________________
५२
गाथा-८
हो, सामायिक में नाम धराकर... परन्तु अन्दर में पूर्ण शुद्ध अखण्ड आनन्दस्वरूप – ऐसे आत्मा का अन्तर में ज्ञान और आदर नहीं है, वहाँ पर का ही अकेला ज्ञान और आदर वर्तता है। दया, दान, विकल्प आदि का आदर (वर्तता है)। इसलिए उसे परमात्मा का त्याग वर्तता है, उसे परम स्वभाव का त्याग वर्तता है। ऐ...ई...! परमात्मा का त्याग वर्तता है। परन्तु उसे त्याग है या नहीं?
ज्ञानी को पूरा राजपाट (होवे), चक्रवर्ती का या इन्द्र का राज (होवे तो भी) त्याग वर्तता है । अभ्यन्तर में स्वभाव की अधिकता की महिमा में, आत्मा के ज्ञान की अधिकता के भान में बाहर के पदार्थ और उसका कारणभाव-शुभाशुभभाव या बन्धभाव-कर्म के रजकण, इन सबका जिसे दृष्टि में त्याग है। लो! ओ...हो...! अब यह ऐसा माने कि यह तीर्थंकरप्रकृति बँधती है, इसलिए मुझे लाभ होगा? और यह शुभभाव होता है, इसमें मुझे भविष्य में लाभ होगा.... जिसे जिस भाव का त्याग वर्तता है, उससे लाभ होगा - ऐसा मानता है? इस स्वरूप में एकाग्र होऊँगा तो लाभ होगा - ऐसा मानता है। समझ में आया? कहो, प्रवीणभाई ! ऐसा अद्भुत मार्ग!
नग्न मुनि होकर बैठा हो, लो! कहते हैं कि एक अंश का त्याग नहीं है। त्याग होवे तो उसे अन्दर पूर्ण परमात्मा का त्याग है और भोग होवे तो चौदह ब्रह्माण्ड का उसे भोग है, चौदह ब्रह्माण्ड का (भोग है), जिसे एक राग के कण का आदर है, उसे पूरे चौदह ब्रह्माण्ड का आदर है। यह क्या कहते हैं परन्तु ? 'जो परियाणइ अप्प परु जो परभाव चएइ।' ऐसे छूटते हैं, दृष्टि में से छूटते हैं । दृष्टि के भाव में से जहाँ स्वभाव आया नहीं
और परभाव दृष्टि में से छूटा नहीं, वह बाहर का त्याग करता है (- ऐसा) कौन कहता है ? (-ऐसा) कहते हैं। समझ में आया?
'सो पंडिउ' उसे भगवान पण्डित कहते हैं। समझ में आया? उसमें (सातवीं गाथा में) ऐसा कहा था न? 'जिणभणिउ पुण संसारु भमेइ' भगवान ने ऐसा कहा था कि बहिरात्मा संसार में भटकेगा। यह पण्डित है, वह तो ज्ञानी है, पण्डित है। यह सब आ गया, बारह अंग का सार (आ गया)। आहा...हा...! बारह अंग और चौदह पूर्व में कहना था, जो वीतरागपने का आदर, राग का आदर नहीं - वह बात इसे आ गयी। वह पण्डित है, जा! समझ में आया?