________________
योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
१५३
जिनेन्द्र भगवान का द्रव्य और गुण पूर्ण शुद्ध है, ऐसा ही मेरा शुद्ध है। उनकी पर्याय शुद्ध हो गयी अपूर्ण की पूर्ण हो गयी; विकारी की अविकारी वीतराग हो गयी। समझ में आया? कर्म के साथ में सम्बन्ध नहीं । परवस्तु के साथ वहाँ कोई काम नहीं । वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर, जिन्हें अल्पज्ञता थी, उन्हें सर्वज्ञता हुई, वह त्रिकाली द्रव्य के आश्रय से, अन्दर परमात्मस्वरूप है, उसके अवलम्बन से । राग के अभाव में वीतरागता हुई। ऐसी ही सर्वज्ञता और वीतरागता, वह मेरे स्वरूप में मुझ में पड़ी है। समझ में आया ? अकेली सर्वज्ञता और अकेली वीतरागता .... ऐसी आत्मा में, ऐसी जिनेन्द्र में । रतिभाई ! इसमें कुछ समझ में आता है ?
मुमुक्षु - दीपक जैसी बात है ।
उत्तर - दीपक जैसी बात है ?
सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि ।
मोक्खह कारण जोईया णिच्छइ एउ वियाणी ॥ २० ॥
आहा... हा... हा...! अकेला मक्खन डाला है ! समझे न ? घेवर जैसा, वह क्या कहलाता है मीठा तरल परोसा है । दाँत की जरूर नहीं पड़े, लो, बिना दाँत के लड़के भी खायें, दाँतवाले खायें, युवा खायें और वृद्ध भी खायें। ऐसा यह आत्मा है, कहते हैं। समझ में आया ? हैं ? चोकठा-बोखटा वहाँ था कब ?
सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि ।
मोक्खह कारण जोईया णिच्छइ एउ वियाणी ॥ २० ॥
है योगी! योगी अर्थात् ध्यानी, ज्ञानी । अरे... ! तेरे स्वरूप की तुझे कीमत हुई है, उसकी यहाँ बात करते हैं ! इस तेरे स्वरूप की तुझे कीमत हुई है, तेरे स्वरूप की कीमत वह अल्पज्ञता में जो ले ली गयी थी, राग में जो ले ली गयी थी, तूने तेरे स्वरूप की कीमत की; इसलिए तू योगी और ध्यानी कहा गया है । आहा... हा... ! जिसमें जिसकी कीमत लगी, उसमें उसकी लगन लगी। हैं? एक गहना पाँच लाख का, पचास हजार का आवे तो कैसा सम्हाले ? ऐसा सम्हाले.... यहाँ रखना, अमुक जगह रखना, अमुक रखना ।