________________
श्रीगंजीर विजयकृत नवपदपूजा.
४०५
सहित अनिदानपणे, टालीने दुर्ध्यान ॥ निरिक्षक तप सेवीए महिमा लब्धि निधान ॥ ७ ॥ कर्मावरने संहरे, महानंद पद देत ॥ रीके सिद्धि सीमंतिनी, ज्ञानविमल संकेत ॥ ८ ॥
॥ ढाल १ ली ॥ राग देश सोरठ ॥ ॥ पुद्गल का क्या विश्वासा, जैसे पानी बिच पतासा ॥ ५० ॥ए चाल ॥ ॥ तप इछा रोधन जानी, वहिंतर नेद पठाणी ॥ तप० ॥ श्रातम सत्ता चित्त धरीने, परपरिणति विरमाणी ॥ तप० ॥ १ ॥ अनादि कर्म प्रवाह उवेदी, सिद्धपणुं वरे प्राणी ॥ तप० ॥ २ ॥ योग निरोधी अनाहारी, अक्रिया जाव निसानी ॥ तप० ॥ ३ ॥ अंतरमुहूर्त्त तत्व निज साधे, सर्व संवरमय प्राणी ॥ तप० ॥ ४ ॥ एम नव पद गुण मंगल विरचो, निखेप नय विधि जाणी ॥ तप० ॥ ५ ॥ शुद्ध सत्तारामी चेतन होये, देवचंद पद ठगणी ॥ तप० ॥ ६ ॥ ॥ ढाल १ जी ॥ राग खमाच ॥
॥ पूजो तप गुण शिवतरु कंद, जे शम मकरंद मंद रे ॥ ० ॥ जेहने आदरे कर्म खपेवा, ते जव मुगति जिनंद रे ॥ ५० ॥ १ ॥ कारण वश कारज बे निश्चये, जाने परम मुनींद रे ॥ पू० ॥ कर्म निकाचित पण
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org