Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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कारण ईश्वर-परमात्मा ही ठहरा तब तो सर्व जगत एक-सम, एक स्वरूप है, दूसरा तो कोई है नहीं।१०४
निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि हिन्दी भाषा और साहित्यको जिस तरह भारतेन्दुजीने उठाया और संवारा तथा प्रचलित किया वैसे ही जैनाचार्य श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने भी अपने अंतर्भावोंको प्रकाशित करनेके लिए हिंदीका आंचल पकड़ा, उसे जगाया-सजाया-विभूषित करके प्रसारित किया । परिसमाप्ति-दिग्गज विद्वद्वर्य और अनुपम फनकार श्रीआत्मानंदजी म.सा.के व्यक्तित्वके संगीतमें श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.का सत्याभियान, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म.सदृश दार्शनिकता एवं अनवरत पुरुषार्थ, श्री आनंदघनजी म.का अवधुत्व एवं परमात्म भक्तिकी मस्ती और श्री चिदानंदजी म.की आत्मरमणता, संत तुलसीदासजीका संपूर्ण समर्पणभाव, श्री दयानंदजीकी खुमारी युक्त धर्मरक्षाका पुरुषार्थ तो श्री भारतेन्दुजीकी तरह ध्येयके प्रति एकनिष्ठ लगनके सप्त सुरोंका संधान अनुभूत होता है; तो उनकी कृतियोंके चित्रफलक पर श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.सदृश तात्त्विक सैद्धान्तिकता, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म.समान अकाट्य तार्किकता, श्री आनंदघनजी म.की परमात्म प्रीतिकी अजस्रता, श्री चिदानंदजी म.तुल्य भावसभर भक्ति वत्सल हृदय, श्री तुलसीदासकी भाँति लोकमंगलकी भावना, श्री दयानंदजीकी समाजोत्थान और रूढिवाद विरुद्ध मुकाबला एवं श्री भारतेंदुजीकी साहित्यिक सेवाके सप्तरंगी इन्द्रधनुषी आभासे सुशोभित हो रही है।
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