Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 457
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४५७ लहु पावइ) वह शीघ्र ही सिद्धि के सुख को पाता है (जिणवरू एम भणेइ) जिनेन्द्रदेव ने ऐसा कहा है। अब, गृहस्थ हो या मुनि, दोनों के लिए आत्मलीनता सिद्धि के सुख का उपाय है। अब ऐसी गाथा। अभी कोई कहते हैं न कि गृहस्थाश्रम में आत्मा का ध्यान, ज्ञान नहीं होता। आठवें (गुणस्थान में) होता है। अभी तो शुभोपयोग होता है – (ऐसा कोई कहते हैं।) सागारू वि अणागारू कु वि जो अप्पाणि वसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरूएम भणेइ॥६५॥ जिनवर सर्वज्ञदेव परमेश्वर परमात्मा त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव धर्मस्वभाव में सौ इन्द्रों की उपस्थिति में, भगवान की वाणी में ऐसा हुकम आया, ऐसा सन्देश आया कि गृहस्थाश्रम में रहनेवाला कुटुम्ब में पड़ा होने पर भी इस आत्मा का अन्तर में ज्ञान दर्शन करके बस सकता है। समझ में आया? गृहस्थ हो या मुनि कोई भी हो, जो अपने आत्मा में वास करता है। यह तो योगीन्द्रदेव कहते हैं। भगवान की साक्षी (देते हैं)। दूसरे (लोग) कहते हैं, भगवान की साक्षी से ऐसा कहते हैं । आहा...हा... ! भगवान परमेश्वर सर्वज्ञदेव जिनवर ऐसा कहते हैं न, भाई ! वीतराग का बिम्ब जिसने पूर्णानन्द का प्रगट किया है, उसे इच्छा बिना वाणी में ऐसा आया है न कि गृहस्थ भी पाँचवें गुणस्थान, चौथे (गुणस्थान) आदि में अपने आत्मा को शुद्ध निर्विकल्प का अनुभव करने पर उस आत्मा में बसता है, बस सकता है। समझ में आया? वे कहें, गृहस्थाश्रम में ध्यान नहीं होता, उसे अनुभव नहीं होता, उसे स्वरूपाचरण नहीं होता.... आहा...हा...! अप्पाणि वसेइ है, लो, आत्मा में बसता है। गृहस्थाश्रम में राग हो परन्तु उससे भिन्न पड़कर स्वयं निवृत्ति के काल में भगवान आत्मा (में) निर्विकल्पदशा द्वारा, शुद्ध उपयोग द्वारा बसता है और यह बसना हो सकता है – ऐसा जिनवर कहते हैं । कहो, इसमें

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