Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 30
________________ साधनोंसे नूतन प्रासादका निर्माण करनेका साहस किया गया । अतः जनजीवनका व्याप संकीर्णतासे सुविशालताकी ओर, प्रमादसे पुरुषार्थकी ओर, अंधविश्वाससे वैज्ञानिकताकी ओर विस्तारको प्राप्त हुआ। साहित्यिक-धार्मिक-राजकीय एवं सांस्कृतिक साहित्यकी गद्य और पद्य रचनाओंके लिए तत्कालीन विभिन्न साहित्यकारोंने हिन्दी भाषाका उपयोग किया । सभी क्षेत्रोंकी भाँति युग परिवर्तनके साथ साहित्य परंपराओंने भी मोड़ बदला हिन्दी साहित्यमें नयी चेतना और नवजागृति-राष्ट्रीयता, सामाजिकता, सांस्कृतिक सभ्यताके नये आयामों-नूतन प्रयोगों और नवीन विशेषताओंके रूपमें प्रकाशित हुईं । भाषा और भावनाकी दृष्टिसे यह संक्रमण काल होनेसे धर्म और साहित्यको ठोस भूमिगत स्थिरता प्राप्त हो रही थी । उसी समय देशवासियोंको स्वदेशकी अतीत गौरवगाथाकी ओर सावधान करनेवाले और नव जागरणका शंख फूंकनेवाले भारतेन्दुजी और उनके सहयोगी राष्ट्रीय चेतनाके उदीयमान नक्षत्रके रूपमें दृश्यमान हुए और तत्काल साहित्यने मानो करवट बदली । भारतेन्दुजी आधुनिक साहित्यके जन्मदाता या अग्रदूत माने गये । स्वयंके यात्रानुभवोंसे चेतनवंत बने देशप्रेमके कारण पत्रिकाओंके प्रवर्तन और कवि समाज', 'कवितावर्द्धिनीसभा' आदि संस्था स्थापित करके उस कला-प्रशंसक और उदार आश्रयदाताने हिन्दी साहित्यकी रचना करके और उसके प्रचार-प्रसारके लिए एक मंडल-सा जमघट निर्माण किया, जिससे हिन्दी भाषा और साहित्यको स्थिर और स्थापित होनेमें सामर्थ्य प्राप्त हुआ । वे अपने आपमें एक संस्था सदृश विशाल और बहुमुखी प्रतिभाके स्वामी थे, जिनकी गद्य और पद्यमें समान और समांतर गति थी । "उन्होंने विशाल पैमाने पर, बहुसंख्यक, विभिन्न विषयक और अनेक विधाओमें साहित्य सृजन करके इस बातको प्रमाणित कर दिया था कि, वे आधुनिक हिन्दी साहित्यके लिए मधुमास बनकर आयें, जिन्होंने सभी रसोंकी सृष्टि की ।" "भारतेन्दु सहज प्रतिभा सम्पन्न थे, अतएव उनकी वाणीसे भाषा साहित्यकी समस्त परंपराओंका काव्य अपने प्रकृत रूपमें प्रस्फुटित होता था । उन्होंने खड़ी बोलीमें सुंदर रचनायें की, तो ब्रजमें भी मानो सूर-बिहारी या देव-पद्माकरकी विशेषता लेकर आये; लोक प्रचलित प्रगीतशैलीमें हास्य-विनोद या व्यंग्यपूर्ण काव्य रचा, तो होली-कजरी-लावणी-भजनादि रूपोमें भी स्वर भरे ।५ नवयुगीन संगठन और औद्योगिक उन्नतिसे निष्पन्न नयी चेतनाके स्वर शायद विद्रोही नहीं, फिर भी देशोन्नतिके लिए उद्बोधक और देशभक्तिको उकसाकर जन जागृति करवानेवाली जोशीली भावाभिव्यक्ति रूप थे । तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओंके प्रारम्भ और प्रवर्तन एवं अंग्रेजी गद्य साहित्यके संपर्कसे नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, यात्रावर्णन, जीवन चरित्र, आलोचना-ऐतिहासिक, भौगोलिक, धर्मशास्त्रीय, वैज्ञानिक, वेदान्तादिके सिद्धान्त निरूपणवाला दार्शनिक आदि गद्यसाहित्यके रूपोंका संवर्धन होता रहा, जिनके स्फुट या अस्फुट, अग्रगण्य या नगण्य रूप भारतेन्दुजी और उनकी मंडलीके प्रतापनारायण मिश्र, 'प्रेमघन', ठाकुर जगमोहनसिंह, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्तादि साहित्यकारों एवं परवर्ती लेखकोंमें प्राप्त होते हैं। भारतेन्दु-पूर्व गद्य शैलीमें .(१) ब्रजभाषापन या पंडिताऊपन; (२) संस्कृत गर्भित; (३) अरबी, फारसी शब्दयुक्तखड़ीबोलीके तीन रूप प्राप्त होते हैं, लेकिन भारतेंदुजीने गद्यकी नवीन शैलीकी नींव डाली जो परिमार्जितसर्वग्राह्य-चलती भाषाका रूप लिए उत्कृष्ट गद्य साहित्य-सृजन योग्य थीं । निबन्ध विधा-हिन्दी साहित्यकी निबन्ध विधाकी ओर दृष्टिपात करने पर हमें परिचय प्राप्त होता है बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्रके विचारात्मक, वर्णनात्मक, कथात्मकादि अनेकविध निबन्धोंका गद्यमय साहित्य निर्माणमें महत् योगदानका; बालमुकुंद गुप्तजीकी मुहावरेदार, नैसर्गिक, व्याकरण शुद्ध, दृढ़ भावाभिव्यंजनाकी अभिव्यक्तिके सामर्थ्ययुक्त प्रौढ़ भाषा शैलीका; माधुर्य और कान्तिगुण युक्त, संस्कृत-अंग्रेजीकी विद्वत्तासे झलकती ठाकुर जगमोहनसिंहजीकी रचनाओंमें विलक्षण मनोहरताका: श्री निवासदासजीकी गद्यशैलीकी फारसीके तत्सम शब्द युक्त संयत-सुबोध परिपक्वताका । नाटक विधा-ठीक उसी प्रकार तूटी हुई संस्कृत नाट्य परपरा और रंगमंच-जो नवनिर्माण योग्य थीं-उसके पुनर्जीवन प्रदाता भारतेंदु युगमें निजी मौलिकताको लेकर और अनुवादित रूपमें विविध नाट्य रूपोंकी उद्भावना की गईं, जिनके द्वारा हिन्दी गद्यका समुचित (5) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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