Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 138
________________ साधु ही कर सकता है । लेकिन कुछ पुर्वानुसंधानोंके संदर्भके बल पर इस गतानुगतिकताको रुखसत देकर वे स्वयं भी बिना योगोद्वाहन आगम-सूत्रादिके अध्येता एवं अध्यापक भी बने और पाश्चात्य-पौर्वात्य सभी जिज्ञासु विद्वानोंको उन रहस्योंसे परिचित बनवाकर उनके अध्ययनमें सहयोगी बने, जिससे अनेकोंको जैन साहित्यके अध्ययनमें प्रोत्साहन मिला । इस प्रकार हमारे इस विहंगावलोकनसे प्रतीत होता है कि सूरिवर्य श्री आत्मानंदजी म.ने जैन साहित्यके संरक्षण और संमार्जनके प्रति किस कदर पुरुषार्थ किया था। और अब हम निरूपित करते हैं उनके साहित्य संवर्धनको, जिसके लिए उनका समूचा जीवन समर्पित था । संवर्धनः-तत्त्व और तथ्य गवेषक-तलस्पर्शी जिज्ञासु एवं तर्कबद्ध शिष्ट आलोचककी प्रतिभा सम्पन्न सुरीश्वरजीकी हृतंत्रीकी झंकारने संरक्षण और संमार्जनसे ही तसल्ली न मानकर उस बीनको तीव्र और उच्च झनझनाहटसे निनादित संवर्धनमें कृतार्थता मानी । उत्तम पुरुष वह होता है जो पैतृक सम्पत्तिको वृद्धिगत करें । सूरि सम्राट श्री आत्मानंदजीम.सा.ने इस तथ्यको सिद्ध कर दिखाया । स्वयंने गणधर रचित आगम-शास्त्र एवं गीतार्थ पूर्वाचार्य विरचित विविध विषयक ग्रन्थोंका साद्यंत अध्ययन किया-पंचांगीके सहारे पठन-मनन किया और सत्य गवेषक दृष्टिसे उनका परीक्षण करते हुए उस चिंतन-मननके रवैयेसे किये गये बिलोडनसे प्राप्त नवनीतको लोकभोग्य बनाने हेतु सरलतम प्रविधिसे प्रस्तुत करनेकी कोशिश की । उनकी ग्रन्थ रचनाओंके सूक्ष्म अभ्याससे प्रतिफलित होती है, अनेक आगमशास्त्र एवं जैन-जैनेतर ग्रन्थोंके संदर्भोसे उनकी बहुश्रुतता, विशाल और गहन अध्ययन, वस्तु विवेचनाकी गंभीरता, पदार्थोके वर्गीकृत संग्रह, सर्वधर्मका सर्वदेशीय अध्ययन तथा उससे निष्पन्न प्रखर पांडित्य! सुव्यवस्थारूढ समर्थ सुक्रान्तिकारत्व और चिंतन स्वातंत्र्य ! उनके ग्रन्थोंके अध्ययनसे अध्येताको बिना आगमके अभ्यास ही अनेक आगमिक गूढ, सैद्धान्तिक तथ्योंका सार सरलतया प्राप्त होता है । उनका धाराबद्ध प्रवाहित प्रवचन हों या अंतरंग भावावेगबद्ध भाषामें आलेखन हों, श्रोता या पाठक, आबाल-वृद्ध या विद्वान हों समान रूपसे उसका उपभोक्ता बन सकता था । उनकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म तत्त्वकी प्रतिपादक विवेचना शैली ऐसी मनोहर थी कि छोटा बालक उसे उसी भावसे समझ सकता है, जिस भावसे एक विद्वानः अनेक साक्षर एवं तत्त्व-गवेषक मंत्रमुग्ध बनकर उसका आस्वाद लेते रहते थे और अधुना भी ले रहे हैं । अप्रमत्त आत्मानंदजी म.के नित्य नूतन साहित्य सर्जनकी भाव लहरी पर नर्तन होता रहता थावैदिक साहित्यका अध्ययन, श्रुतियाँ-उपनिषद-पुराणादिका पठन, इतिहासका अवलोकन, स्व-पर समयके दर्शनको लक्षित किया हुआ चिंतन-मननः जिनसे निःसृत हुआ युक्तियुक्त अनेकान्तवाद एवं स्याद्वादका मनमोहक आलेखन; जैनधर्मकी दार्शनिकता, सैद्धान्तिकता, क्रिया-कर्मठताः मूर्तिपूजा और अहिंसक आत्मिक यज्ञकी सिद्धिमें प्राचीन शास्त्र और अर्वाचीन तर्कबद्ध उहापोह । इस क्षेत्रमें सबसे महत्त्वपूर्ण-यथोचित-लाभदायी जो कार्य हुआ, वह है हिन्दी भाषामें साहित्य सर्जन! वह युग था पांडित्य प्रदर्शनका ! उन दिनोंमें गद्य रचनायें होती थीं प्रायः संस्कृत या प्राकृतमें और पद्य रचनायें प्रायः प्रादेशिक भाषाओंमें-विशेषकर ब्रजभाषामें ऐसे वातावरणमें संस्कृत-प्राकृतके एक प्रखर-सिद्धहस्त विद्वानका खड़ीबोली-हिन्दी भाषामें साहित्य सर्जन करना-जिसका साहित्यिक स्वरूप भी डाँवाडोल था-अपने आपमें आश्चर्योत्पादक या अनहोनी घटना थी ! लेकिन आचार्य प्रवरश्री आम्रतरु सदृश जितने उच्च कोटिके विद्वान थे उतने ही नम्र और भावुक भी थे । उनके परमोपकारी अंतरात्माके निर्मल आकाशमें चमकते चंद्रकी चांदनीमे सभीको सराबोर कर देनेकी उनकी ख्वाहिश थी । वे चाहते थे कि जिनशासनके जिन सिद्धान्तोंको पूर्वाचार्योंने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-मागधी-अर्धमागधी आदि अनेकानेक प्राचीन भाषाओमें निबद्ध किया है, उसे उन भाषाके अवबोधसे अबुध-सामान्य जन-जन तक पहुँचाया जाय; उनके अंतरंग एवं वास्तविक मर्मको उन सरल और भद्र परिणामी, जिज्ञासुओंको समझाया जाय; भ. श्रीमहावीरके सत्य राहसे उन्हें परिचित करवाया जाय-जिनसे उनकी सम्यक् श्रद्धा सत्य धर्मके प्रति स्थिर बनें । उन दिनों अधिकतर (113) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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