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श्रीगंजी र विजयकृत दशविध यतिधर्मपूजा. ३०१ वरतानी रे ॥ सजी ॥५॥ वचन दोषी वंदे गुण पोषी, जतना दिल मानी रे ॥ सजी० ॥ ६ ॥ सरंज समारंज ने आरंजा, कल्प न पीड प्राण हानि रे ॥ सजी० ॥ ७ ॥ त्रिविध त्रिजोगे बंधादि निवृत्ति, संजमवंत प्रभु नाणी रे ॥ सजी० ॥ ७ ॥ संजम वृद्धि वीर गंजीरसें, पूजी पायो जवि प्राणी रे ॥ सजी० ॥ ५ ॥ सकल० ॥ ॐ ॥६॥ ॥ अथ सातमी पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
॥ संयम थिरता कारणे, सत्य धरो हृदे मांदे ॥ सत्ये सवि वंबित लहो, प्रभुता सत्यके मांदे ॥ १ ॥ ॥ राग वसंत ॥ चंदा प्रभुजीसें नीहाल रे, मोरी लागी लगनवा ॥ ए देशी ॥
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॥ सत्यभाषी सें प्रीत रे, मोरी जागी जरमना ॥ ए कणी ॥ जागी जरमना जूठे न राचुं, याचं अमृतपान रे | मोरी० ॥ १ ॥ कोप कठिन वचन प्रजुके, तजी मर्मनी रीत रे ॥ मोरी० ॥ २ ॥ हित मितावितथ अनुग्रहकारी, तेम जनक प्रतीत रे | मोरी० ॥ ३ ॥ जूठ मिश्र संत्रांत तजीने, संदिग्ध अनीत रे ॥ मोरी० ॥ ४ ॥ राज देश जन काल जावश्री, धर्म
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