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योगसार प्रवचन (भाग-१)
जहाँ अन्दर में रागादि का आदर वर्तता है, उसने तो सब-पूरा संसार ग्रहणरूप पड़ा है। उसे जरा भी राग का त्याग आंशिक भी नहीं है, वह तो बाहर के निमित्त का असद्भूत व्यवहारनय से त्याग हुआ – ऐसा भी उसे नहीं है। पूर्णानन्दस्वरूप सच्चिदानन्द प्रभु, अनन्त गण का पिण्ड - ऐसा आत्मा, ऐसे स्वभाव का श्रद्धा में आदर है. वेदन है कि यह आत्मा। शुद्ध की श्रद्धा-ज्ञान द्वारा वेदन द्वारा यह पूरा आत्मा है – ऐसा जिसे स्वभाव का ग्रहण वर्तता है, उसके अतिरिक्त पुण्य-पाप के राग का अन्तर में दृष्टि की अपेक्षा से त्याग वर्तता है उसे पण्डित और ज्ञानी अन्तरात्मा कहते हैं। समझ में आया? बाहर से इतना छोड़ा हो - यह बात यहाँ नहीं ली है।
छह खण्ड का राज्य हो, बाहर में छियानवें हजार स्त्रियाँ हों, अड़तालीस हजार पाटन, बहत्तर हजार नगर आदि की सामग्री हो, वह सामग्री को जहाँ पररूप दृष्टि में आयी, उस ओर के झकाव का राग ही जहाँ पर है, मेरे स्वभाव में नहीं: स्वभाव में वह नहीं और उसमें मैं नहीं - ऐसा जहाँ भान आया तो सब दृष्टि में तो उसे त्याग ही है। आहा...हा...! छह खण्ड के राज्य का दृष्टि में त्याग है। धीरुभाई! यह अद्भुत बात।
कहा न? 'चएइ', 'परभाव चएइ' कहा न? स्वभाव का आदर करके, स्वभाव को जानकर, अपने को जानकर। 'परियाणइ अप्प परु जो परभाव चएइ। सो पंडिउ अप्पा मुणहिं।' ये रागादि मेरे नहीं हैं। इस राग के फलरूप बन्धन और बन्धन का फल वह भी मेरा नहीं है। सम्पूर्ण छह खण्ड का राज्य मेरा नहीं है। इन्द्र के इन्द्रासन, सम्यग्दृष्टि को अन्तरात्मा में इन इन्द्र के इन्द्रासनों का दृष्टि में त्याग वर्तता है। समझ में आया? और सम्पूर्ण आत्मा पूर्ण स्वरूप को जानता हुआ उसका आदर वर्तता है। कहो, समझ में आया?
बहिरात्मा में बाहर एक लंगोटी भी न हो, नग्नदशा हो; अन्तर में पूर्णानन्द के नाथ का आदर नहीं और राग के कण का आदर है, उसे सम्पूर्ण चौदह ब्रह्माण्ड के पदार्थों का अन्दर श्रद्धा में आदर है। समझ में आया? उसे जरा भी त्याग नहीं है। आहा... हा...! 'परभाव चएइ' यह शब्द रखा है न? परभाव छूटे ही नहीं। परन्तु स्वभाव कौन है ? - उसे जाने बिना यह भिन्न इस प्रकार छूटे? समझ में आया? प्रौषध, प्रतिक्रमण में बैठा