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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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(जीव) हे जीव! (तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहिं) तू अपने को आत्मा पहचान, यथार्थ आत्मा का बोध कर।
ग्यारहवीं (गाथा) । ज्ञानी को पर को आत्मा नहीं मानना चाहिए। धर्मी सत्... सत्, सत्स्वरूप का स्वीकार, उसे असत् में अपनापन नहीं मानना चाहिए। असत् अर्थात् जो स्वरूप में नहीं - ऐसी जो परवस्तु आदि है, उसे अपनी नहीं मानना चाहिए। वह बहिरात्मा था, यह सुलटा लेते हैं।
देहादिउ जे परकहिया ते अप्पाणु ण होहिं ।
इउ जाणेविणु जीव तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहिं ॥११॥
अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अकेला माल भरा है। शरीर आदि अपनी आत्मा से भिन्न कहे गये हैं.... ये सब बात की वह.... शुभ-अशुभभाव, आचरण, क्रिया, देह, वाणी, मन, कर्म, लक्ष्मी सब.... यह भिन्न कहे गये हैं, वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते... क्या कहते हैं कि ते अप्पाणु ण होहिं। भगवान ज्ञानमूर्ति प्रभु, उस विकार, शरीर और विकल्परूप कहीं हो नहीं जाता। उनरूप नहीं हो जाता, वस्तु कहीं विकृत पर्याय से वस्तु उसरूप बन नहीं जाती। क्या कहा? ।
भगवान आत्मा चिदानन्द की मूर्ति अरूपी अखण्ड आनन्दकन्द चिदानन्द अनादि -अनन्त स्वयं वस्तु है, पदार्थ है। ये शरीरादि जो आत्मा से पृथक् कहे, विकल्पादि, रागादि, पुण्यादि, वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते। ते अप्पाणु ण होहिं। वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते। क्या कहते हैं ? यह पुण्य-पाप का भाव, शरीर, वाणी, कर्म-यह आत्मारूप नहीं हो सकते। वे अनात्मारूप बाहर रहते हैं। समझ में आया? आहा...हा...! आत्मा को जो स्वभावस्वरूप उसमें है, उसमें वे आ नहीं जाते - ऐसा कहते हैं। वे पदार्थ आत्मा नहीं हो सकते। क्या कहा? समझ में आया?
शुद्ध ज्ञान की मूर्ति चैतन्यसूर्य प्रभु, उसरूप ये पुण्य-पाप के भाव, शरीरादि उसरूप नहीं होते। चैतन्यसूर्य वस्तु वह, इन देहादि बाह्य क्रिया (रूप) आत्मा नहीं होती। आत्मा नहीं होती, माने वह मान्यता बहिरात्मा की है। वे नहीं होते। समझ में आया? एक राग का