Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 486
________________ ४८६ गाथा - ६८ मिलता ! कौन शरण मिले ? भाई ! तूने आत्मा को तो सम्हाला नहीं। बाहर में विकल्प भी जहाँ शरण नहीं तो उसके संयोग साधन, सहकारी तो शरण कहाँ से होंगे ? भगवान आत्मा अन्तरस्वरूप की सामर्थ्यवाला प्रभु कौन है ? उसकी तो कभी दृष्टि की नहीं और उसके अतिरिक्त इस जगत में (कोई) शरण नहीं है, भगवान भी शरण नहीं है। भगवान क्या करे ? अरिहंता शरणं, सिद्धा शरणं.... चार शरण .... दे देंगे ? भगवान शरण देने आते हैं ? अरिहंता शरणं... अरिहंत भगवान आत्मा है । अपना स्वरूप ही अरिहंत है, अपना स्वरूप सिद्ध समान है, अपना स्वरूप आचार्य की वीतरागी पर्याय जैसा है, उपाध्याय और साधु (को) वीतरागी पर्याय हुई, वे वीतरागी दशावाले ( हुए) । वीतरागी दशा होवे तो उसे पाँच पद कहते हैं - ऐसी दशावाला आत्मा है। आत्मा तू ही पाँच पदरूप है। समझ में आया ? कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने अष्टपाहुड़ में लिया है। यह पाँचों ही पर्याय आत्मा की है । अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय की सदा वह आत्मा की है। आत्मा स्वयं ही पाँच पदरूप है। समझ में आया ? सिद्ध की या अरिहंत की केवलज्ञान की पर्याय, उस पर्याय का पद तो अन्दर आत्मा में पड़ा है। स्वयं ही आत्मपद ऐसा है । शरण अपना आत्मा है। कोई अरिहंत शरण देने नहीं आते, सिद्ध भगवान भी कहीं शरण देने नहीं आते। मुमुक्षु - ऐसी प्रतीति आ जाये ? उत्तर - ऐसा अनुभव आ जाये । कहो, समझ में आया ? कोई जीव किसी का रक्षक नहीं है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को अशरण भावना का विचार करके कर्मों के क्षय का उपाय करना योग्य है.... कर्म का संयोग एक क्षण आमाको गुणकारी नहीं है । कर्मभूमि के मनुष्य को आयुष्य के क्षय का नियम नहीं है... वहाँ आगे उसकी स्थितिप्रमाण आयु पूर्ण होती है, यहाँ भी होती है स्थिति प्रमाण परन्तु अकाल कोई ऐसे निमित्त हों (तो) छूट जाये, उसे अकाल कहा जाता है। देखो! समयसार का कहा है। जो कोई ऐसा अहंकार करता है कि मैं परजीवों को दुःखी और सुखी कर सकता हूँ, वह मूर्ख और अज्ञानी है। मुमुक्षु - यह न माने उसे अज्ञानी कहते हैं ।

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