________________
गाथा - १९
१५०
प्रेम बताता है, ओ...हो... ! सभी परमात्मा है न ! यह परमात्मा हैं, सब प्रभु हैं ! उनकी भूल है, वह एक समय में है। परमात्मा है, इसलिए किसी आत्मा के प्रति उसे विषमभाव नहीं होता। समझ में आया ? यह सब परमात्मा के पेट हैं। सभी आत्माएँ परमात्मस्वरूप परमात्मा हैं। उनकी एक समय की दशा में विकृतता है परन्तु जिसने विकृतदशा का स्वभाव के आश्रय से नाश किया और स्वभाव चैतन्य जिनेन्द्र - समान जाना, माना ऐसा ही स्वभाव सभी भगवान आत्माओं का है; इसलिए किसे कहना छोटा और किसे कहना बड़ा? यह श्लोक इसमें आयेगा ? समझ में आया ? बीस में आता है। किसमें आता है? बीस में । सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । समझ में आया ?
गाथाएँ तो सार-सार रखी हैं। योगसार है न! कहते हैं, जिसकी नजर में वीतरागता की कीमत हुई, जिसके ज्ञान में, जिसकी श्रद्धा में वीतरागस्वभाव – ऐसे भगवान आत्मा की कीमत हुई, वहाँ उसे बारम्बार चिन्तवन कर, याद करके, चिन्तवन करके स्थिर होता है । अल्प काल स्थिर हो तो इतना थोड़ा आनन्द आता है, विशेष काल स्थिर हो जाये तो उसे क्षण में केवलज्ञान हो जाता है । है न ? सो झाहंतह परमपर लब्भइ एक्कखणेण । परमपद, परमात्मा एक क्षण में हो जाता है। समझ में आया ?
आनन्दघनजी में दृष्टान्त आता है, इसमें भी कहीं आता होगा। 'भृंगी इलिकाने चटकावे ते भृंगी जग जोवे रे....' मक्खी होती है न, मक्खी, वह होती है न ? क्या कहलाती है वह ? मक्खी.... मक्खी... । वह मक्खी डोला ले आती है ? फिर डाले उसमें, दर करते हैं ? उसमें डाले। उसे अन्दर ऐसे डंक मारे। .... डोला को मक्खी डंक मारे, डंक मारे ऐसी उसे धुन चढ़ती है। धुन चढ़कर कहते हैं.... यह तो एक दृष्टान्त है, हाँ ! यह डोला मिटकर मक्खी होता है, नहीं आते सफेद वे ? दर... दर... मक्खी का दर नहीं (होता) ? ऐसे धूल के.... उसमें मक्खी बहुत आती है । वह फिर पंख हो जाता है, इसलिए मक्खी होकर उड़ जाती है।
इसी प्रकार भगवान आत्मा वीतरागता के स्वभाव से भरा हुआ ऐसा दृष्टि और ज्ञान का डंक लगा, वह स्थिर होने पर एकदम उड़ जाता है, केवलज्ञान होकर परमात्मा हो जाता