत थयेल माहिती-मूल्यांकनो विषे आ स्थळे अवलोकन करवान राख्यं नथी. सम्पादित कृतिओना अवलोकननो उपक्रम अहीं स्वीकार्यो छे. परन्तु आ अंकना संशोधनलेखो अने विशेषलेखोमांथी केटलाक विशे लखवानुं मन थई जाय एवं छे. सर्व प्रथम तो सम्पादकीय विशे. सम्पादक आचार्यश्री दरेक अंकमां संशोधनक्षेत्र विषे पोतार्नु चिन्तन मूकता होय छे, जे संशोधकदृष्टिने विकसाववा माटे अथवा तो ऊगता संशोधकोने भ्रामक ख्यालोमां अटवाता बचाववा माटे महत्त्वना विचारबिन्दुओथी छलकतुं होय छे. आ बंने भागमा सम्पादकश्रीए एवा ज थोडा मुद्दाओने अधोरेखित करी
आप्या छे. संशोधनक्षेत्रे रुचि धरावनार वर्गे आ लेखो ध्यानथी वांचवा जेवा होय छे.
हेमचन्द्राचार्य जेवी प्रतिभा तेजोद्वेष अने अपप्रचारनुं निशान बने ओ कदाच जगतनी वरवी वास्तविकता छे. ओ ज प्रमाणे, आवा व्यक्तित्वनी
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आसपास कल्पना-किंवदन्तीओनुं सर्जन थाय ए पण एक मानवसहज वास्तविकता छे. शीलचन्द्रसूरिजीए हेमचन्द्राचार्य विषयक आवा अपप्रचार अने कल्पनाओनी सविगत तथा साधार चर्चा करी भ्रमजाल दूर करवानो प्रशस्य प्रयत्न कर्यो छे. अपप्रचार के महिमावर्धक किंवदन्तीओ वांची - सांभळी आपणे तेनाथी ओझपाई/ हरखाई जवानुं नथी, परंतु तथ्यो तपासवां जोईए. सामान्य वाचक पोते तथ्यो शोधवा न जई शके, ए तो विद्वज्जनोनुं काम छे. लेखक आचार्यश्रीए ए फरज बजावी छे.
कांतिभाई बी. शाहना ‘नेमिरंगरत्नाकर' उपरना आस्वादलेखमां म.गु. कृतिओना सम्पादनकार्यमां ध्यानमा राखवा जेवा घणा मुद्दा छे. म. गु. भाषानी कृतिओनुं सम्पादन संस्कृत - प्राकृतनी सज्जता करतां कंइक अलग ज प्रकारनी सज्जता मागे छे. आ भाषाना पाठनुं संशोधन सावधानी मागी ले छे, कारण के सं.- प्रा. जेवा दृढ, स्थिर नियमो आमां नथी होता. उच्चार / जोडणी सैके सैके अने प्रदेशे-प्रदेशे बदलाता रहे छे. पदच्छेद करती वखते भाषाना तत्कालीन स्वरूप तथा मूलकारना आशयने पकडवो पडे छे.
मुनिश्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो मतिज्ञान विषयक सूक्ष्म चर्चाथी सभर अभ्यासलेख वांचतां एक अध्ययनसभर, तुलनात्मक अने गम्भीर लेख वांच्यानी तृप्ति अनुभवाय छे. मुनिश्रीए आगमिक अने तार्किक एवी बे परम्परानी मान्यताओनी पाछळ रहेला सम्भवित कारणोनी जे विचारणा करी छे ते तेमनी विषयगत ऊंडी समजनी परिचायक छे. लेखना अंते उपसंहारमा चर्चित विषयना निष्कर्षो संक्षेपमां आपवानी परिपाटी छे, ते उपयोगी अने सामान्य वाचक/विद्यार्थीने उपकारक बने छे. प्रस्तुत लेखमां लेखक श्रीए एवो सारांश नथी आप्यो एटलुं खूटे छे.
