Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 491
________________ प्रकाशकीय अनन्त कालचक्र के प्रवाह में अनादि काल से अनुत्पन्न-अविनष्ट ऐसे अनन्त जीव, भव दुःख से पीड़ित हैं। आधि-व्याधि, उपाधि से त्रस्त और शारीरिक तथा मानसिक दुःख से दुःखित आत्माओं को सच्चा सुख और दुःख-मुक्ति का उपाय प्राप्त नहीं हुआ है - एक ओर यह परिस्थिति है, जबकि दूसरी ओर इसी दुःख से छूटने का उपाय शोधनेवाले अनेक सन्त भी कालचक्र के प्रवाह में होते आये हैं। जिनके द्वारा प्रतिपादित सच्चे सुख का मार्ग अंगीकार करके अनेक जीव शाश्वत् सुख को प्राप्त हुए हैं, होते हैं और भविष्य में होते रहेंगे। दोषरूप विभावभावों के साथ दुःख और मलिनता का होना अनिवार्य परिस्थिति है। दोषरूप विभावभावों का मूल कारण खोजकर ज्ञानी-धर्मात्माओं ने उसे मिटाने का उपाय ढूँढकर निष्कारण करुणा से उसे जगत् के समक्ष रखा है। ऐसे ही कालचक्र के प्रवाह में वर्तमान शासन नायक अन्तिम तीर्थादिनाथ भगवान महावीर के शासन में होनेवाले दिगम्बर आचार्य, मुनि-भगवन्त एवं ज्ञानी-धर्मात्माओं ने इस मार्ग को अपनी अनुभवपूर्ण सशक्त लेखनी द्वारा ग्रन्थारूढ़ किया है। प्रस्तुत प्रवचन के ग्रन्थ रचयिता श्रीमद् भगवत् योगीन्द्रदेव लगभग १४०० वर्ष पहले हो गये हैं। ग्रन्थ रचयिता आचार्य भगवान का विशेष इतिहास उपलब्ध नहीं है परन्तु उनकी कृतियों के अवलोकन से इतना निःसन्देह कहा जा सकता है कि आचार्य भगवान प्रचुर स्वसंवेदन में झूलनेवाले अध्यात्मरसिक महासन्त हैं। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव तथा पूज्यपाद आचार्य आपके प्रेरणास्रोत रहे हों, ऐसा प्रतीत होता है। श्रीमद् योगीन्द्रदेव की अन्य कृति परमात्मप्रकाश भी अध्यात्मरस से भरपूर है, जिसमें उनका अतीन्द्रिय स्वसंवेदन का रस झलक रहा है। आपश्री के द्वारा रचित अन्य कृतियाँ - नौकार श्रावकाचार, अध्यात्म सन्दोह, सुभाषिततन्त्र, तत्त्वार्थटीका भी सर्व मान्य है। इन सबमें योगसार ग्रन्थ महत्वपूर्ण माना जाता है। योगसार ग्रन्थ में संसार परिभ्रमण से भयभीत जीवों को सम्बोधन करने के लिए ग्रन्थ रचना

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