Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 480
________________ ४८० गाथा - ६७ का कामी है न? उसके जो साधन देखे, उनका मोह नहीं छोड़ता । यह सब निमित्त हैं, यह सब साधन हैं। ये सब स्त्री, पुत्र, पैसा, इज्जत, मकान, धूल-धाणी, यह सब साधन हैं - ऐसा माननेवाला इनका मोह नहीं छोड़ता और इन्द्रियों के विषयों में सुखबुद्धि है और उस सुखबुद्धि में सहकारी कारण को देखकर उसमें से रुचि नहीं छोड़ता । कहो, चन्दुभाई ! मुमुक्षु - भागीदार अलग न करे तो क्या करना ? उत्तर - कौन अलग नहीं करता ? ठीक! सब अलग ही है, कौन अलग नहीं करता ? ऐ... निहालभाई ! भागीदार अलग नहीं करता, लड़के अलग नहीं करते, स्त्री अलग नहीं करती... परन्तु करना क्या ? तू अलग हो न, सब अलग ही है । हैं ? मुमुक्षु - मुवक्किल भी अलग नहीं करता । उत्तर - मुवक्किल कोई अलग नहीं करता। वह एक ओर बैठ गया, कौन असील वहाँ पकड़ने आता है ? आता है कोई ? बाल्यावस्था में माता-पिता के द्वारा उसका पालन-पोषण होता है..... वहाँ इन्द्रियों का सुख माना है न ? साधन से वहाँ माना है। लाड़-प्यार से रखा जाता है..... समझ में आया? इसलिए उनके प्रति जीव तीव्र मोह रखता है । युवावय में स्त्री से और पुत्र-पुत्रियों से इन्द्रिय सुख पाता है..... युवावस्था में इन्द्रियाँ, स्त्री और पुत्र - पुत्री का मोह नहीं छोड़ता । इस ओर करना नहीं और वहीं का वहीं फँसा रहता है, कहते हैं। इसके पुत्र, स्त्री, और लड़के... इनका करूँ... इनका करूँ.... इनका कुछ ठीक करूँ.... स्वयं मरकर चाहे जहाँ जाये । कहाँ गये ? वासुदेवभाई ! आये हैं या नहीं ? उन्हें संसार की थोड़ी समानता हो गयी लगती है; इसलिए निवृत्ति ली समझ में आया ? । कहो, जिन मित्र और नौकरों-चाकरों द्वारा इन्द्रिय के सुखभोग में मदद मिलती है ..... ठीक लिखा है । जिन मित्रों से और ... समझ में आया ? नौकर-चाकरों से इन्द्रियों के सुख में सहकारी होते हैं, उनका मोह नहीं छोड़ता । स्वयं मूढ़ है न! अपने सुख के निमित्त देखता है, इसलिए उसमें से हटना नहीं रुचता परन्तु सुख आत्मा में है - ऐसा निर्णय करे तो उस सुख के निमित्त के प्रति इसका मोह छूट जाये। समझ में आया ? और जिनसे

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