Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 463
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४६३ हो, जो अपने आत्मा में बसता है.... जो अप्पाणि वसेइ जो कोई आत्मा में बसता है, वह शीघ्र... लहु... लहु अल्प काल में केवलज्ञान लक्ष्मी को पानेवाला है, पानेवाला और पानेवाला (है) – जिनवर ऐसा कहते हैं, बापू! यह दूसरी बात (कहे कि) ऐसा पढ़ा हुआ है और ऐसा उघाड़ है और ऐसे समझाना आता है, हमने बहुत शास्त्र वाँचे हैं और पढ़े हैं.... शून्य रख उसमें। यह एक पढ़ा, वह आत्मा में बसा है, कहते हैं। समझ में आया? आहा...हा... ! और उसका बसना सादि-अनन्त सिद्धरूप हो जाएगा - ऐसा कहते हैं। ऐसा कहते हैं मूल तो। बात (ऐसी है कि) यहाँ जहाँ बसा है, वह बसा है, वहाँ स्थिर होकर वह सिद्धपद की पूर्णदशा में बस जाएगा। आहा...हा...! योगीन्द्रदेव! देखो! दिगम्बर सन्त तो देखो! मुनि, जंगल में रहनेवाले दहाड़ मारकर (कहते हैं) सिंह (की तरह) दहाड़ मारी है, कहते हैं । गृहस्थाश्रम में होवे तो क्या? अन्दर आत्मा है या नहीं? आत्मा है या नहीं? या अकेला विकार ही है? अकेला विकार है तो अनादि का है, नया क्या किया तूने? समझ में आया? प्रश्न – मुनि, आत्मा में लीन है; सम्यक्चारित्र से लीन है। उत्तर – आत्मा में ही है, चाहे तो विकल्प आदि हो तो भी दृष्टि आत्मा में है, इसलिए आत्मा में ही बसा हुआ है। उसमें (विकल्प में) बसा ही नहीं । आहा...हा...! __ आत्मिक अतीन्द्रिय आनन्द को सिद्धि सुख अथवा सिद्धों का सुख कहते हैं। जैसा शुद्धात्मा का अनुभव सिद्ध भगवान को है, वैसा ही शुद्धात्मा का अनुभव जब होता है, तब जैसा सुख सिद्ध वेदते हैं, वैसा ही सुख शुद्धात्मा का वेदन करनेवालों को होता है। अतीन्द्रिय आनन्द का सम्यग्दृष्टि को अनुभव (होता है) और सिद्ध को अनुभव (होता है), उस आनन्द की जाति एक है। समझ में आया? भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप भगवान नित्यानन्द का नाथ, उसकी विकल्पदशा में दुःख, उसे तोड़कर जिसने अन्दर में अतीन्द्रिय आनन्द का तल लिया है, उस अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद लेनेवाला, सिद्ध (का) अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद और यह स्वाद, स्वाद की जाति में अन्तर नहीं है। अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद जिस साधन से हो, वही मोक्ष का उपाय है।

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