अन्य विशेषलेखो / संशोधनलेखो पण माहिती अने अध्ययनना परिपाक जेवा छे. हवे सम्पादित कृतिओ पर नजर नाखीए :
श्रीहरिवल्लभ भायाणी द्वारा सम्पादित थयेल १ – १ कृति विशेषांकना बंने भागमां छे. बंने कृतिओ अपभ्रंशकालनी नजीकनी जूनी गुजराती भाषानी छे. प्रथम भागमां प्रकाशित 'तत्त्वविचारप्रकरण' एक सम्पूर्ण रचना छे. पृ. २, पं. ५मां 'आरंभ जु' एम छे त्यां 'आरंभजु' एवो शब्द वांचवानो छे. पृ. ५,
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पं. १९ पर 'ऊ पहरउं' छे, अहीं 'ऊपहरउं' वांचवं जोईए.
‘उगतीयं शब्दसंस्कार' म.गु. भाषाना अभ्यासीओ माटे अने म.गु. भाषानी कृतिओना सम्पादको माटे अत्युपयोगी कृति छे. आमां आपेला संस्कृत पर्यायो म.गु.ना शब्दोना अर्थ माटे तो सहायक छे ज, वधुमां म.गु. शब्दोनी व्युत्पत्ति नक्की करवामां पण सहायक बने एम छे. श्रीकोठारीना म.गु.कोश साथे आ कृतिना शब्दो सरखाववा जेवा हता, सम्पादके ए प्रयास पण साथे ज कर्यो होत तो मोटुं काम थात.
केलांक शब्दो विशे
पृ. १३ अरीरम्
उइहण
भावइ तिहां
पृ. १५
पृ. १६
पृ. १७ आडण
पृ. १९ बहेडउं
पृ. २० लोहडउं
पृ. २२ वाहउ
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आ शब्द खोटो वंचायो के लखायो जणाय छे. 'परार' होई शके.
गुज. मां 'औण', औण साल' प्रयोग थाय छे. "फावे त्यां', 'ठीक लागे त्यां'
चोरणां उपर कमरे आडुं वस्त्र बांधे छे ते. कच्छीमां 'आडियो' छे.
द्वयोः घटयोः समाहारः द्विघटम्. द्विघटं
एवो व्युत्पत्ति क्रम समजाय छे.
बिहडं→ बहेडं बहेडउं→ बेडुं -
→
'लोह' थी 'लोढुं' सुधीनी यात्रानो वच्चेनो एक पडाव अहीं मळे छे. लोह → लोहडं लोहडउं लोढुं. आनी सामे 'बाहुप्रवाह' छपायुं छे तेमां वाचनभूल थयानी शक्यता छे. वाह, प्रवाह एवो पाठ होई शके. 'मांड' नुं मूळ आमां होई शके.
आ 'शेळो' छे.
आनी सामे 'वग्नेय' छे ते 'विनेय' होवानो संभव.
पृ. २०
माडही
पृ. २६ सोहलिउ
पृ. ३१ क्षलक
खंभातना देरासरोनी परिपाटी / सूचिओमां एक वधु कृतिनो उमेरो मुक्तिसागरकृत 'थंभणतीरथमाल स्तवन' थकी थाय छे. देरासरोनी संख्यामां जे
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सामान्य फरक देखाय छे तेनुं कारण वाडा/पोळ/शेरी वगेरेना नाम/हद वगेरेमां समये समये थता फेरफारो तथा लेखक/कविनी गणतरीमा रहेता फेरफार होई शके.
