Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 449
________________ वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल १४, गाथा ६४ से ६६ शुक्रवार, दिनाङ्क ०१-०७-१९६६ प्रवचन नं. २३ योगसार अर्थात् आत्मा शुद्ध आनन्द और ज्ञायकस्वरूप त्रिकाल शुद्ध है, उसके अन्दर एकाग्रता करना, इसका नाम योग कहते हैं। इसमें भी उसका सार। उग्र योग का सार। मुनि की योग्यता को सार विशेष कहते हैं । आत्मा अन्तर शुद्ध भाव से भरपूर पदार्थ है, उसे पुण्य-पाप के भाव से रहित, अपने त्रिकाल स्वभाव में एकाग्र होकर और उसमें श्रद्धा ज्ञान व रमणता प्रगट करने का नाम योगसार कहा जाता है। इसमें यह ६४ वीं गाथा चलती है। त्यागी आत्मध्यानी महात्मा ही धन्य है। जिसने रागादिक छोड़कर आत्मा के स्वरूप को साधा है, शुद्ध चिदानन्द-सच्चिदानन्द प्रभु आत्मा का उसने साधकपने साधन करके साधा है – ऐसे धर्मात्मा को कहते हैं कि धन्य है। वह पैसेवाला हो या धूल का स्वामी हो, उसे धन्य नहीं है – ऐसा यहाँ कहते हैं। मुमुक्षु – वह तो दान दे, वह धन्य कहलाता है। उत्तर – तब भी धन्य नहीं है। धूल में दान दे तो क्या वहाँ ? ऐ...ई... रमणीकभाई ! यहाँ पचास लाख हों, उसमें पाँच हजार-दस हजार दे, उसमें क्या धन्य कहलाये? पचास लाख दे तो भी धन्य नहीं है। शुभभाव होवे, राग की मन्दता करे तो शुभभाव हो, वह कहीं आत्मा को धन्य कर दे और आत्मा लक्ष्मी का दान दे, यह है नहीं, हाँ! ऐ...ई... रमणीकभाई! ऐसा होना मुश्किल... पचास लाख में दस लाख खर्च करना भी मुश्किल है - ऐसा कहते हैं.... परन्तु ऐसा भी निकले, लो न ! परन्तु उसमें क्या है अब? वह कोई धन्य चीज नहीं है।

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