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गाथा - ११
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नहीं होता । आहा...हा... ! कहो, इसमें समझ में आता है या नहीं ? ए... जीतू ! क्या कहा ? कहाँ गया तेरा.... बोलो !
मुमुक्षु - विभाव, स्वभावरूप नहीं होता ।
उत्तर – अर्थात् ? स्वभाव अर्थात् क्या ? विभाव अर्थात् क्या ? तेरे से वह दे ? देखो! उसे जहाँ-तहाँ बड़ा ठहराते हैं। फिर क्या कहा ?
भगवान स्फटिकरत्न जैसा चैतन्य निर्मलानन्द प्रभु, वह पुण्य-पाप के मलिनभाव और शरीरादि अजीवभाव; पुण्य-पाप के आस्रवभाव - कर्म, शरीर, अजीवभाव - वह अजीवभाव, आस्रवभाव, वह स्वभावभाव - आत्मारूप नहीं होते और भगवान आत्मा चैतन्य गोला ध्रुव अनादि अनन्त सत्व आनन्दकन्द, वह स्वयं विभावरूप अर्थात् आस्रवरूप या अजीवरूप नहीं होता । आहा... हा... ! समझ में आया ?
तीनों तत्त्व निराले हैं या नहीं ? अजीव, आस्रव और आत्मा । चलो ! ए... धीरुभाई ! अजीव - कर्म, शरीर, वाणी सब धूल अजीव और अन्दर शुभ-अशुभभाव उठें, वह आस्रव.... आस्रव अर्थात् नये आवरण का कारण... मलिनभाव । आ-स्रवना, उसमें आत्मा नहीं आता। वह तो कृत्रिम मलिनभाव है । अतः कहते हैं कि उस आस्रवभाव - दया, दान, व्रत के परिणामों में आत्मा नहीं आता और वह आस्रवभाव आत्मारूप नहीं होता। आत्मारूप हुए बिना वह लाभ कैसे कर सकता है ? कहो, इसमें कुछ समझ में आया ?
देहादिउ जे पर कहिया शब्द तो वह का वही है, उसमें (दशवीं गाथा में ) था वह, वह का वही है ते अप्पाणु ण होहिं उसमें ते अप्पाणु मुणेइ था। यह अप्पाणु ण होहिं (है)। बस! इतना (अन्तर है ) । इउ जाणेविणु जीव तुहुं अप्पा अप्प मुणेहिं ॥ ऐसा जानकर, ऐसा समझकर .... ऐसा समझकर .... ऐसा ही जहाँ स्वरूप है, ज्ञानसूर्य प्रभु कभी विकल्प के विभावरूप हुआ नहीं, कभी अजीवरूप होता नहीं; वे विकार के भाव और अ के भाव, स्वभावरूप - चैतन्यरूप नहीं होते - ऐसा जानकर... कहो, समझ में आया ?
इउ जाणेविणु, ऐसा समझकर ... क्या समझकर ? देखो ! भिन्न कर दिया । भगवान सच्चिदानन्द प्रभु, उस विकल्प के विभाव में नहीं आता और वह विभाव,