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योगसार प्रवचन (भाग-१) तुम्हारे प्रताप से ऐसा होगा.... यहाँ कहते हैं कि ऐसे भाव से लाभ मानें तो उसे बहिरात्मा -मिथ्यादृष्टि कहा है। देखो, लिखा इसमें, ए...ई... ! वहाँ तो निमित्त का कथन किया है। प्रवचनसार में तो ऐसा भाव वहाँ होता है, उसका निमित्त का कथन किया है। ज्ञान में विनय से पढ़ना, काल में पढ़ना इत्यादि आठ बोल आते हैं न? सम्यक्त्व के व्यवहार के आठ बोल आते हैं। चारित्र के आठ – पाँच समिति, तीन गुप्ति.... ऐसा देखकर चलना इत्यादि... तप के बारह प्रकार, ये सब विकल्पात्मक भाव हैं, राग हैं; यह मेरा स्वरूप है अथवा इससे मेरा कल्याण (है – ऐसा मानता है)। जिससे कल्याण माने, वह उसे स्वरूप माने, उसे साधन माने तो भी वह मिथ्यादृष्टि है – ऐसा यहाँ तो कहते हैं। वह साधन नहीं है; साधन, स्वभाव में साधन है। समझ में आया?
जो अन्तर का आवश्यक – कर्तव्य है, स्वरूप में स्थिरता वह.... अन्य व्यवहार आवश्यक, उसे परमार्थ से आत्मा का स्वरूप जाने.... देहादिउ जे पर कहिया देखो। देहादिउ जे पर कहिया वे सब पर हैं। शुभविकल्प – वृत्ति उत्पन्न होती है, वे सब पर हैं, विकार हैं, विभाव हैं, सदोष हैं। आहा...हा...! कहो समझ में आया? ऐसे शुभ आचरण को (परभाव कहते हैं)। दूसरी भाषा, यहाँ तो अभी लक्ष्य में यह आया था। उदय का बोल है न! भाई! उदय के बोल, वह अभी लक्ष्य में आया था। इक्कीस बोल में कोई बोल जो है, वह आत्मा को माने तो बहिरबुद्धि – मिथ्यादृष्टि है।
मुमुक्षु - आत्मा का तत्त्व है, ऐसा लिखा है।
उत्तर – यह आत्मा का तत्त्व (कहा), वह तो एक समय की पर्याय का ज्ञान कराने को (कहा है)। एक समय की पर्याय में उसका ज्ञान कराने को... वस्तुदृष्टि की दृष्टि से वह बहिर्भाव है। समझ में आया? ऐ... देवानुप्रिया! ऐ... भोगीभाई!
देहादिउ जे पर कहिया यहाँ तो भगवान कहते हैं – ऐसा अपने सिद्ध करना है। योगीन्दुदेव ऐसा कहते हैं न कि देह, शरीर, वाणी, मन, कर्म, धन, धान्य, लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र आदि यह सब भगवान आत्मा से भिन्न चीज है। एक ओर ली, यह तो अभी स्थूल बात थी।अब रही अन्दर में, यह बाह्य की बात हुई। अब अन्दर में जो कोई शुभपरिणाम उठते हैं, विभाव के आचरण, जिन्हें व्यवहार आचरणरूप से शास्त्र में कहा - ऐसा जो शुभ