________________
योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
४१३
है परन्तु नित्य-नित्य में अन्तर है। यह जानकर नित्य है - ऐसा जानता है, वे जाने बिना (अचेतनरूप से) नित्य रहते हैं। समझ में आया ?
अनित्य स्वभाव... प्रत्येक पदार्थ पलटता है । प्रत्येक पदार्थ पलटता है, यह आत्मा स्वयं भी पलटता है और पर पलटते हैं, पलटने पलटने में अन्तर है । जाननेवाला ज्ञान जानकर ज्ञान में पलटता है । समझ में आया ?
एक स्वभाव... अनेक गुण होने पर भी वस्तु एक है न ? प्रत्येक आत्मा या प्रत्येक परमाणु.... गुण - पर्याय भले हो परन्तु वस्तु एक है। इस अपेक्षा से एक स्वभाव तो सबमें समान है। एक स्वभाव समान होने पर भी जानपने में (अन्तर है ) ।
अनेक स्वभाव समान हैं। सर्व द्रव्य अनेक स्वभावोंवाले होने से अनेकरूप है। गुण-पर्याय अनेक स्वभाव है या नहीं ? आकाश में, परमाणु में अनेक स्वभाव है, गुण -पर्याय है । आत्मा में भी अनेक स्वभाव है, गुण- पर्याय है । अनेक स्वभाव होने पर भी अनेक स्वभाव से समान है, तथापि ज्ञानस्वभाव से अन्तर है। समझ में आया ?
भेदस्वभाव.... गुण-गुणी संज्ञा, लक्षण, भेद इनका स्वभाव है । प्रत्येक में भेद स्वभाव है, आत्मा में भेदस्वभाव है, पर में भेदस्वभाव है तथापि ज्ञानस्वभाव से भेद है। अभेदस्वभाव... सर्व द्रव्यों में गुणस्वभाव सर्वांग, अखण्ड रहता है। एक - एक प्रदेश में सर्व गुण होते हैं। इसलिए अभेदस्वभाववान् है । सभी प्रदेश कहीं भिन्न नहीं है; सभी प्रदेश अखण्ड है, इस अपेक्षा से अभेदस्वभाव है । इसी तरह आत्मा में भी अभेद स्वभाव है परन्तु वह अभेदस्वभाव जाननेवाला है। यह अभेद है - ऐसा जाननेवाला है । अन्य को अभेदस्वभाव है, इसका पता नहीं है । कहो, समझ में आया ?
भव्यस्वभाव... सभी द्रव्य अपने स्वभाव में ही परिणमने की योग्यता रखते हैं। आकाश भी अपने स्वभाव में अपने स्वभाव से परिणमित होने की योग्यता रखता है, आत्मा भी अपने में स्वभाव से परिणमित होने की योग्यता रखता है । योग्यता रखने पर भी, एक समानता होने पर भी ज्ञान - - दर्शन, आनन्द से अन्तर है। यहाँ सचेतन की एक बात की है, जाननेवाला, जाननेवाला... उसे भी जाननेवाला, यह मैं मुझरूप रहने योग्य हूँ - ऐसा ज्ञान जानता है। जड़ में वह स्वभाव नहीं है ।