सिद्धहेम व्याकरण अन्तर्गत प्राचीन गुजराती दूहानी एक नवी वृत्ति(अपूर्ण) आ अंकमां छे. प्रतनी अशुद्धि दूर करवानो सम्पादिका साध्वीजीए पूरो प्रयास को छे, तेम छतां क्यांक अशुद्धि रही जवा पामी छे. दो. ५मां 'झाएवि' छे ते वधारानो जणाय छे. 'ण(णा)वइ' छे त्यां ‘णाई' शब्द संगत थाय छे तेथी णोवइ (णाइ) एम सुधारवू घटे. दो० १५मां 'पइट्ठ णवि' छपायु छे ते वृत्ति अनुसार 'पइट्ठणवि' ठीक लागे छे. दो. ३१नी वृत्तिमां '०मण्डलं चन्द्रिकया' एम कर्यु छे पण अहीं ०मण्डलचन्द्रिकया' एम समास करवो योग्य लागे छे. दो. ३३नी वृत्तिमा 'तुच्छमध्याः'ने स्थाने 'तुच्छमध्यायाः' वांचवू रह्यं. दो. ४६नी वृत्तिमां 'स्थातमपि' छे ते प्रेसभूल ज हशे, 'स्थानमपि' जोईए.
भाग-२मां भायाणी साहेब सम्पादित एक अप्रगट रचना – 'कुमारसम्भव बालावबोध' - जैन श्रमणोनी साहित्यप्रीतिनुं उज्ज्वल उदाहरण समान छे. जैन मुनिओ संस्कृत व्याकरणनो अभ्यास कर्या पछी पंचकाव्यनो अभ्यास करता, जेमां कुमारसम्भवनो पण समावेश थतो हतो. एवा प्राथमिक अभ्यासीने काव्यनो अर्थबोध सुगमताथी थाय ए माटे कोई विद्वान जैन मुनिए संक्षिप्त टीका अने ते समयनी गुजराती भाषामां अर्थ लखवानो श्रम लीधो छे. दुर्भाग्ये कां तो ए काम ज पूरुं थयुं नथी, के पछी नकल करनारे पोथी पूरी लखी नथी; कां तो भायाणी साहेब पोते ए पोथीमांथी पूरो उतारो करी शक्या नथी. ए जे होय ते, पण भायाणी साहेबने आ कृति ध्यानार्ह तो जणाइ ज छे. बाला०नी भाषा ओछामा ओर्छ पंदरमा शतक जेटली जूनी जणाय छे. आनी हस्तप्रत पण जर्जरित हशे तेथी पाठनिर्धारणमां पण बाधा आवी हशे. केटलांक स्थान आ रीते व्यवस्थित थई शके खरां -
__पृ. २, पं. २ (नीचेथी) : 'न तु जलनिय्ये (?)' छे त्यां 'ननु जलनिधयो' बराबर बेसे छे. पृ. ३ प. ९ : 'हस्तप्रमाणय (?) छे त्यां 'हस्तप्रमाणया' एवो पाठ संभवे. “किरि' शब्द 'जाणे के' एवा अर्थनो अपभ्रंश शब्द छे. आ शब्दनो उपयोग ए वातनो सूचक छे के आ बाला. अपभ्रंशकालनी
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नजीकनी रचना छे.
___'नानादेशदेशीभाषामय स्तोत्र'मां मारवाडी स्त्रीना मुखे बोलायेला भागमां 'र'कारना स्थाने 'ग'कारनो प्रयोग थयो छे ते विषे तेनी भूमिकामां अमे नोंध करी छे. ए प्रदेशमा एक जमानामां आवो उच्चार थतो हतो तेवू जणावतो दस्तावेजी आधार त्यार पछी अमने मळी आव्यो छे, अने ते बीजे क्यांयथी नहि, आगमप्रभाकर पूज्यपाद श्रीपुण्यविजयजी म.ना लखाणमांथी मळ्यो छे. पोणो सो वर्ष पहेला तेओश्री ए बाजू विचर्या हता त्यारे तेमणे आ वातनी नोंध करी हती. पोताना गुरुजी उपरना पत्रमा तेओ लखे छे :
"अहींना लोको सामान्य रीते 'स'ने 'च' बोले छे अने 'च'ने 'स' - तरीके उच्चारे छे. तथा 'र' मूर्धन्य होवा छतां कंठ्य अक्षरनी जेम बोले छे एटले ए उच्चारमां 'ग' अक्षरनो भास थाय छे....."
