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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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यहाँ यही दृष्टान्त दिया है – एयत्तस्सुवलम्भो निमित्त और राग से भिन्न भगवान आत्मा (है)। यह बात सुनना दुर्लभ है। समझ में आया? उससे लाभ होता है (- ऐसा माने उसे) उससे भिन्न सुनना तो दुर्लभ हुआ।व्यवहार, निमित्त, राग से, विकल्प से आत्मा को लाभ होता है - इसका अर्थ हुआ कि (आत्मा) राग से भिन्न है - यह उसे सुनना रुचता नहीं है; उसे दुर्लभ हो गया है, नहीं... नहीं... नहीं... ।
___ पहली बात तो यह है कि जगत में भगवान आत्मा अकेला वीतरागी पिण्डप्रभु, उसकी वीतरागी परिणति द्वारा ज्ञात हो – ऐसा है; राग द्वारा वह ज्ञात नहीं होता, व्यवहार द्वारा ज्ञात नहीं होता। निमित्त द्वारा ज्ञात नहीं होता। अब जिसे, निमित्त और राग द्वारा ज्ञात होता है (- ऐसा लगता है), उसे कहते हैं कि ऐसी बात सुनना रुचेगी नहीं। समझ में आया?
अकेला प्रभु वीतरागस्वभाव से विराजमान अनादि-अनन्त वीतराग स्वभाव से विराजमान है। समझ में आया? ऐसी बात! एयत्तस्सुवलम्भो, णवरि ण सुलभो विभत्तस्स एकत्व-स्वभाव का एकत्व और पर से विभक्त, यह बात सुनना जगत को दुर्लभ है, परिचय में आना दुर्लभ है और अनुभव में आना उससे (भी अधिक) दुर्लभ है। कहो, समझ में आया?
कहते हैं - कितने ही पण्डित आत्मज्ञान बिना केवल विद्या के... घमण्ड से, अध्ययन के घमण्ड से.... लो! राजमल्लजी! ठीक लिखा है। क्रियाकाण्ड के पोषण में ही जन्म गँवा देते हैं.... राग का पोषण, राग का पोषण । व्यवहार करो, व्यवहार करो, व्यवहार करो - इसमें पूरा जीवन (गँवा देते हैं।) बस! यह हमारा धर्म है. यह हमारा धर्म है।आहा...हा...! शरीर की क्रिया से धर्म होता है, कहो! ऐसे प्रश्न (करते हैं।) आहा...हा...! अब यहाँ तो कहते हैं, विकल्प से धर्म नहीं होता; शरीर की क्रिया तो कहाँ रही गयी! भेद से धर्म नहीं होता। गुणी भगवान और यह आनन्द उसमें रहता है, यह आनन्द का धारक - ऐसा भेद, उससे भी धर्म नहीं होता। आहा...हा...! इसलिए कहते हैं कि भाई! जीवों को अनन्त काल में यह बात महा दुर्लभ है। समझ में आया?
जिनका मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायों का बल ढीला पड़ता.... तब