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श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा. ३१ ॥ अथ सिद्धपदपूजा २ जी ॥
॥दोहा॥ ॥ सहजानंद सुख सागरा, चल अनंत घनरूप ॥ सिक ते प्रेमे पूजतां, जीव होय चिनूप ॥१॥ अष्ट करम दल दय करी, पाम्या नवजल पार ॥ जरा मरण ने जन्म जय, रह्या न जास लगार॥२॥ वर्ण गंध रस फरस नहीं, गताकार संगण ॥ प्रगटित आतम रूप जे, नमो सिक नगवान ॥३॥ तजी तिनाग तनु गाहना, रहे श्रातम धन शेष ॥ अनंत नाण दंसणमय, नित सुखी जोति महेश ॥४॥
॥ ढाल १ ली ॥ राग फीकोटी ॥ ॥ सकल करममल दय करीने, नये पूरण शुद्ध स्वरूप रे॥सम्॥श्रव्याबाध प्रज्जुतामय लीना,आतम संपत्ति नूप रे॥शक्ति अनंती प्रगट विलस रही, नमो नमो सिम स्वरूप रे॥स॥॥सकल विजाग वरजित स्वमव्य, प्रदेश पूरित स्वक्षेत्र रे॥ समय समय उपयोग थिति, खकाल ते सिक पवित्र रे॥सण॥॥ज्ञान दरशन उपयोग खनावे,अनंत गुणी अनुप रे॥खन्नाव गुण पर्याय परिणति, समरी लहो अरूप रे॥स॥३॥
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