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गाथा - २७
यह है । निश्चय जिनराज तो तू है। भगवान समवसरण में विराजते हैं, वह आत्मा जिनराज है । वह समवसरण, जिनराज नहीं है; उनकी वाणी, जिनराज नहीं है; ॐध्वनि, जिनराज नहीं है; दिव्यध्वनि, जिनराज नहीं है; परमौदारिक शरीर, जिनराज नहीं है। जिनराज तो वीतराग का बिम्ब अन्दर स्थिर हो गया, वह जिनराज है। ए.... . देवानुप्रिया ! यह २६ (गाथा पूरी हुई, लो !
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निर्मल आत्मा की भावना करके ही मोक्ष होगा
जाम ण भावहु जीव तुहुँ णिम्मलअप्पसहाउ ।
ताम व लब्भइ सिवगमणु जहिं भावहु तहिं जाउ ॥ २७ ॥
जब तक शुद्ध स्वरूप का, अनुभव करे न जीव । जब तक प्राप्ति न मोक्ष की, रुचि तहँ जावे जीव ॥
अन्वयार्थ – (जीव ) हे जीव ! ( जाम तुहुँ णिम्मल अप्प सहाउ ण भावहु ) जब तक तू निर्मल आत्मा के स्वभाव की भावना नहीं करता (ताम सिवगमणु ण लब्भइ ) तब तक तू मोक्ष नहीं पा सकता ( जहिं भावहु तहिं जाउ) जहाँ चाहें वहाँ तू जा ।
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२७ । निर्मल आत्मा की भावना करके ही मोक्ष होगा । कठिन.... सार फिर से विशेष (लेते हैं) । भगवान आत्मा निर्मलानन्द प्रभु सचेत असंख्य प्रदेश में जागृत स्वभाव का पिण्ड, उसकी भावना । भावना शब्द से स्वरूप में एकाग्रता, निर्विकल्प एकाग्रता । देखो! यह भावना शब्द रखा है, हाँ ! है न ? जहिं भावहु ऐसा है न । चौथे पद में है, भावहु अर्थात् भावना करके मोक्ष जायेगा ।
भगवान आत्मा... यह तो भावना का ग्रन्थ है, इसे पुनरुक्ति लागू नहीं पड़ती, इसे पुनर्भावना लागू पड़ती है। बारम्बार एकाग्रता ... एकाग्रता ... एकाग्रता ... स्व सन्मुख की श्रद्धा, ज्ञान और रमणता, यह एक ही मोक्ष का मार्ग है । व्यवहार के विकल्प, मोक्ष का मार्ग नहीं हैं। आहा... हा.... ! शास्त्र की स्वाध्याय करने से निर्जरा होती है, यह होती है । अरे....