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________________ अनुसन्धान-५५ शके. (२) व्यंजनपर्याय- साम्प्रत, समभिरूढ अने अवम्भूत ओ त्रण शब्दनयो. 'जेनाथी अर्थ व्यक्त थाय ते व्यंजन अटले शब्द. तेना पर्यायो अटले तेमां रहेली वाचकता. शब्दनयो आ वाचकता- व्यंजननिष्ठपर्यायनो विचार करता होवाथी व्यंजनपर्याय कहेवाय' आवी कोइक समजण आवो अर्थ देखाडवा पाछळ होइ शके. (३) सविकल्प- आना बे अर्थ तेओओ देखाड्या छ- १. विकल्पोनो सद्भाव अने २. सामान्य- जाति. ओक सामान्यने आश्रयीने जुदा जुदा घणा विकल्पो- विशेषो संभवी शकता होवाथी, सामान्य पण सविकल्प कहेवाय छे. (४) निर्विकल्प- आना पण बे अर्थ देखाडवामां आव्या छे. - १.विकल्पोनो अभाव अने २. विशेष. विशेषना कोई विकल्प- विशेष संभवता न होवाथी, विशेष पण निर्विकल्प गणाय छे. विशेषने निविकल्प तरीके ओळखावनारी 'सामान्यस्वरूपमांथी निर्गत विकल्प- विशिष्टपर्याय ते निर्विकल्प' आवी व्युत्पत्ति पण संभवे छे. सविकल्प अने निर्विकल्पना अकने बदले बे अर्थ शब्दनयोना विशिष्ट स्वरूपने आभारी छे. शब्दनयोमा पहेलो साम्प्रतनय लिंग, कारक, काल वगेरे भेदे अर्थभेद माने छे, पण संज्ञाभेदे नहीं. मतलब के तेना माटे 'घटः' कहो अने 'घटम्' कहो, त्यारे अनुक्रमे कर्ताकारक अने कर्मकारक तरीके उपस्थित थती घटव्यक्ति जुदीजुदी छे; परन्तु 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो के 'कलशः' कहो, त्यारे ओ त्रणे शब्दथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज छे.१ १. अेक प्रश्न अवश्य जागे के जो साम्प्रतनयमते संज्ञा ओक ज होवा छतां, लिंग, कारक वगेरे जेवी सामान्य बाबत पण अर्थभेदक बनती होय; तो खुद संज्ञानु ज जुदापणुं अर्थभेदक केम नहीं ? आ प्रश्ननो जवाब आपणने नयरहस्यमांथी सांपडे तेम छे. त्यां उपाध्यायजीओ साम्प्रतनयनी मान्यतानो अभिप्राय ओ जणाव्यो छे के जे धर्मोनो अभेदान्वय शक्य नथी ते धर्मोने परस्पर भिन्न ज समजवा पडे अने ओ भिन्न धर्मो पोताना धर्मीने भिन्न बनावे ज. आनो मतलब ओ समजी शकाय के जेम पुरुषत्व अने स्त्रीत्वनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने तेना धर्मीओ परस्पर भिन्न छे; तेम कर्तृत्व अने कर्मत्वनो पण ओक साथे अेक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने ते धरावनार घटव्यक्तिओ जुदी ज गणवी पडे. परन्तु घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व -आ बधा धर्मोनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य होवाथी ओ धर्मो पोताना आश्रयभूत धर्मीना भेदक बनता नथी. तेथी 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो, ओ बन्ने पदथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज रहे छे.
SR No.520556
Book TitleAnusandhan 2011 06 SrNo 55
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size2 MB
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