Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 178
________________ . दोनोंने स्वमत स्थापनाके लिए अनेक वाद चर्चा सभायें भी की थीं, लेकिन ईश्वरकी सृष्टि सर्जना- उसके उपादान, निमित्त साधारण कारण ईश्वरकी सर्वशक्तिमानतादि विषयक उलझी गुत्थियोंको जब वे विभिन्न तर्कों द्वारा सुलझानेका प्रयत्न करते थे अनायास ही उसमें ऐसे उलझते जाते थे कि मक़डी सदृश स्वयंके उस जालसे बाहर निकलनेका उन्हें कोई मार्ग नहीं मिलता था । " इस सारे विवेचनको पढ़कर लेखकके तर्कोंकी दुर्बलताकी ओर अनायास ही ध्यान जा सकता है । ” ( २० ) - "अज्ञान ही पाप है, इसके बिना पाप हो ही नहीं सकता। अतः पापका मूल (अज्ञान ) महापाप है और ईश्वरीय कानूनका अज्ञान सर्वाधिक महापाप है। "बाबावाक्यंको प्रमाण न मानकर सत्यासत्यकी स्वयं परीक्षा करके सत्यका स्वीकार और असत्यका परिहार करना ही महापुरुषोंका यथोचित जीवनोद्देश्य होता है।" श्रीदयानंदजीके ये विचार आवकार्य और स्वीकार्य भी है; लेकिन वर्तनमें उस राहको अपनानेके पुरुषार्थमें उनके कदम लड़खड़ाये हैं और वे स्वयंके सत्यादर्शसे च्यूत हुए हैं। तर्ककी कैंची चलाकर (खंडनात्मक व्यूह आजमाकर ) उन्होंने अन्य दर्शनोंकी धज्जियाँ उड़ायी हैं। जिनमें स्वस्थ खंडन-मंडनकी खुश्बूके प्रत्युत एकांगी ( मेरा सो सत्य) - विभिन्न दर्शनोंकी प्ररूपणाकी उचितानुचितताके, मध्यस्थ भावकी तुलापर प्रमाणित करनेकी परवाह किये बिना, स्वयंके दिलदर्पण में तद्ताद् दर्शनकी जो प्रतिच्छी प्रतिबिम्बित हुई उसीके आधार पर किये प्रलापोंकी बदबू फैली हुई है। असत्यका प्रतिकार उचित अवश्य है, लेकिन जिसे असत्य माना, वह वास्तविक असत्य है-प्रतिकार योग्य है कि नहीं, उसकी न्याय संगतताकी कसौटी भी उतनी ही अनिवार्य है। द्वादश समुत्लासमें जैन दर्शनके षड़द्रव्यके लिए प्रस्तुत विचार मूर्खक प्रलाप सदृश दृष्टिगोचर होता है। 'प्रकरण रत्नाकर' अनुसार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके लक्षणादिसे ज्ञात होनेके पश्चात् उन्होंने अपना अभिप्राय दिया कि," जैनियोंका मानना ठीक नहीं, क्योंकि धर्माधर्म स्वतंत्र द्रव्य नहीं आत्माके गुण है अतः दोनोंका जीवास्तिकायके गुणरूप समन्वय हो सकता है। अतः उन्हें 'छ' नहीं 'चार' द्रव्य मानने चाहिए"। यहाँ धर्मास्तिकाय गतिसहायक और अधर्मास्तिकाय स्थिरता सहयोगीके गुणधारी स्वतंत्र द्रव्यके विषयमें उन शब्दों 'धर्म' और 'अधर्म का रूह अर्थग्रहण और विशिष्ट पारिभाषिक अर्थका त्याग करके जो एकांगी अभिप्राय पेश किया है, यही उनकी स्वमत कदाग्रहताको उद्घाटित करता है (इस धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकायके समान लक्षण, गुण संयुत पदार्थ द्रव्य इथर का अन्वीक्षण आधुनिक भौतिक विज्ञानने भी प्रस्तुत किया है जो जैन दर्शनके षद्रव्य सिद्धान्तकी प्रमाणिकताकी पुष्टि करता है) इसी प्रकार जैन दर्शनके 'स्याद्वाद', 'सप्तभंगी' आदि दार्शनिक सिद्धान्त और आयु- अवगाहनादि जीव-विज्ञान संबंधी अत्यन्त प्रमाणभूत सूक्ष्मातिसूक्ष्म कथ्योंको हांसीपात्र बनाना यह भी दयानंदजीकी जड़-कदाग्रह और हठाग्रह युक्त स्वमतराग दृष्टिकी निर्बलता ही मानी जा सकती है। अगर ऐसा न होता तो वे चार्वाक, जैन और बौद्ध-तीन विभिन्न दर्शन (धर्म) में एकत्व स्थापित करनेका उपहासजनक उपक्रम न करते। जबकि श्रीआत्मानंदजी म. ने जिस किसी दर्शनके विपरित या एकांगीपनेका खंडन किया भी है, तो उसकी प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म सिद्धान्त कणिकाओंका विश्लेषणात्मक अनुशीलन करके किया है। यथा - 'सत्यार्थ प्रकाश' ग्रन्थान्तर्गत प्ररूपित ईश्वर जगत्कर्तृत्व, या जीवोंकी कर्ममुक्ति, सृष्टि रचनाके कारणादिके नित्यानित्यत्व या अनादि अनंतता आदिकी जो व्याख्या की है और अयुक्तका खंडन किया है उससे पूर्व ही उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश'का परिशीलन करके उनमें उद्धृत संदर्भ शास्त्रोंका समूचे वैदिक साहित्यको भी अध्ययन किया, तदनन्तर सत्यासत्यके निर्णायक तटस्थ चिंतन-मननके परिपाक रूप जो कहना था वह कह दिया। , श्री दयानंदजी बेतहाशा आक्षेपबाजीके अंधे तूफानमें अन्योंकी योग्यायोग्यताका खयाल भी नहीं कर सकें है जैसे षष्ठम समुत्तासमें अनेक स्थानों पर जैनों पर बेअदबी से किये गये झूठे आक्षेप तदनुसार "जैन और मुसलमानोंने आर्वजातिके पुरातन गौरवको व्यक्त करनेवाले नाना इतिहास ग्रन्थोंको नष्ट कर दिया है, फलतः हम उस युगकी अनेक बातोंसे अनभिज्ञ रह गये हैं।”- यह आक्षेप उनकी स्वयंकी जैन वाङ्मय विषयक- विशेषतः इतिहासादिकी अनभिज्ञता प्रमाणित करता है। सांप्रत कालमें तो यह बात विश्व विख्यात हो Jain Education International 153 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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