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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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स्वभाव, जिनकी पर्याय में संतु – पूर्ण शान्ति, वीतराग पर्यायरूप परिणमित हुए हैं, उन्हें शान्त कहते हैं। समझ में आया?
मुमुक्षु - कुछ न बोलते हों (उन्हें शान्त कहते हैं)।
उत्तर – न बोलता हो तो क्या करे? न बोलता हो तो वह तो प्रकृति का स्वभाव है। कषाय मन्द हो और न बोलता हो और मौन रहे तो उससे कहीं शान्त है?
अकषायस्वभाव से परिणमित होकर वीतरागी सन्त हो गये। शान्तदशा का परिणमन (हुआ) उसे शान्ति कहते हैं, उसे वीतराग कहते हैं । सो परमप्पा' लो! उसे परमात्मा कहते हैं। समझ में आया?
तीनों आत्मा की व्याख्या हुई – बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा - ऐसी व्याख्या सर्वज्ञ परमात्मा के सिवाय अन्यत्र नहीं हो सकती। पर्याय में पलटते हैं, बहिरात्मा हो सकते हैं, वे अनादि से, स्वयं के कारण अन्तरात्मा हो सकते हैं, अपने पुरुषार्थ से परमात्मा हो सकते हैं। शक्ति की व्यक्ति के पुरुषार्थ से... यह सब द्रव्य और पर्याय का जहाँ परिपूर्ण स्वीकार हो, वहाँ यह वस्तु सम्भव हो सकती है, अन्यत्र नहीं हो सकती। कहो, समझ में आया? वही परमात्मा है। 'जिणभणिउ' ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। लो! समझ में आया?
इस बात को शंकारहित जान। 'णिभंतु जाणि' ऐसा कहा है न? ऐसा जान । 'णिभंतु' – भ्रान्ति छोड़ दे कि दूसरा कोई भगवान होगा। कोई ब्रह्मा उत्पन्न करनेवाला, कोई विष्णु रक्षा करनेवाला, कोई शंकर टालनेवाला.... हैं ? ऐसे महेश, शंकर वह महेश – ऐसा कोई नहीं है। निर्धान्त होकर ऐसे परमात्मा को जान । परमात्मा ऐसे होते हैं, ऐसे अनन्त परमात्मा हैं। सिद्ध भगवान अनन्त हैं । यदि तुझे परमात्मा होना हो तो तू परमात्मस्वरूप जो तेरा है, उसे जान और राग-द्वेष को छोड़; तो परमात्म शक्ति तो तुझमें अभी पड़ी है। परमात्मा कहीं बाहर से नहीं आते। समझ में आया?
ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। इस बात को शंकारहित जान। निर्धान्त हो जा, निसन्देह हो जा, निर्भय हो जा! वस्तु ऐसी ही है । इसके सिवाय कोई परमात्मा सत्य नहीं हो सकता। उन्हें शरीर नहीं होता.... होता। जिन्हें कुछ खाने-पीने की वृत्ति नहीं होती। भगवान को खाना-बाना नहीं होता भगवान फिर खाये और फिर थाल चढ़े, किसका?