Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 488
________________ ४८८ गाथा-६८ आता है न? पीछे दो गाथाएँ हैं, आज ही करना, विलम्ब नहीं करना। पैसेवाले करते हैं न? क्या कहलाता है ? किस्त... पाँच हजार दूंगा परन्तु महीने में पाँच सौ-पाँच सौ, बारह महीने दूंगा – ऐसे किस्त मत करना। मुमुक्षु – किस्त भी रह जाती है। उत्तर – परन्तु यहाँ तो यह तो बात है यहाँ तो कहते हैं, वायदा रह ही नहीं जाये। आहा...हा...! भगवान चैतन्यरत्न पड़ा है न? भगवान ! पूर्णानन्द का नाथ अनन्त गुण का भण्डार चैतन्यरत्नाकर में तेरी नजर करने से निधान फटे (प्रगटे) ऐसा है। आहा...हा...! कहाँ इसमें किस्त-फिस्त थी? समझ में आया? बाहर नजर करने से होली सुलगे ऐसा है, यह कहते हैं । जहाँ-जहाँ परद्रव्य पर नजर करेगा, वहाँ विकल्प उठेंगे, विकल्प उठेंगे तो आकुलता होगी और भगवान आत्मा अनाकुल का स्थान है। अनाकुल पर दृष्टि देने से उसे विलम्ब नहीं करना चाहिए। लो, यह बात पूरी हुई। (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!) वीतरागता की साधकदशा मुनिदशा, आत्मा की पूर्ण परमात्मदशा प्राप्त करने की साधकरूप दशा है। वीतरागता की साधक होने से उस दशा में तीव्र राग होता ही नहीं। अशरीरी सिद्धदशा की साधकरूप अवस्था में शरीर के प्रति तीव्र राग हो ही नहीं सकता और तीव्र राग के अभाव में वस्त्र, पात्र इत्यादि तीव्र राग के निमित्त भी अवश्य ही नहीं होते। इस प्रकार जिस जीव को मुनिदशा प्रगट होती है। उस जीव को वस्त्रादि का राग अथवा संयोग नहीं होता। वस्त्रादिक का तीव्र राग होने पर भी जो उसे मुनिदशा मानता है, वह पवित्र साधक मुनिदशा के स्वरूप को नहीं जानता। जो साधकदशा के स्वरूप को नहीं जानता, वह साध्यदशा के स्वरूप को भी नहीं जानता और त्रिकाल आत्मस्वरूप को भी नहीं जानता। आचार्य भगवान कहते हैं कि जो जीव ऐसे जीवों को धर्मात्मा के रूप में मानते हैं, वन्दन करते हैं, वे तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं। - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी

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