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गाथा - १४
निमित्त से नहीं । देह की क्रिया के निमित्त से मोक्ष नहीं होता । आहा... हा... ! स्वभाव की महिमा के, विश्वास के, स्वभाव की महिमा का ज्ञान, स्वभाव की महिमा का विश्वास और स्वभाव की महिमा में ही लीन... हैं ? वह स्व अभिमुख के परिणाम - भगवान की सन्मुखता के परिणाम, वह भगवान आत्मा तो मुक्ति का कारण है । कहो, समझ में आया ? अब, यह पैसा-वैसा कोई पाँच-पचास लाख मिले और उसमें से दो - पाँच लाख खर्च करे तो उसमें से कोई मुक्ति होती है या नहीं ? है ? यहाँ तो कहते हैं कि यह देता हूँ - ऐसा राग का मन्द विकल्प है न, वह बंध का कारण है क्योंकि पर सन्मुखता का परिणाम है । हैं? कहो, हरिभाई ! भाव होता है..
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मुमुक्षु
उत्तर - भाव, परन्तु उसे माने क्या ? कि यह बंध भाव है। बंध भाव है - ऐसा हो गया। यह बंध भाव है। मेरी मुक्ति के होने में यह परिणाम नहीं । मोक्ष होने के, छूटने के यह परिणाम नहीं । यह बँधने के परिणाम हैं। अबन्धस्वरूपी भगवान को बँधने के परिणाम हैं । अबंधस्वरूपी भगवान आत्मा की स्वसन्मुखता के अबंध परिणाम ही मुक्ति का कारण हैं । आहा...हा... ! अरे... ! यह तो बहुत संक्षिप्त में योगसार है न ? ऐसा स्वरूप की सन्मुखता का व्यापार, वह परिणाम मुक्ति का कारण और स्वरूप से विमुख पर की दया, दान, व्रतादि के समस्त परिणाम, वह सब बंध का कारण है। समझ में आया ? फिर सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि हो; सबको जो परिणाम बंध के हुए, अशुद्ध, वे बंध का ही कारण है।
श्रोता - परसन्मुख होवे उसे ।
उत्तर - सम्यग्दृष्टि को भी जितने व्रतादि के परिणाम आते हैं, वे सब परसन्मुखता के परिणाम हैं, इतना उसे बंध का कारण है। जितने स्वसन्मुख के शुद्ध परिणाम – श्रद्धा, ज्ञान और विश्वास, स्थिरता, बस ! यही परिणाम पूर्ण निर्मल, परिणामरूपी मुक्ति, पूर्ण निर्मल परिणामरूपी मुक्ति.... मुक्ति अर्थात् परिणाम शुद्ध है, पूर्ण परिणाम । समझ में आया ? वे शुद्ध परिणाम उस शुद्ध मुक्ति के परिणाम का कारण है। अशुद्ध परिणाम, नवीन कर्म बन्धन में निमित्त है, परिभ्रमण का कारण है । सम्यक्त्वी को भी जितने अशुद्ध परिणाम हैं, वह संसार का कारण है।