Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 456
________________ ४५६ गाथा-६४ हो, हाँ! वह शैय्या है कहते हैं। उसमें आत्मा के आनन्द में रहते हैं। कहो, समझ में आया? यहाँ मखमल की शैय्या पर सोता हो (परन्तु) दुःखी है (मुनि) आनन्द में है, कहते हैं। आहा...हा...! जिनका सुन्दर घर बाघ की गुफा है.... जिसमें बाघ बसते हों, वह सुन्दर घर। बाघ निकल गया हो तो बैठें। अन्दर में लगनी लग गयी है, आनन्द की.... आनन्द की... आनन्द की... आनन्द की.... गिरिगुफा अनुभूति। अनुभूतिरूपी गिरिगुफा में प्रवेश किया है। अन्तर आनन्द के कन्द में अन्दर प्रवेश करना, वही उनकी लक्ष्मी है। कहो, समझ में आया? जिन्होंने अपने अन्दर से सर्व विकल्प मिटा दिये हैं और जिन्होंने अज्ञान की गाँठे तोड़ दी हैं। अज्ञान की गाँठ, ग्रन्थिभेद (करके) तोड़ डाला है। भगवान आत्मा ज्ञानानन्द का खजाना जिसने खोल दिया है। भगवान आत्मा ज्ञानानन्द का खजाना. स्वभाव में एकत्व बुद्धि करके खोल दिया है। अज्ञान की गाँठ तोड़ डाली है। राग और आत्मा के स्वभाव की एकता – ऐसा अज्ञान तोड़ डाला है। जिनके पास सम्यग्ज्ञानरूपी धन है, जो मुक्ति के प्रेमी हैं, दूसरी समस्त इच्छाओं से दूर हैं, ऐसे योगी हमारा मन पवित्र करो।लो, मुनि स्वयं भी आत्मानुशासन में कहते हैं, हाँ! गृहस्थ या मुनि, दोनों के लिए आत्मरमणता सिद्ध-सुख का उपाय है सागारू वि अणागारू कु वि जो अप्पाणि वसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरूएम भणेइ॥६५॥ मुनि जन या कोई गृही, जो रहे आतम लीन। शीघ्र सिद्धि सुख को लहे, कहते यह प्रभु जिन॥ अन्वयार्थ – (सागारू वि णागारू कुवि) गृहस्थ हो या मुनि कोई भी हो (जो अप्पाणि वसेइ) जो अपने आत्मा के भीतर वास करता है (सो सिद्धि-सुहु

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