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जैसे सुहागन नारीका द्योतक भालतिलक होता है ठीक वैसे ही, कविराज, आत्म सुहागनके सुमति(शुद्धबुद्धिासंकेतसे चेतनजी (आत्मा)को शुभमनसे द्रव्य-समाधि और शुद्ध मनसे भावसमाधि प्राप्त करके अंतस्तलके पक्षपातको धारण करनेकी हिमायत करते हैं
“धारो धारो समाधि केरो राग, राचोरे चेतनजी, मन शुद्ध लाग....
द्रव्य समाधि भाव समाधि, सुमति केरो सुहाग....राचोरे....” ५६ इस दूषम कालमें जीवको समाधि-प्राप्ति अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्लभ है। शान्ति व समाधि-जलको. आधि-व्याधि-उपाधिकी दैहिक, दैवीक और भौतिक भीषण तपनने तपाकर अदृश्य कर दिया है। मानवमात्रकीगहन समझो या विशाल-आज अत्यधिक विकट एवं विकराल समस्या है समाधि प्राप्ति। इसकी अत्यन्त सरलतम तदबीर फरमाते हुए सहृदय कवि गुनगुनाते हैं -
“पूजन करो रे आनंदी, जिणंद पद, पूजन करो रे आनंदी.... अष्ट प्रकारी जन हितकारी, पूजन सुरतरु कंदी....जिणंद पद....
आतमराम आनंद रस पी ले, जिन पूजत शिवसंगी....जिणंद पद....५७ अथवा इन आठों भेदसे न हो सके, केवल जिनेश्वरकी धूप-पूजाकी भी परिणति कैसी है देखें
“धूप पूजा अघ चूरे रे भविका धूप पूजा अघ चूरे।। भवभय नासत दूरे रे भविका धूप पूजा अघ चूरे।।....
आतम धूप पूजन भविजनके, करम दुर्गंधने चूरे रे भविका धूप पूजा अघ चूरे। ५८ जीवनकी क्षणभंगुरताको दर्शाकर उस भौतिक भ्रमजालमें न उलझनेकी सीख देते हुए सज्झायमें उलाहना देते हैं
“तुम क्यों भूल परे ममतामें..... जीवित रूप विद्युत सम चंचल, डाभ अनी उद्-बिंदु लगेरो;
इनमें क्यों मुरझायो चेतन, सत् चित् आनंद रूप एकेरो....तुम क्यों...." ५९ केवलज्ञानको अवरोधनेवाले कर्मोंका स्वरूप निरूपित करते हुए उससे प्रीत तोडनेकी शिक्षा माढ़ रागमें सुंदर लयके साथ प्रस्तुत की है
“प्रीति भांगीरे कुमति शुं.... ज्ञान दरसणावरणी दोउ रे, इसके पूत कपूत; महानंद गुण सोसियो रे, वेदनी दास करूर....प्रीति.....
कुमता तात भयंकरू रे, मोहे मोह गरूर....कुमति शुं प्रीति भांगीरे...." ६० 'स्वमें बस-परसे खस' इसी उक्तिको चरितार्थ करते हुए-परस्वभावसे आत्म स्वभावमें आनेके लिए प्रेरणा करते हुए आत्माको उपालंभ देते है
"ते तेरा रूप न पाया रे अज्ञानी....(२) देखी रे सुंदरी, पर की विभूति, तुं मनमें ललचायो रे....
एक ही ब्रह्म रटि रटना रे, परवश रूप भूलाया रे... अज्ञानी .....(६१) इस आत्म स्वभावमें स्थिरता कैसे हो? उसकी युक्ति भी प्रकाशित करते हैं
"सुगुरु सुदेव सुधर्म रस भीनो, मिथ्या मत छिटकाया रे
इन्द्रिय-मन चंचल वश कीनो, जायो मदन कु राया रे आत्मानंदी अजर अमर तुं, सत्चिद् आनंद राया रे.... ते तेरा रूपकू पाया रे सुज्ञानी...." ६२
श्री आत्मानंदजी म. सा. 'सर्व जीवराशिके प्रति स्व-पर आत्म-कल्याण करके सर्वआतमराम चिदानंदघन बने-आत्मासे परमात्मा पद प्राप्त करें' यही कामना-हार्दिक अभिलाषाके साथ अनेकानेक रचनाओंमें गूढ रहस्योंको सरलतासे विश्व समक्ष प्रस्तावित करते हैं। कलात्मकता-भावात्मकता और दार्शनिकताके पुट-निदर्शन:कलात्मकता:- किसी भी कृतिमें कलासे युक्तताको कलात्मकता कही जाती हैं। जीवन भी एक कला ही
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