- "२०मी सदीनी अलौकिक व्यक्ति" पृ. १३ आ ज रचनानी ५६मी कडीमां 'आबूगोडा' शब्द आव्यो छे तेनो खुलासो पण अमने अमारा ताजेतरना विहारमा मळी गयो. आबूनी पश्चिम तळेटीना १०-१५ गामो माटे आजे पण 'आबूगोड' शब्द प्रचारमा छे. गुजरातमां प्रचलित 'गोळ' शब्द साथे आनी निकटता जोई शकाय छे.
'केटलीक ऐतिहासिक अप्रगट कृतिओ' रसप्रद छे. सम्पादकोए पूरक माहिती पण आपी छे. पाठ प्रायः शुद्ध छे. विद्वान मुनिओ साहित्यक्षेत्रे केवा ओतप्रोत रहेता तेनी झलक आवी नानी नानी कृतिओ आपी जाय छे.
श्रीदेवचन्द्रजी म.नी एक अप्रसिद्ध रचना अनु० द्वारा प्रकाशमां आवी छे. रत्नाकर पचीसी आधारित आ रचना देवचन्द्रजी म.नी कदाच प्राथमिक रचना होय, जेथी तेनो प्रसार ओछो थयो होय. आ कृतिनी हस्तप्रत अने लेखनकाळना विषयमा सम्पादकोए कोई नोंध करी नथी. देवचन्द्रजी महाराजनी शैलीनी छाप कृतिमां देखाई आवे छे. २८ कडी सुधी संस्कृत कृतिना भावो गूंथाया होवानुं सम्पादको नोंधे छे, तेमां एटलु उमेरी शकाय के अन्तिम श्लोकनो भाव कविए क. ३२-३३मां लीधो छे.
___'वैराग्यरंगः'० आ श्लोकनो भाव कविए १०-११ एम बे कडीमां लीधो छे. अहीं कविए वैराग्य, उपदेश अने विद्यानो साचो उद्देश | होवो
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जोइए तेनी वात पण कडीमां गूंथी लीधी छे. “विद्यानो साचो हेतु 'तत्त्वपरिपदा' छे पण तेनो में अन्यने जीतवाना साधन तरीके - ढाल तरीके - कर्यो" - एवो आशय छे. आथी पदच्छेद आम थाय : विद्या तत्त्वपरिपदाजी.... 'परिपदा' शब्द उपाध्यायजीनी शैलीनी नीपज छे.
क. २२मां 'रत्नविलाप' छपायुं छे ते प्रेसभूल न होय तो वाचननी भूल छे. 'अरण्यविलाप'ना स्थाने 'रन्नविलाप' शब्द अहीं वपरायो छे. क. २६मां 'सूतजोगे'मां 'सूत' शब्दमां पण कशीक गरबड़ लागे छे. क. २७नी बीजी पंक्ति आ रीते वांचवी जोइए -
_ 'वृतमानभव रागता जी,तेणे त्रण्य भव नष्ट'. पाठमां संमार्जनीय स्थान - क. १. अभाय
अमाय २. पामयिजी पामियो जी ६. दृष्टि
दष्ट १४. हाय(व) हाय(दाव) १४. घूसियो जी धूसियो जी १५. दुखव्यो दूषव्यो शब्दकोश
चूंप (७) चोंप, काळजी परिपदा (११) निर्णय (?), बोध (?) धूसियो (१४) मेलो कर्यो, धूळथी खरड्यो रकोज्य (२०) ? मरोज्य (२०) ? सूत (२६) सूत्र (?), शिखामण (?)
'साध्वाचारषट्विंशिका' एक भाववाही, मधुर कृति छे. तेना रचयिता प्रौढ विद्वान तथा साधुताथी समृद्ध मुनिजन छे. आवा प्रकारनी रचनाओ संस्कृतना विद्यार्थी साधु-साध्वीओने पूरक वाचन तरीके आपवी जोइए.
