Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

View full book text
Previous | Next

Page 433
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४३३ मुमुक्षु - ऐसा कहकर क्या बतलाना है? उत्तर – कहते हैं न यह। यह बतलाने का क्या कहा? परन्तु आँखें किसकी? आँखें किसकी देखे? देख! यह लाख का हीरा ! देखो! इसके एक-एक पासे की, एक -एक की इतनी कीमत! देखो! उसमें पीली गन्ध नहीं, देखो ! सफेदाई! यह कौन देखता है ? आँखेंवाला या आँखें बिना का? यह आँखेंवाला न? यह आँखें उसे कहते हैं, अन्य को आँखें कहा ही नहीं जाता। समझ में आया? जो वीर्य, आत्मा के स्वरूप की रचना करे, उसे ही वीर्य कहते हैं। क्या कहा? उसे ही वीर्य कहते हैं और जो ज्ञान आत्मा को ज्ञेय बनावे, उसे ही ज्ञान कहते हैं। समझ में आया? अगम्य को गम्य करनेवाली वस्तु है। भाई ! इसे मोक्षमार्ग.... स्वयं ही महा भगवान ऐसे मोक्षमार्ग की निर्मल पर्याय (होवे) - ऐसी तो असंख्य जो निर्मल पर्याय होती है, वह तो सब आत्मा में पड़ी है। क्या कहा? मोक्षमार्ग की पर्याय – सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्र से प्रगट होने पर पूर्ण केवल (ज्ञान) होवे, उसमें असंख्य प्रकार की मोक्षमार्ग की पर्याय सब भगवान आत्मा में अन्तर में-ध्रुव में पड़ी है और अनन्त केवलज्ञान जो फल प्राप्त हो – ऐसा अनन्त केवलज्ञानादि, अनन्त सिद्ध की पर्यायें (उसके) पेट में पड़ी है। समझ में आया? ___ मोक्षमार्ग का साधकपना असंख्य समय में ही होता है और उसका फल अनन्त समय रहता है। क्या कहा, समझ में आया? इसीलिए इसमें शब्द पड़ा है – 'अप्पई अप्पु मुणंदयहँ', 'अप्पई अप्पु मुणंदयहँ कि णेहा फलु होइ। केवल-णाणु वि परिणवइ' जहाँ केवलज्ञान भी परिणमे, ऐसा कहते हैं और शाश्वत् सुख को पावे। ओहो...हो...! एक ही श्लोक में (सब भर दिया है)। भगवान आत्मा की जाति को अनुभव करते हुए राग, दया, दान, विकल्प आदि पर के साथ कुछ धर्म का सम्बन्ध है ही नहीं। समझ में आया? यह योगीन्द्रदेव दिगम्बर सन्त वन में बसते थे। वे पुकार करते हैं कि अरे ! 'अप्पई अप्पु मुणंदयहँ कि णेहा फलु होइ।' भगवान ! तेरी जाति के स्वरूप की जाति, सिद्ध की जाति का आत्मा, ऐसे आत्मा की जाति का अनुभव करने से क्या फल नहीं होगा? समझ में

Loading...

Page Navigation
1 ... 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496