Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 182
________________ आक्रोशपूर्ण खंड़नात्मक शैलीका प्रयोग किया गया है । यथा - " तीर्थंकर भगवंतकी भक्ति करनेमें तीर्थंकर भगवंत निमित्त कारण है । बिना निमित्त आत्माके उपादान कारण कदेइ फल नहीं देता । तीर्थंकर निमित्तभूत होवें, तब भक्ति उपादान कारण प्रकट होता है । तिससे ही आत्माके सर्वगुण प्रकट होते हैं, तिनसें मोक्ष होता है । जैसे घट होनेमें मिट्टी उपादान कारण है, परंतु बिना कुलाल, चक्र, दंड, चीवरादि निमित्तके कदापि घट नहीं होता, तैसे ही तीर्थंकर रूप निमित्त कारण बिना आत्माका मोक्ष नहीं हो सकता । इस वास्ते तीर्थंकरकी भक्ति करनी चाहिए ।" 'जेन तस्यादर्श', 'तत्त्व निर्णय प्रासाद', 'अज्ञान तिमिर भास्कर' आदि ग्रन्थोंमें वंदनात्मक शैलीके प्रयोगोंकी प्रचुरता प्राप्त होती है । श्री आत्मानंदजीके पद्यमें भी ब्रजभाषाकी मधुरता युक्त परमात्माके प्रति दास्यभाव और सख्यभाव प्ररूपित हुआ है । इनके पद्यकी शैली विशेषतः भावात्मक और उपदेशात्मक रही है, साथ ही कहींकहीं वर्णनात्मक शैलीका भी प्रयोग हुआ है । परमात्मा भक्तिके भाव प्रवाहमें बहते कवीश्वरकी आरतको सुनें“तेरे हि चरण कमल को मधुकर, वीरवीर मुख रटितः नाम तुम विरहो, दुःखम पुन आरो मनबल दुर्बल तनुं कलाम...... मेरे सैयां तू नज़र कर वर्धमान...... तुम बिन कौन करे मुझ करुणाधाम, करुणा दृगभरी तनुकज निरखो पामुं पद जिम आतमराम..... मेरे सैयां तू नजर कर वर्धमान ११०१ जिसके जीवनमें संयम और ब्रह्मचर्यके गुणकी प्राप्ति हो जाती है उसे शाश्वत् सुखकी प्राप्ति पलक झपकते होती है-इसे उपदिष्ट करते हैं-निज चेतन (आत्मा) के प्रति “धर्मनी बातां दाखाजी म्हारा राज रे चेतनजी थाने...... धर्म जिणंद बतायाजी म्हारा राज रे..... जेहने आलंबिहे, भवोदधिमें न डुबाया जी म्हारा...... संयम सत्त्व सुहायाजी म्हारा राज रे.....कांइ ब्रह्म अकिंचन तप शुचि सरल गिनायाजी.....म्हारा...... हिन्दी भाषा सेवा:- तत्कालीन साहित्यके समान ही भाषाकी प्रेषणीयता प्रभावकता और परिमार्जन भी उल्लेख्य है । भाषाका निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेंदुकी कलाके साथ ही प्रगट हुआ । उनके समयमें हिन्दी भाषाका प्रस्तावकाल समाप्त हुआ और स्वरूप स्थिर हुआ । उन्होंने साफ सुथरी और व्यवस्थित शब्दोंसे ग्रथित सुसंबद्ध वाक्य रचनामें वाङ्मय निर्माण और मार्मिक प्रवचनों द्वारा हिन्दी भाषाका प्रचार किया । मानो उन्होंने मंत्र रट लिया था · Jain Education International ***** 1 “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नतिको मूल । बिनु निज भाषा ज्ञानके, मिटत न हियको शूल ॥” “निज भाषा, निज धरम, निज मान करम व्यौहार सबै बढ़ावहु वेगि मिलि कहत पुकार पुकार। १०३ इस प्रकार हिंदी भाषाकी संरचनामें एवं स्वरूप स्थायित्वमें श्रीआत्मानंदजी म. का योगदान भी उल्लेख्य है। श्री जसवंतराय जैनके मनोभावोंकी अभिव्यक्ति अनुसार उस समय तक धार्मिक ग्रंथ संस्कृत-प्राकृतमें थे, और जो भाषामे अनुवादित थे वे भी पद्यबद्ध - छंदबद्ध थे, क्योंकि गद्य रचनाका प्रचार न था, न कोई स्थिर शैली । महती समस्या थी संस्कृत ग्रन्थोंके स्वाध्यायकी परिपाटी बनाये रखनेकी । इसी कारण पू. श्री आत्मारामजी म. ने संस्कृत-मूल शब्दोंको महत्ता दी और संस्कृत न जाननेवाले पाठकोंके लिए ऐसे शब्दोंकी भाषामें व्याख्या करनेका क्रम ग्रहण किया । इससे संस्कृत परिपाटीको सम्मान मिला । दैनिक प्रयोगयुक्त तत्त्वचर्चामें संस्कृत शब्द विदित रहे और संस्कृत न जाननेवाले पाठकोंको उनकी भाषामें ज्ञान-दान मिला । यह सब होते हुए भी उनकी भाषाशैली क्रमबद्ध साहित्यिक और प्रभावशाली विषयानुरूप उचित प्रयोग और गद्य होते हुए भी पद्य समान मनोहर और स्वाभाविक प्रवाह लिए हुए है । यथा- 'जब सर्व कुछ जगत्स्वरूप परमात्मा रूप है तब तो न कोई पापी है न कोई धर्मी, न कोई ज्ञानी है न कोई अज्ञानी, न तो नर्क है न स्वर्ग, साधु भी नहीं चोर भी नहीं सत् शास्त्र भी नहीं, मिध्याशास्त्र भी नहीं; जैसा गोमांसभक्षी तैसा अन्नभक्षी, जैसा स्वभावसे कामभोग वैसा ही माता-बहिन-बेटीसे, जैसा चांडाल तैसा ब्राह्मण, जैसा गया तैसा संन्यासी सर्व वस्तुका 7 157 For Private & Personal Use Only १०२ www.jainelibrary.org

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