Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 485
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४८५ 'इंद-फणिंद-णरिंदय वि जीवहं सरणु ण होंति' आहा...हा... ! 'मुणि-धवला' इसलिए उत्तम मुनि.... 'धवला' (अर्थात् ) उत्तम मुनि अपने को अशरण जानकर.... बाहर से कोई शरण है नहीं। 'अप्पा मुणंति' आहा...हा...! मरते समय देह में रोग होवे, दवायें लानेवाले भी बहुत हों, परन्तु क्या शरण? शरण क्या? समझ में आया? यह चिदानन्द प्रभु आनन्दस्वरूप है, वहाँ विश्राम का स्थान लेने योग्य तो आत्मा है, वह आत्मा शरण है, उस समय कोई शरण नहीं है। कोई भी शरण नहीं है । रोग आवे, पैरों में तड़फड़ाहट होवे, ऐसा हो, उल्टी हो, खून निकले... अर...र...! अब? अब क्या? परन्तु अन्दर वह (भगवान आत्मा) है या नहीं? बाहर का कोई शरण है नहीं। भगवान आत्मा, उत्तम मुनि अपने आत्मा को अनुभव करके अपनी शरण अपने में जानते हैं। 'अप्पा मुणंति' आत्मा द्वारा आत्मा को... क्या कहते हैं ? 'अप्पा अप्प मुणंति' स्वयं को स्वयं के द्वारा अनुभव करते हैं – ऐसा कहकर क्या कहते हैं ? व्यवहार द्वारा, निमित्त द्वारा अनुभव नहीं हो सकता – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? 'अप्पा अप्प मुणंति' भगवान शुद्ध वीतरागस्वरूप ऐसा आत्मा, वह शुद्ध वीतराग परिणति द्वारा अनुभव हो सकता है, उसके अतिरिक्त दूसरा कोई इसका रास्ता और उपाय नहीं है – ऐसा इसे निर्णय करना चाहिए। कहो, समझ में आया? कोई उसे मिटा नहीं सकता। कर्म का उदय भोगता है (उसे) कोई (मिटा सकता है)? ऐसा कहते हैं। ज्योतिषियों में ऐसी शक्ति नहीं है कि मरण से एक क्षण भी रोक सके। ज्योतिषी-व्योतिषी रख सकते हैं या नहीं? स्वयं सर्व प्रकार से भोग -भोगनेवाले चक्रवर्ती को भी शरीर त्यागना पड़ता है। चक्रवर्ती को छह खण्ड छोड़ना पड़ते हैं। आहा...हा...! ब्रह्मदत्त ७०० वर्ष की आयु भोगकर, मरण के समय, एक-एक समय का असंख्य गुना नरक का दुःख, असंख्य गुना काल का, भाव का, अनन्त गुना सातवें नरक में पैंतीस सागर (आयु की स्थिति में) गया। हीरे के पलंग पर सोता था, पलंग में! हीरे के पलंग में (सोता था); सोलह हजार देव सेवा करते थे, छियानवें हजार रानियाँ पुकार... पुकार... (करती हैं।) अरे... ! मुझे कोई शरण नहीं

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