Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ ईश्वरने जगत्कर्ता न मानवावाळा जैनोने धन-दौलत-उच्चपदवी वि. क्याथी मळे छे अने मानवावाळा ईसाइयो बहुलताए दुःखी केम छे ?-तेनुं पृथक्करण करी कर्मनी थिअरी बहु सारी रीते समजावी छ। इन प्ररूपणाओंके बल पर उन्होंने अबुध जैन समाजको जागृत करते हुए जैन दर्शनकी उत्कृष्टता, महत्ता और जीवनमें आवश्यकताको समझाया-“जैन दर्शननां मौलिक तत्त्वोनो, एनी प्राचीनता पुरवार करनारी नोंधोनो अने प्रतिदिन आचरणमां उतरी रहेली करणीओनो ढूंकमां यथार्थ खयाल आपतो ए ग्रन्थ साचे ज 'तत्व निर्णयनो प्रासाद' अर्थात् महेल रूप छ । 'जैन तत्त्वादर्श' वांचतां ज प्रभु श्रीमहावीरना सिद्धान्तोनु रहस्य खर्दु थाय छे । . अनेकान्त और स्याद्वादके निरूपणके सहारे ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका, अद्वैत ब्रह्मका, जीव-कर्म-संसारमोक्षादिकी अनादि अनंत स्थितिका, नय और प्रमाण एवं सर्व नयवादोंके सम्यक् समन्वयका-आदि अनेकानेक विषयोंकी प्ररूपणा सैद्धान्तिक, बौद्धिक और तात्त्विक युक्तियुक्त तर्क द्वारा जन समाजके समक्ष पेश की है । इस प्रकार आत्मा और परमात्माके स्वरूपको नय-प्रमाणसे समझाकर अंधश्रद्धा और वहमादिको दूर करके सत्य एवं शुद्ध रूप परमात्मा पूजन, कर्म-पुरुषार्थादि पांच निमित्त कारणोंके समवायसे सृष्टि संचालनादिकी प्ररूपणा की है-“आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर है कि नहीं ? आदि समस्याओंको सुलझानेकी कोशिश सभी दर्शनोंने की हैं । जैन दर्शनने भी इस विषयमें दुनियाको बहुत कुछ दिया है, अधिकारके साथ, अपने समयके अनुसार, वैज्ञानिक दृष्टिसे दिया है ।३६ यह उनका ही प्रभाव है कि सर्वधर्मके दार्शनिक सिद्धान्तोंके प्रहारोंसे जैन दर्शनको मुक्ति प्राप्त हुई है। उसके अपने सामर्थ्य, स्वायत्तता और सर्वोत्तमताका अनुभव जैन-जैनेतर सबको हुआ है . “जब मैंने आत्मानंद महाराजके ग्रन्थ देखें और उनके वाचनसे जब प्रतीत हुआ कि जैनधर्मके स्याद्वाद या अनेकान्तवादमें द्वैताद्वैत, क्षणिक-शाश्वतवाद-आदि सभी द्वंद्वोका समन्वय किया है । जब देखा कि, रत्नत्रयमें ज्ञान, उपासना तथा क्रियाकांड-इन तीनों मोक्षमार्गोंकी आवश्यकता एक साथ बतलायी है; पंच परमेष्ठिके ध्येय स्वरूप ईश्वर जैन-धर्ममें होते हुए भी ईश्वर सृष्टिकर्ता का अभाव है, तब मैं उस पर लटु हो गया । तबसे आज तक जिनवाणी पर मेरी श्रद्धा कायम है और कायम रहेगी ।३७ इस प्रकार जैन दर्शनके इस महान दार्शनिकके ऋण स्वीकारते हुए और अपनी भक्ति प्रकट करते हुए श्री चैतन्यदासजी श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं-"All of us should pay homage to him as a great scholar, thinker and philosopher the friend of humanity." सामाजिक “धारा जन्म जगत दुःख टारा, जैन जातिका पतन निवारा, . बही स्नेहकी मधु-रस धारा, प्रेम पयस्विनी प्रगटी, डूबे पाप ताप दुष्काम ..... तुमको लाखों प्रणाम ।" यह वह समय था, जब जैन जगतमें जातीय और साम्प्रदायिक विद्वेषकी प्रचुरतासे व्युत्पन्न प्राचीरोंने सामाजिक एकताको खंड-खंड कर दिया था । समाजमेंसे मानवता मानों मर चूकी थी, अज्ञानता भर चूकी थीः समाज हैरान था-परेशान था विहृवल था । सामाजिक-राजकीय-नैतिक परिस्थितियाँ अत्यन्त शीघ्रतासे, बेमर्याद-सीमातीत रूपमें बरबादीकी ओर पैर पसार रही थीं । सभीको अपने अस्तित्वकी सलामतीकी आशंका थीं । चार-पांच सदियोंके लगातार मुस्लिम-ईसाइयोंके दोहरे आक्रमणोंने शिक्षा-संस्कार-संस्कृतिकी तबाही की थी-मानो उस पर ताले लग चूके थे। परिणामतः सामाजिक कुरूढ़ियाँ-अराजकता और अनिश्चितताके तनावमें सारा समाज उलझा हुआ था। अमर और तात्त्विक सामाजिक प्राणशक्ति जैसे आच्छादित हो चूकी थी, जिसे भीषण झंझावातोंने घेरकर प्रकम्पित कर दिया था, और जो स्वयंके अस्तित्वके लिए तड़प रही थी। मुस्लिम सम्राटोंके त्रास, अंग्रेजोंके षड़यंत्रोंके जाल और उससे आर्थिक-व्यापारिक- औद्योगिक शोषण, लोर्ड मेकोलेके अंग्रेजी शिक्षणके परिणाम रूप सांस्कृतिक और धार्मिक भ्रष्टता एवं अराष्ट्रीयता तथा बर्बरताका (102) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206