Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 478
________________ ४७८ ✰✰✰ कुटुम्ब मोह त्यागने योग्य है इहु परियण णहु महुतणउ इहु सुहु- दुक्खहँ हेउ । इम चिंतंतहँ किं करइ लहु संसारहँ छेउ ॥ ६७॥ गृह परिवार मम है नहीं, है सुख - दुःख की खान । यों ज्ञानी चिन्तन करि, शीघ्र करें भव हानि ॥ गाथा - ६७ अन्वयार्थ - ( इह परियण महतणउ ण हु ) यह कुटुम्ब - परिवार मेरा निश्चय से नहीं है (इहु सुहु दुक्खहँ हेउ ) यह भाव सुख - दुःख का ही कारण है ( इम किं चिंततहँ ) इस प्रकार कुछ विचार करने से ( संसारहँ छेउ लहु करइ ) संसार को छेद शीघ्र ही कर दिया जाता है । ✰✰✰ कुटुम्ब का मोह त्यागने योग्य है। आत्मानुभव करने के लिए। इहु परियण ण हु महुतणउ इहु सुहु- दुक्खहँ हेउ । इम चिंतंतहँ किं करइ लहु संसारहँ छेउ ॥ ६७ ॥ यह कुटुम्ब-परिवार मेरा नहीं है। धर्मात्मा अपने आत्मा का योग, योग अर्थात् जुड़ान.... जुड़ान कहते हैं न हिन्दी भाषा में ? जोड़ना, आत्मस्वभाव में जुड़ान। युज, युज धातु है न ? युज, जोड़ना । ऐसे आत्मा के अन्तर स्वरूप में एकाग्र होने के लिए धर्मात्मा को कुटुम्ब - परिवार, मेरा निश्चय से नहीं है, यह परिवार मेरा है नहीं, उसके लिए रुककर आत्मध्यान छोड़ना नहीं ऐसा कहते हैं । है ? देखो न ! कितने वर्ष हुए? संसार ऐसा है या वैसा ? यह भाव सुख-दुःख का ही कारण है। देखो ! यह कुटुम्ब - परिवार लुटेरों की टोली मिली है, कहते हैं । नियमसार में आ गया है न ? नियमसार में आ गया है उनके पेट भरने के लिए टोली मिली है। यदि ठीक होवे तो ठीक और यदि शरीर में कुछ (हुआ होवे) हाय... खिलाना - पिलाना और सेवा (करनी पड़ती है) समझ में

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