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गाथा-३२
असातावेदनीय, वह अशुभभाव से बँधता है। असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र, ज्ञानावरणीय (आदि) चार कर्म – यह पापकर्म (हैं)। उनका बन्ध ज्ञान के साधन में विघ्न करने से.... ज्ञान में विघ्न करने से, दुःखित और शोकाकुल होने से.... शोक करने से रूदन करने से, दूसरों को कष्ट पहुँचाने से, पर का घात करने से सच्चे देव-गुरु-धर्म की निन्दा करने से, तीव्र कषाय करने से, अन्यायपूर्वक आरम्भ करने से, अत्यधिक मूर्छा (ममत्व) रखने से, कपटपूर्वक आचरण करने से.... कपट से आचरण और वर्तन करने से.... कहो, समझ में आया? मन-वचनकाया को वक्र रखने से, झगड़ा करने से.... यह सब बात रखी है। शास्त्र में होती है न? परनिन्दा और आत्मप्रशंसा से, अभिमान करने से, दानादिक में विघ्न डालने से, दूसरे का बुरा चिन्तवन करने से, कठोर और असत्य वचन से और पाँच पापों में प्रवर्तन करने से होता है। लो! इनसे क्या होता है ? असातावेदनीय बँधती है; अशुभ आयु बँधती है, अशुभ नाम बँधता है, और नीच गोत्र बँधता है। बँधता है; अबन्ध नहीं होता। समझ में आया?
व्रत, तप, शील, संयम के पालन में शुभराग होता है.... लो! है न? मोक्ष का कारण एक शुद्धोपयोग है; दूसरा कोई कारण नहीं है। एक सीढ़ी डाली है परन्तु कोई मेल नहीं है। इस और सीढ़ी डाली है। व्यवहार को सीढ़ी (रूप) रखा है। जैसे कमरे पर पहुँचने के बाद सीढ़ियों को कौन याद करता है? सीढ़ियाँ तो ऊपर आने के लिये निमित्त थे। वह यहाँ सीढ़ी-फीढ़ी है ही नहीं, वह तो एक है अवश्य – इतनी बात है। यहाँ निमित्त आ गया, वहाँ गड़बड़ की है। सीढ़ी-फीढ़ी है नहीं; वह तो एक है – इतनी बात । उसे छोड़कर, और वह भी यहाँ निश्चय होता है, तब ऐसा व्यवहार होता है और वह भी उसके बिना का होता है। समझ में आया? व्यवहार बिना का निश्चय होता है। आत्मा के आश्रय से श्रद्धा-ज्ञान-शान्ति (प्रगट हुए, वे) व्यवहार बिना के होते हैं । व्यवहार है, इसलिए यहाँ (निश्चय में) आते हैं – ऐसा नहीं है, सीढ़ी-फीढ़ी नहीं है। समझ में आया? समयसार का थोड़ा आधार दिया है। शुभकर्म को शुशील कैसे कहें ? ऐसा। यह पाठ की बात है। दोनों जीव को बाँधते हैं – अशुभ और शुभ दोनों बाँधते हैं। यह तो समयसार की गाथा दी है।