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गाथा-१०
जो स्वरूप में नहीं... ज्ञान-आनन्द, वह आत्मा का त्रिकाली शुद्ध आनन्दस्वरूप है, उसमें नहीं ऐसे पुण्य-पाप के, शुभ-अशुभ के विकल्प अथवा चार गति, छह काय, लेश्या, कषाय आदि भाव, वह परभाव है; वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। इस देहादि परभाव में सब आ गया। शरीर से लेकर अन्दर राग की मन्दता के शुभभाव, ये सब आत्मा से बाह्य है। ठीक होगा? रतिभाई!
यह बाह्य जो है, शरीर आदि जिनको आत्मा से भिन्न कहा गया है.... शास्त्र में अथवा वस्तुस्वरूप में आत्मा आनन्द, ज्ञायकस्वरूप अभेद है, उससे यह दया, दान, व्रत आदि के भाव या हिंसादि के भाव या कषाय या गति, ये सब आत्मा के स्वभाव से बाह्य -बाहिर-अन्तर स्वरूप में नहीं - ऐसे बाहिर कहे गये हैं। ऐसे बाह्य भाव को आत्मा माने, उसे यहाँ मिथ्यादृष्टि बाहिरात्मा मूढ़ कहा है। समझ में आया? ।
देहादिउ जे पर कहिया जिन्हें पर कहा है – ऐसा, फिर यहाँ शब्द है। सर्वज्ञ परमेश्वर ने आत्मा अखण्ड ज्ञानानन्दमूर्ति के अतिरिक्त (जितने भाव हैं, उन सबको परभाव कहा है)। यहाँ दो लाईनों में इतना डाला है। यह तो उसमें इन्होंने विस्तार किया है। कोई साधु-गृहस्थ का चारित्र पाले और उसे आत्मा का स्वभाव जाने तो वह साधु, श्रावक तो मिथ्यादृष्टि है। यह तो इनने शुभभाव की व्याख्या की है। समझ में आया? श्रावक या मुनि का जो शुभभाव व्यवहार है न? पंच महाव्रत के, बारह व्रत के विकल्प हैं, उनके छह प्रकार के - श्रावक के छह प्रकार के कर्तव्य हैं न? व्यवहार कर्तव्य है न? देवदर्शन, गुरुपूजा इत्यादि.... ऐसा जो आचरण है, व्यवहार से शुभराग है। ऐसे मुनि को भी पंच महाव्रत आदि का आचरण, वह राग - शभराग है। वह आचरण मेरा है और उस आचरण से मुझे हित होता है – ऐसा माननेवाले की दृष्टि बाहिर है, मिथ्यादृष्टि है, उसकी बहिरात्मदृष्टि है, अन्तर्दृष्टि नहीं। समझ में आया?
तब (कोई कहता है) ज्ञानी को ऐसे भाव तो होते हैं ? ऐसे भाव होने पर भी उन्हें अपना स्वरूप नहीं जानता, उनसे हित नहीं मानता – ऐसे श्रावक और मुनि के व्यवहार आचरण के जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार – ऐसे (आचार) आते हैं न? काल में पढ़ना इत्यादि नहीं आता? ऐ...ई...! प्रवचनसार में तो ऐसा कहते हैं,