Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 174
________________ महासंसार थकी नीकली करत आनंद निज रूप धारो।" संपूर्ण जैनमत-स्वरूप जान लेनेसे उन सगुण-निर्गुणके कदाग्रह-पक्षापक्षीके मूलका ही नाश हो जाता है और स्वरूप रमणताका आनंद उभरता रहता है। सगुण-निर्गुण सदृश सैद्धान्तिक धाराओमें द्वैत और अद्वैतकी तरंगें झुलती रहती हैं। कई विद्वानोंने भक्तिके लिए द्वैत भावका होना अनिवार्य माना है क्योंकि भजन-भक्ति आदि परमात्माको भिन्न मान कर ही की जाती है। जब आत्मा-परमात्माका अद्वैत होगा तो कौन किसकी भक्ति करेगा? वही भक्तिकी लहर तुलसीके अंतरतार झंकृत कर देती है. __ “प्रन करि हौं हठि आज तें, रामद्वार पार्यो हौं। 'तू मेरो' यह बिनु कहै, उठि हो न जनम भरि; प्रभुकी सौं करि निवर्यो हों।"....... श्रीआत्मानंदजीके भी वैसे ही भाव- "मुख बोल जरा, यह कह दे खरा; तूं और नहीं मैं और नहीं “तुं नाथ मेरा, मैं हूं जान तेरी, मुझे क्युं बिसराइ जान मेरी".... आगे चल कर उन्हें लगता है, मेरी भक्ति फलित हुई है तो कैसे झूम उठे हैं! “अब करम कटा और भरम फटा, तूं और नहीं मैं और नहीं।८७ यहाँ कवीश्वरने द्वैत भावमें अद्वैतके भावकी कल्पना कैसे सुंदर अभिनिवेशमें की है?. जो जैन दर्शनकी निजि विशिष्टता मानी गई है। दोनों कविवर्योंकी रचनामें स्थान स्थान पर हमें दासता या दैन्यता छलकती नज़र आती है- जो किसीभी भक्तके कल्पना साम्राज्यकी स्वकीयाके रूपमें प्राप्त होती है। स्वामी-सेवक भावकी अनुपस्थितिमें सर्वस्व समर्पणका अभाव होता है, इसकी शून्यतामें सिद्धिकी साधना अपूर्ण ही रहेगी। लक्ष्य प्राप्ति हेतु स्वको सर्वके साथ, आत्माको परमात्माके साथ क्षीरनीरवत् करना आवश्यक है। “हम चाकर रघुबीरके, पटौ लिखौ दरबार, तुलसी अब मनसबदार...." “तहै न फूटी कौडिहू, को चाहे केहि काज सो तुलसी महंगो कियो, राम गरिबनेवाज।।" श्रीआत्मानंदजी म.भी उस जगतारक-जगदीश्वरको विनती करते हैं “जगतारक, जगदीश, काज अब कीजो मेरो, अवर न शरण आधार नाथ हुं चेरो तेरो। दीन-हीन अब देख करो प्रभु वेग सहाइ, चातक ज्यूं घनघोर सोर निज आतम लाइ।८८ दोनों कविराज द्वारा परमपिता परमात्माके अनेकविध स्वरूपों और भावोंका सजीव चित्रण अनुपम-प्रभावकसंप्रेषणीयताके साथ हुआ है। वात्सल्यरस छलकती इन पंक्तियोंकी आस्वाद्यता उर्मिल भावोंको उछालती है “छोटी छोटी गोडियाँ, छबिली छोटी नख ज्योति, मोती मानो कमल दलनि पर। ललित अंगन खेलें ठुमक ठुमूक चलें, झुंझनुं झुंझनुं पांय पैंजनी मृदु मुखर। किंकणि कलित कटि, हाटक जटित मनि, मंजु कर कंजनि पहुंचियाँ रुचिरतर। पियरि झीनी झंगुलि, सांवरे सरीर खुली, बालक, दामिनी ओढे मानो बारे बारि घर।। (गीतावली) श्री आत्मानंदजीके श्री पार्श्वनाथ पलनेमें क्या क्या हरकतें करते हैं “पालने में जिन पोढइया...... तूं मेरा लाला सब जगबाला, फिर फिर मुख मटकइया......" और बाल भगवान महावीर कैसे चलते हैं “आमेरवाला त्रिभुवनलाला, ठुमक ठुमक चल आवे छे......"१९ दोनों साहित्यकारोंके तुलनात्मक अनुशीलन करने पर हमें अनुभव होता है कि तुलसी साहित्यमें जन साधारणके लोचनसे ग्रहित विलक्षण लोकानुभव एवं लोकमंगलको सर्वमान्य सुक्तियाँ, कीर्तन-पद, उपाख्यानचरित्र दृष्टान्त, प्रबन्ध काव्यादिमें अलंकार-प्रतीक-रसादि योजनाओंको विविध छंदोबद्ध एवं राग-रागिणी द्वारा भगवद् भक्तिकी विभिन्न विधाओंके माध्यमसे आदर्श और यथार्थ, विश्वास और संदेह, ग्रामीण समाजकी (149) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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