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गाथा-३३
_ 'मोक्खह कारण एक्क' लो! मोक्ष का कारण एक निश्चयचारित्र को जानो। व्यवहार को मोक्ष का कारण नहीं कहा। क्या पढ़ते होंगे? इसमें बड़ा झगड़ा (चलता है)। सोनगढ़ एकान्त करता है, सोनगढ़ एकान्त करता है। व्यवहार से कुछ लाभ नहीं होता – ऐसा मानता है, ऐसा वे कहते हैं। यह आचार्य क्या कहते हैं ? 'वउतउ संजमुसील जिय इय सव्वइ ववहारु' ऐसा कहा कि यह व्यवहार है। है, ऐसा कहा परन्तु मोक्ष का कारण तो निश्चय आत्मा का आश्रय करना ही है। समझ में आया? तीन लोक में सार वस्तु होवे तो मोक्ष का कारण एक निश्चयचारित्र जानो। भगवान आत्मा का सम्यग्दर्शन, उसका सम्यग्ज्ञान तो है ही; यहाँ तो उत्कृष्ट बात लेनी है न? उन सहित स्वरूप में आश्रय करके स्थिरता, वीतरागता, निर्विकल्प शान्ति की उग्रता (प्रगट होवे), वह निश्चयचारित्र है। वह तीन लोक में सार है। सार ही वीतरागता है, सार चारित्र है। कहो, समझ में आया?
मोक्ष का कारण तो यह एक निश्चय आत्मा का चारित्र है। व्यवहारचारित्र है - ऐसा सिद्ध किया परन्तु मोक्ष का कारण नहीं। एक कहा – 'मोक्खह कारण एक्क' दो नहीं। यह टोडरमलजी भी ऐसा कहते हैं, मोक्ष कारण दो नहीं हैं। दो का कथन है। दो माने कि मोक्षमार्ग दो है और दोनों को उपादेय माने तो भ्रम है, भ्रमणा है – ऐसा कहा है। तब वे कहते हैं – दोनों को समान न माने, उन्हें भ्रमणा है। लो, इसमें कहाँ मुठभेड़ हुई? टोडरमल के साथ विरोध और जो बात काललब्धि की उन्हें ठीक लगे, वह फिर टोडरमल में से लेते हैं। देखो! काललब्धि कोई वस्तु नहीं है (ऐसा कहा है)। अरे... ! किस अपेक्षा से कहना चाहते हैं? काललब्धि तो ठीक, जिस समय में जिस पर्याय काल का है, वह तो तब ही है। समझ में आया? परन्तु वह कहीं नयी चीज नहीं है। यह तो स्वभाव का परुषार्थ किया. उस समय काललब्धि पकी है. यह काल पका - ऐसा जाना है. बस! यह बात ली और वह बात छोड़ दी।
टोडरमलजी कहते हैं - व्यवहार और निश्चय दो मार्ग हैं? कथन है, दो मार्ग नहीं। इसी तरह दोनों उपादेय नहीं... दोनों आदरणीय नहीं; आदरणीय तो एक ही हैं, वास्तव में मार्ग तो एक ही है। वही यहाँ कहते हैं, देखो ! इस शास्त्र में क्या आधार है ? योगीन्द्रदेव