Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 442
________________ ४४२ गाथा-६३ व्याख्या की, हाँ! रागी-द्वेषी देवों की श्रद्धा छोड़े, परिग्रहधारी और आत्मज्ञानरहित साधु, सच्चे सन्त और आत्मज्ञानरहित उन्हें छोड़े, उनकी श्रद्धा छोड़ दे, एकान्तनय कहनेवाले शास्त्र भी भक्ति छोड़ दे। तीव्र पाप से बचना.... फिर सात व्यसन का त्याग (करता है)। यह त्याग आया सही न? 'परभाव चएवि'। धुतरमण, मदिरापान, मांसाहार, चोरी, शिकार, वेश्या व परस्त्री सेवन की रुचि को मन से दूर करे, नियमपूर्वक त्याग न कर सकने पर भी उनसे अरुचि पैदा करे, अरुचि पैदा करे। अन्याय सेवन से ग्लानि करे तथा वीतराग सर्वज्ञदेव निर्ग्रन्थ आत्मज्ञानी साधु.... अब सुलटा लिया। वीतराग सर्वज्ञदेव निर्ग्रन्थ आत्मज्ञानी साधु, अनेकान्त से कहनेवाले शास्त्रों की भक्ति करे। सात तत्त्व को जानकर मनन करे, तब अनन्तानुबन्धी कषाय व मिथ्यात्व भाव का विकार परिणामों से दूर होगा। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान व स्वरूपाचरण चारित्र का लाभ होगा। लो, इसमें इन्होंने दिया, अभी यह विवादित शब्द है। मुमुक्षु - नया विवाद खड़ा किया है। उत्तर – व्यर्थ में खड़ा किया है। स्वरूपाचरण चौथे गुणस्थान में नहीं होता। अरे... ! यह तो तेरे इकाई बिना की शून्य जैसी बातें हैं । ऐसी बातों से कुछ भी (लाभ)? स्वरूप है, उसकी दृष्टि हुई और स्वरूपा का आचरण तथा स्थिरता न हो तो सामान्य का विशेष क्या प्रगट हुआ? सामान्य को विषय करनेवाली दृष्टि है। सामान्य को विषय किया इसलिए साथ में थोड़ी विशेषता, सामान्य और स्थिरता होती है तो वह स्वरूपाचरण है। आहा...हा...! मानो स्व का आश्रय हो जायेगा तो शुभयोग से लाभ (मानना) उड़ जायेगा। अरे भगवान ! शुभयोग से कुछ नहीं (होनेवाला है) । छोड़ न, वह स्थूल पर है। शुभयोग छोड़ और स्वभाव का आदर कर तो तुझे अन्तर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होगी। स्वरूपाचरणचारित्र का लाभ... देखो, चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन होने पर परभाव मिथ्यात्वादि का त्याग होकर, अनन्तानुबन्धी का त्याग होकर और स्वरूप की दृष्टि ज्ञान और स्वरूप आचरण का प्रगट होना होता है । यह त्याग और ग्रहण दोनों बातें हैं, फिर आगे बात ली है। अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्यानावरणीय, संज्वलन कषाय, नौ

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