Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 444
________________ ४४४ गाथा-६३ आहा..हा...! देखो! यह योगीन्द्रदेव दिगम्बर सन्त महामुनि जंगल में बसनेवाले! वन के बाघ-सिंह दहाड़ मारकर बात करते हैं कि मार्ग यह है। समझ में आया? पुण्य-पाप का भाव, अरे...! व्यवहाररत्नत्रय, दया, दान, भक्ति का भाव वह परदेशीभाव है, वह स्वदेश का नहीं। आहा...हा...! कान में सच्चा सुनना भी कठिन पड़ गया है, हैं ? रतनलालजी! आहा...हा...! ऐसे परमात्मा स्वयं शुद्ध चिदानन्द का धाम भगवान पड़ा है न ! तेरे स्वरूप में तो अनन्त सिद्ध भगवान विराजमान हैं। अनन्त सिद्ध की पर्यायों का पिण्ड तो तू है – ऐसा भगवान जिसकी श्रद्धा-ज्ञान में, अनुभव में आया, कहते हैं उसे क्या बाकी रहा? वह पुण्य-पाप के भाव परदेश भाव, परदेशी भाव हैं। श्वेताम्बर में परदेशी राजा आता है न? वह परदेशी राजा... । पुण्य-पाप के भाव को माननेवाला आत्मा वह परदेशी है। अकेला पुण्य-पापरहित भगवान पूर्णानन्द का नाथ, उसकी श्रद्धा-ज्ञानवाला, वह स्वदेश को माननेवाला है। आहा...हा... ! समझ में आया? एक पारिणामिकभाव आत्मा का त्रिकाली जीवत्वस्वरूप कारणप्रभु को अपना जानकर और उस ओर झुकाव करके अनुभव करे। कहो, समझ में आया? वही मोक्षमार्ग है और सदा ही आनन्दामृत का पान कराता है। वही आत्मा का मोक्षमार्ग है, जिसमें सदा मोक्षमार्ग में अतीन्द्रिय अमृत का पान करनेवाला मोक्षमार्ग है। वहाँ दु:ख और जहर उलझन नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? यह घानी में पिलने के काल में, भगवान आत्मा में अन्दर रमणता करता होता है। आहा...हा...! समझ में आया? जिसे पर का लक्ष्य छूट गया है और विकल्प का भाव जिसने छोड़ दिया है और स्वभाव की अन्तरक्रीड़ा में रमते अन्दर शरीर पिलता है। आहा...हा...! कितने ही साधु हो लवणसमुद्र में उठाकर डाल दे, डुबोवे, ऐसा पैर पकड़कर डुबोवे। शत्रु-देव हो, आहा...हा...! अन्दर श्रेणी (लगाकर) स्वरूप में चढ़ गये हैं, उपसर्ग मिट गया है, स्वरूप में चढ़ गये हैं, श्रेणी होकर केवलज्ञान (प्रगट होता है)। वह देह गिरे नीचे और स्वयं जाये ऊपर। आत्मा जिसके पास है, उसे अब क्या करना? कहते हैं। आहा...हा...! 'अप्पा अप्प मुणंति' आत्मा, आत्मा को जहाँ अनुभव करता है, वहाँ क्या बाकी और कमी होगी? आहा...हा...! समझ में आया?

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