Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 180
________________ तत्कालीन प्रसिद्ध कवि बाबू गोपालचंद्र गिरिधरलालजी के पुत्र थे जिन्होंने पितृव्य संस्कारों में झीलते हुए बाल्यकालसे ही काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी और अल्पायुमें ही अपनी कवित्व प्रतिभा और सर्वतोमुखी रचना कौशलका ऐसा सक्षम परिचय प्रदान किया कि समसामायिक पत्रकारों और साहित्यकारों द्वारा उन्हें 'भारतेन्दु की उपाधिसे सम्मानित किया गया जैसे श्रीआत्मानंदजी म.को भी उनके द्वारा किये गये अनेकविध समाजोत्थानके-धार्मिकोत्कर्षके और जनजीवनोन्नतिके कार्योंसे प्रभावित होते हुए. अखिल भारत जैन समाजने मिलकर संविज्ञ शास्त्रीय आद्याचार्य पद पर विभूषित किया और राजस्थानके जोधपुरादि शहरोंके जैन समाज द्वारा 'न्यायांभोनिधि की पदवी प्रदान हुई। श्री भारन्तेदुजीकी सर्वतोमुखी प्रतिभाके लिए आ.श्री रामचंद्रजी शुक्लके प्रतिभाव पठनीय है-“अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभाके बलसे एक ओर तो वे पद्माकर-द्विजदेवकी परंपरामें दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंगदेशके माइकेल और हेमचंद्रकी श्रेणिमें; एक ओर राधा-कृष्णकी मूर्तिमें झूमते और नई भक्तमाल गूंथते दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर मंदिरके अधिकारी-टीकाधारी भक्तोंकी हाँसी उड़ाते और स्त्री शिक्षा, समाज सुधार, आदि पर व्याख्यान देते। प्राचीन और नवीनका यही सुंदर सामंजस्य भारतेंदुकी कलाका विशेष माधुर्य है।"५४ ठीक उसी प्रकार श्री आत्मानंदजी म.सा.के विषयमें श्री पृथ्वीराजजी जैनने अपने उद्गार अभिव्यक्त किये हैं-“उनका जीवन प्रयोगात्मक कहा जा सकता है। उन्होंने सत्यधर्मका अन्वेषण किया, सत्यधर्मके प्रचारके लिए सर्वस्वकी बाजी लगाई और जैन समाजमें आधुनिक नवीन युगका श्री गणेश किया। वे क्रान्तिके अग्रदूत थे और हमारे सामाजिक जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें उन्होंने समयानुकूल परिवर्तनका संदेश दिया, जिसकी नींव थीं भ.महावीरका संदेश-अहिंसा और विश्वमैत्री।..... आपका त्याग, संयम और तप उच्च कोटिके और शास्त्रानुसार थे। महान कवि और लेखक होनेके साथसाथ वे संगीतज्ञ भी थे..... वादमें आप अजेय और दृढ़ प्रतिपक्षी थे...... समाजमें नयाजीवन, नयीभावना, और नूतन विचारधारा प्रवाहित करनेके लिए कष्ट-कठिनाइयोंके बावजूद भी वाङ्मय रचना, वक्तृत्वकला और उग्र विहारको प्रचार माध्यम बनाकर शुद्ध अध्यवसाय, ठोस ज्ञान-प्रचार, और सत्य मार्ग पर कदम बढ़ाते गये। ऐसे साहसिक और शूर थे-न हारना जानते थे न डरना।१५. साहित्य- श्री हरिश्चंद्रजीने जातीय संगीत' अर्थात् लोकगीत, पद, कवित्त-सवैये आदि अनेक प्रकारके प्रगीत रूप सामाजिक काव्य रचनाओं पर बल दिया; फिरभी उनके पद्य साहित्यकी वैविध्यता हैरतयुक्त हैं, जिनमें शृंगारपरक-मार्मिक-भक्तिके गीत, पर्वगीत, सामाजिक परिवेश-व्यंग्यात्मकता-प्रकृति चित्रण-पैरोड़ी-देशप्रेम आदि विभिन्न आयामोंका परिचय मिलता है। भारतेन्दुजीके काव्यमें प्रमुख रूपसे देशभक्तिकी छलछलाती धारा देखें, "भारत दुर्दशा में - "तुममें जल नहीं जमुना गंगा, बढ़हु वेग करि तरल तरंगा, धोबहु यह कलंककी रासी, बोरहु किन झट मथुरा कासी। बोरहु भारत भूमि सबेरे, मिटे करक जियकी तब मेरे। बहु न वेगि धाई क्यों भाई, देहु भारत भुव तुरत डुबाई धोबहु भारत अपजस पंका, मेटहु भारत भूमि कलंका।" कविकी व्यथा अपनी सीमाको लांघकर वहाँ पहुँचती है जहाँ 'न रहे बांस, न बजे बांसुरि' अर्थात् इतनी कलंकित मातृभूमिसे तो अच्छा है उसका अस्तित्व ही नामशेष हो जाय। क्योंकि यह वह भूमि है जहाँ “कोटि कोटि ऋषि पुण्य तन, कोटि कोटि अति शूर कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँकी धूर"... अतः उसके लिए क्या किया जाय यही सूझत नहीं- “सोइ भारतकी आज यह भइ दुरदसा हाय, कहा करें कित जायें, नहिं सूझत कछु उपाय।" देशभक्त श्रीभारतेंदुजी सदृश प्रभुभक्त श्रीआत्मानंदजीके साहित्यमें संपूर्ण समर्पित स्वकीया भक्तिके (155) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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