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'अनुसन्धान'मां आ प्रकारनी रचनाओ अगाउ पण प्रगट थई छे, ए बधांनुं एक संकलन प्रसिद्ध करी शकाय. आ ज अंकमां प्रकट थयेल श्रीपार्श्वनाथस्तोत्र पण आवी ज मनोरम रचना छे. पाठमां थोडी अशुद्धि रही छे. ह.प्र.नुं वधु चोकसाईथी वाचन तथा अर्थनी विचारणा थाय तो पाठ वधु चोख्खो तैयार थई शके. श्लोक ४नो उत्तरार्ध आम कल्पी शकाय छे -
देव ! त्वदाननसुधांशरसौ निशान्त
आलोकि सेवकजनैः सुकृतीनकान्त ! श्लोक ५मां '०कलुषे' नहि '०कलुषं' योग्य लागे छे - श्लोक ६नो उत्तरार्ध - दृष्टिः सतां जिनप ! ते वदनारविन्दे
नो लीयते कथममन्दवचोमरन्दे श्लोक ९ : 'विभादे'ने स्थाने विभाते, 'शुभाले'ने स्थाने 'शुभा ते' होवानो संभव छे.
'श्रावकद्वादशव्रतचतुष्पदिका' अपभ्रंशभाषानी प्राचीन रचना छे. पाठ संशोधन मागे छे.
___ 'नेमिजिनस्तुति' एक विद्वान श्रावकनी रचना छे जेना पर एक मुनिवरे टीका रची छे. जो के केटलांक स्थळोए अर्थ स्पष्ट करवामां टीकाकारने पण सफलता नथी मळी, पण टीका विना कृति यथेष्ट रीते समजी शकात नहि ए पण स्पष्ट छे.
विशेषांकना बंने भागनां आवरणो पर हेमचन्द्राचार्य सम्बन्धित छायाचित्रो मूकायां छे. आवरण पर दस्तावेजी प्रकारनां चित्रो आपवानी शैली, आवकार्य ज छे. ए ज रीते 'अनुसन्धान' जेवा पत्रमा ग्रन्थसमीक्षा जेवो विभाग होवो अनिवार्य छे. मात्र प्रशंसा के आवकार ए समीक्षा नथी. प्राचीनकृतिनुं सम्पादन होय तो तेना सम्पादन/ संशोधननी बाबतमां अने कोई मौलिक सर्जन होय तो तेना विषयवस्तु, भाषा, शैली वगेरेनी बाबतमां समीक्षके अवलोकन/मूल्यांकन करवानां होय तथा ग्रन्थनी विशेषता/न्यूनता तरफ ध्यान खेंचवार्नु होय.
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________________ 152 अनुसन्धान-५५ साहित्यजगतमां भलभला लेखक/कवि/संशोधकना पुस्तकनी तीखी समीक्षाओ थती होय छे. मुनि भगवन्तो प्रायः संशोधन/सम्पादननी मान्य परिपाटीथी अपरिचित होय छे. मात्र पाण्डित्यथी संशोधन/सम्पादननी योग्यता प्राप्त थती नथी. प्रशिष्ट ग्रन्थोनुं बहोळु पठन-पाठन, विविध भाषाओना स्वरूपनो परिचय, विभिन्न विद्याशाखाओनी (भले पूरी नहि, कामपूरती) जाणकारी अने सौथी वधु तो, महान संशोधकोए करेला कामोनुं जिज्ञासु-विद्यार्थी भावे परिशीलनआ बधुं लेखक के सम्पादक पासे होवू जोईए. 'अनुसन्धाने' 'परस्परं प्रशंसन्ति'नी ढबे समीक्षा करवानी नीति स्वीकारी नथी एवं एमां प्रगट थती समीक्षा जोतां कही शकाय छे. आ माटे सम्पादकश्रीने अभिनन्दन! आ अभिगम जैन साहित्य अने संशोधनने लाभकर्ता थशे. प्रकाशको/ सम्पादको/लेखको पण आ वात समजे एवी विनन्ति करवानुं मन थाय. जैन देरासर, नानी खाखर-३७०४३५ गुजरात