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श्रीसकलचंदजीकृत एकवीशप्रकारी पूजा. ३६७ रचित बहु नूषण, जिनकंठे तेह पहेरावे रे ॥ जुजजुग वर बहेरखा देश, जाल तिलक जमावे रे ॥ मुकुट ॥२॥ सुरपति नक्ति करे मनरंगे, सहस लोचन करी निरखे रे ॥ तेम नविकजन निर्मल चित्ते, पूजे प्रनु मनहर्षे रे ॥ मुकुट ॥३॥ इति पंचदश मुकुटपूजा समाप्ता ॥ १५ ॥ ॥अथ षोडश दर्पणपूजा प्रारंनः॥
॥दोहा॥ ॥ प्रदर्शन करवा जणी, दर्पणपूज विशाल ॥ श्रातमदर्पणथी जुए, दर्शन होय तत्काल ॥१॥
॥ ध्रुवपदं ॥ काफीरागण गीयते ॥ ॥ शुद्ध देव गुरु धर्म धरो रे,तब दर्शन तमे यात्म करो रे॥ शु॥दर्पणपूजा दर्शन कारण, जिन पूजी तमे आप तरो रे॥ ॥१॥ ए आंकणी॥शुरु देव मन माहे धरीने, चित्तदर्पणशुं श्राप जुर्ज रे॥ गुरु नएदेश धर्म चित्त धारी, परपरिणति तुमे आप खुर्न रे॥ शु॥२॥ चेतन कछि अनंत धरावे, दर्शन विण दाकि आप खुए रे ॥ दर्पणपूजा करत जिनवर की, लब निज झकि श्राप जूए रे ॥ शु०॥३॥ एहविष
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